पेगासस जासूसी मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में सूचनाएं साझा करने से इंकार करके क्या सरकार न्यायपालिका के साथ टकराव की ओर बढ़ रही है.
यह सवाल मन में उठने की वजह उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजों के जमाने का राजद्रोह कानून और इसकी आड़ में संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के हनन का मामला पहले से ही लंबित होना है.
अभिव्यक्ति की आजादी और राजद्रोह के अपराध का विवाद अभी पूरी तरह थमा भी नहीं था कि निजता का अधिकार और गैर कानूनी तरीके से कथित जासूसी का मसला अब केन्द्र सरकार के गले पड़ गया. संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी और निजता के अधिकार का मसला बहुत ही संवेदनशील है और न्यायपालिका ने हमेशा ही इस पर कड़ा रुख अपनाया है.
शीर्ष अदालत ने आधार योजना से संबंधित JUSTICE K S PUTTASWAMY (RETD.), AND ANR. VS UNION OF INDIA AND ORS प्रकरण की सुनवाई के दौरान निजता के अधिकार का मुद्दा उठाने पर 24 अगस्त 2017 को अपनी व्यवस्था दी थी.
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जे एस खेहड़ की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से अपने फैसले में निजता के अधिकार को संविधान के तहत मौलिक अधिकार घोषित किया था. पीठ ने कहा था कि ‘निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार और व्यक्तिगत आजादी के अधिकार और संविधान के पूरे भाग III का हिस्सा है.’
केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए पेगासस जासूसी मामले में उच्चतम न्यायालय में कोई नया हलफनामा दाखिल करने से इनकार कर दिया है. केन्द्र के इस रवैये से न्यायपालिका संतुष्ट नहीं है क्योंकि वह जानना चाहती है कि क्या गैर कानूनी तरीके से कुछ लोगों की जासूसी कराई गई है?
न्यायालय ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित बिन्दुओं को जानने में उसकी दिलचस्पी नहीं है लेकिन जब केन्द्र ने विस्तृत हलफनामा दाखिल करने से इंनकार किया तो वह यह कहने के लिए बाध्य हो गया कि इस मामले में अंतरिम आदेश पारित किया जायेगा.
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में शामिल राजद्रोह के अपराध के प्रावधान और अब गैरकानूनी तरीके से लोगों की जासूसी के आरोपों में कटघरे में खड़ी केन्द्र सरकार के रवैये को किसी भी तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं माना जा सकता है.
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राफेल, राष्ट्रीय सुरक्षा और केंद्र सरकार का इनकार
याद होगा कि राफेल विमानों की खरीद को लेकर भी जब यह मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा था तो केन्द्र सरकार ने शुरू में राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हए लड़ाकू विमानों की कीमत से संबंधित जानकारी देने से इनकार कर दिया था. लेकिन बाद में सरकार ने सीलबंद लिफाफे में विमानों की खरीद के फैसले की प्रक्रिया से संबंधित जरूरी जानकारी न्यायालय को मुहैया कराई थी.
हालांकि, शीर्ष अदालत ने बाद में दिसंबर, 2018 में इन लड़ाकू विमानों की खरीद में कथित अनियमितता के आरोप लगाने वाली याचिकाएं खारिज कर दी थी.
राजद्रोह के अपराध से संबंधित कानून हो या अब पेगासस जासूसी कांड, मौलिक अधिकारों के हनन से जुड़े ऐसे मामलों में प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण का रुख कड़ा रहा है.
राजद्रोह के अपराध से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान भी प्रधान न्यायाधीश ‘औपनिवेशिक काल’ के राजद्रोह संबंधी दंडात्मक कानून के ‘दुरुपयोग’ से चिंतित थे.
इन याचिकाओं में दावा किया गया है कि ब्रिटिश काल में लागू यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हनन करता है और केन्द्र तथा राज्य सरकारें लगातार इस प्रावधान का दुरुपयोग कर रही हैं.
पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ एक निजी शिकायत के आधार पर राजद्रोह के आरोप का मामला दर्ज किये जाने के बाद से इस मामले ने तूल पकड़ा और न्यायालय ने भी इसके दुरुपयोग पर चिंता जताई.
प्रधान न्यायाधीश ने भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस कानून के दुरुपयोग की ओर इशारा करते हुए टिप्पणी की थी, ‘एक गुट के लोग दूसरे समूह के लोगों को फंसाने के लिए इस प्रकार के (दंडात्मक) प्रावधानों का सहारा ले सकते हैं.’
न्यायालय ने जब इस मामले में केन्द्र सरकार को अपना रुख स्पष्ट करने का निर्देश दिया है तो अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा कि उनका विचार है कि राजद्रोह के अपराध को कानून की किताब में रहने देना चाहिए और लेकिन इसका दुरुपयोग रोकने के लिए न्यायालय दिशा-निर्देश बना सकता है.
जहां तक पेगासस जासूसी प्रकरण की विशेष जांच दल से जांच के लिए याचिकाओं का संबंध है तो इस पर केन्द्र का कहना है कि ये याचिकाएं ‘अनुमानों या अन्य अप्रमाणित मीडिया रिपोर्टों या अधूरी या अपुष्ट सामग्री’ पर आधारित हैं.
केन्द्र ने इस मामले में एक संक्षिप्त हलफनामा दाखिल करने के बाद अब विस्तृत हलफनामा दाखिल करने से इंकार कर दिया है.
सरकार की दलील है कि यह सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं हो सकता कि हमने किसी विशेष सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है या नहीं क्योंकि संबंधित जानकारी हलफनामे का हिस्सा बनाना राष्ट्रहित में नहीं होगा.
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निजता के अधिकार का हनन और निजता के मौलिक अधिकार की रक्षा
सरकार इस मामले में विशेषज्ञों की समिति गठित करने और उसकी रिपोर्ट न्यायालय के समक्ष पेश करने के लिए तैयार है. सरकार लगातार यह कह रही है कि उसके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है.
दूसरी ओर, याचिकाकर्ता एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, वरिष्ठ पत्रकार एन, राम, अरुण शौरी, अधिवक्ता मनोहर लाल शर्मा और गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज की दलील है कि यह निजता के अधिकार के हनन का मामला है और न्यायालय को उनके निजता के मौलिक अधिकार की रक्षा करनी चाहिए.
एक याचिकाकर्ता की ओर से तो यह दलील भी दी गयी कि सरकार न्यायालय को अपनी आंखें बंद करने के लिए नहीं कह सकती है. सरकार का यह कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को मुद्दे की तथ्यात्मक स्थिति से अवगत कराए.
बहरहाल, अब देखना यह है कि क्या सरकार निकट भविष्य में पेगासस प्रकरण से संबंधित अपेक्षित जानकारी शीर्ष अदालत को उपलब्ध कराती है या नहीं.
सरकार का नजरिया भले ही कुछ हो लेकिन इतना तो निश्चित है कि आने वाले समय में अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के संदर्भ में राजद्रोह के अपराध से संबंधित धारा 124ए और पेगासस प्रकरण में लोगों की गैरकानूनी तरीके से आधुनिक सॉफ्टवेयर उपकरणों के माध्यम से निगरानी कर निजता के अधिकार के हनन के विषय पर न्यायालय की सुविचारित व्यवस्था का लाभ देशवासियों को मिलेगा ताकि भविष्य में कोई भी सत्ता नागरिकों के इन अधिकारों का हनन नहीं कर सके.
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)