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Monday, 25 November, 2024
होमदेशपुरुषों की तुलना में महिला नसबंदी प्रक्रिया ज्यादा जटिल लेकिन भारत में इसे ही प्राथमिकता दी जाती है

पुरुषों की तुलना में महिला नसबंदी प्रक्रिया ज्यादा जटिल लेकिन भारत में इसे ही प्राथमिकता दी जाती है

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में अपनाए जाने वाले परिवार नियोजन के सभी तरीकों में से 35.7% महिला नसबंदी और केवल 0.3% पुरुष नसबंदी के हैं.

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नई दिल्ली: छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में पिछले हफ्ते 101 महिलाओं की नसबंदी के मामला कुछ ऐसा है जो खुद इस पूरी प्रक्रिया की असली तस्वीर को सामने लाता है.

महिला नसबंदी या ट्यूबेक्टॉमी परिवार नियोजन के उपलब्ध तरीकों में सबसे ज्यादा जटिल है. फिर भी भारत में कंडोम, इंट्रायूटराइन डिवाइस (आईयूडी), गर्भनिरोधक गोलियों और पुरुष नसबंदी की तुलना में परिवार नियोजन के इसी तरीके का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)4- जिस नवीनतम सर्वेक्षण में सभी राज्यों का डाटा उपलब्ध हैं—के मुताबिक भारत में अपनाए जाने वाले परिवार नियोजन के सभी तरीकों में 35.7 प्रतिशत हिस्सेदारी महिला नसबंदी की है. पुरुष नसबंदी का आंकड़ा महज 0.3 प्रतिशत है.

चित्रण : रमनदीप कौर/ दिप्रिंट

राज्यों की बात करें तो महिला नसबंदी में छत्तीसगढ़ देश में सबसे आगे हैं, जहां इसका आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से अधिक है.

2015-16 में जब एनएफएचएस-4 डेटा एकत्र किया गया था, तो छत्तीसगढ़ में प्रचलित परिवार नियोजन के सभी तरीकों में महिला नसबंदी का हिस्सा 46.2 प्रतिशत था. इसकी तुलना में पुरुष नसबंदी केवल 0.7 प्रतिशत, आईयूसीडी 1.6 प्रतिशत, गोलियों का इस्तेमाल 1.7 प्रतिशत और कंडोम का उपयोग 3.9 प्रतिशत था.

2020 में भारत ने पूर्व निर्धारित लक्ष्यों के आधार पर परिवार नियोजन उपायों को रोकने के लिए अपनी जनसंख्या नीति में बदलाव किया. इससे चार साल पहले 2016 में जस्टिस मदन लोकुर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने आदेश दिया था कि अगले तीन वर्षों के भीतर नसबंदी के लिए ‘शिविर’ लगाने जैसे उपायों को बंद कर दिया जाना चाहिए.

हालांकि, एक्टिविस्ट का दावा है कि सरगुजा मामले से पता चलता है कि सामूहिक तौर पर नसबंदी की मानसिकता अभी भी बनी हुई है, इसका मुख्य कारण सरकार का ‘ऐसा करो-छोड़ो और भूल जाओ’ वाला दृष्टिकोण है.

ट्यूबेक्टॉमी लोकप्रिय क्यों है

ट्यूबेक्टॉमी प्रक्रिया में भविष्य में गर्भधारण की संभावनाओं को खत्म करने के लिए महिलाओं के फैलोपियन ट्यूब को जोड़ दिया जाता है, जो कि ऐसी नलिकाएं होती हैं जो अंडाशय में उत्पन्न होने वाले अंडों को गर्भाशय तक ले जाती हैं. यह एक स्थायी विकल्प है और परिवार नियोजन के लिए आईयूडी जैसे अन्य उपायों के विपरीत इसमें संबंधित महिला को आगे किसी तरह की चिकित्सा सुविधा की जरूरत भी नहीं पड़ती है.

यह बताते हुए कि ट्यूबेक्टोमी की प्रक्रिया पुरुष नसबंदी से कैसे अलग है, स्त्री रोग विशेषज्ञ और फेडरेशन ऑफ गायनेकोलॉजिकल एंड ऑब्स्टेट्रिक सोसाइटीज ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष डॉ प्रकाश त्रिवेदी ने कहा, ‘पुरुष नसबंदी आमतौर पर लोकल एनेस्थीशिया के तहत की जाती है. यह एक सरल प्रक्रिया है और जल्द ही आराम मिल जाता है. हालांकि, पुरुष इसके लिए आगे नहीं आते क्योंकि एक मिथक यह है कि इससे उनकी यौन क्षमता घट जाएगी.

उन्होंने बताया, ‘महिला नसबंदी आमतौर पर जनरल एनेस्थीशिया के तहत की जाती है और इसमें मरीज के ठीक होने अवधि इस पर भी निर्भर करती है कि यह लैप्रोस्कोपिक पद्धति से की गई या किसी अन्य तरीके से. वैसे, पुरुष नसबंदी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि यह एक आसान ऑपरेशन है.’

पुरुष नसबंदी की संख्या कम बनी हुई है क्योंकि लोग आपातकाल के हैंगओवर से कभी उबर नहीं पाए हैं जब कुछ समुदायों को सोच-समझकर निशाना बनाया गया था.

स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि सरकार की तरफ से लक्ष्य निर्धारित किया जाना काफी समय पहले ही खत्म किया जा चुका है, यह राज्य सरकारों पर छोड़ा जा चुका है कि वही यह तय करें कि परिवार नियोजन को कैसे लागू करना चाहते हैं.

आंकड़ों पर नजर डाले तो पता चलता है कि राज्यों के स्तर पर इसमें काफी भिन्नता है. बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं वाले राज्य में ट्यूबक्टोमी को अधिक अपनाया जाता है. अधिकारियों का कहना है कि ऐसा इसलिए क्योंकि यह प्रक्रिया तब तक नहीं अपनाई जा सकती जब तक कि न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध न हों, जैसे कम से कम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की इमारत होना जरूरी है.
एनएफएचएस-4 के आंकड़ों के मुताबिक, केरल में परिवार नियोजन के सभी उपायों में से 45.8 प्रतिशत ट्यूबक्टोमी होते हैं. तमिलनाडु में यह आंकड़ा 49.4 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 17.3 प्रतिशत और पंजाब में 37.5 फीसदी है.


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हालांकि, इस क्षेत्र में राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम करने वाली संस्था पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा का कहना है कि भारतीय जनमानस ने इसे लेकर एक अजब सोच बनी हुई है.

मुत्तरेजा ने कहा, ‘2000 में राष्ट्रीय नीति में लक्ष्य निर्धारण करने को हटा दिया गया था. फिर भी लक्ष्य की मानसिकता बनी हुई. संदेश फैलाया नहीं गया. हम एक योजनाएं बनाने वाला समाज हैं. हम योजनाएं बनाते हैं, लेकिन यह नहीं देखते कि जमीनी स्तर पर इस पर अमल कैसे किया जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘2015 के एक अध्ययन से पता चलता है कि नसबंदी कराने वाली 77 प्रतिशत महिलाओं ने कभी किसी अन्य गर्भनिरोधक उपाय का इस्तेमाल नहीं किया; उन्होंने केवल गर्भपात कराया था. दूसरी ओर, पहले ही कई बच्चों को जन्म दे चुकी महिलाओं की नसबंदी की तुलना में युवा विवाहितों और एनीमिया की शिकार लड़कियों के मामले में गर्भधारण में अंतराल बढ़ाने और उसे कुछ समय के लिए रोकने जैसे विकल्पों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए. हमने वास्तव में कभी भी अपने परिवार नियोजन कार्यक्रम का मूल्यांकन ही नहीं किया है.’

नसबंदी में असमानता

पुरुष-महिला नसबंदी के आंकड़ों में असमानता भारत में सालों से एक समस्या बनी रही है. सुप्रीम कोर्ट ने 2016 के अपने आदेश में कहा था कि 2013 और 2014 में नसबंदी की प्रक्रिया क्रमश: 95.09 फीसदी और 96.7 फीसदी महिलाओं पर अपनाई गई.

फैसले में ‘लक्ष्य’ निर्धारण प्रक्रिया लगातार जारी रहने की बात को भी रेखांकित किया गया.

अदालत ने कहा, ‘हालांकि भारत सरकार का कहना है कि नसबंदी कार्यक्रम पर अमल का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि लक्ष्य तय करने की कोई अनौपचारिक व्यवस्था है. हम यह सुनिश्चित करना प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की सरकार पर छोड़ देते हैं कि ऐसे कोई लक्ष्य निर्धारित न किए जाएं ताकि उन लक्ष्यों की पूरा करने के लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ता और अन्य लोग किसी को जबरन या उसकी सहमति के बगैर नसबंदी कराने के लिए बाध्य न कर सकें.

यह ऑपरेशन करने वाले डॉक्टरों को कोई अतिरिक्त प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है, लेकिन स्वास्थ्य कर्मियों और नसबंदी कराने वाले दोनों को नकद प्रोत्साहन मिलता है. यही वह वजह है जो सामूहिक नसबंदी शिविरों को फलने-फूलने देती है.

शीर्ष अदालत ने 2016 के अपने फैसले में यह भी कहा था, ‘भारत सरकार को निर्देश दिया जाता है कि वह राज्यों को नसबंदी शिविर आयोजित करने से रोकने के लिए तैयार करे जैसा कि देशभर में कम से कम चार राज्यों ने किया है. किसी भी स्थिति में भारत सरकार को स्पष्ट तौर पर इसके लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए कि नसबंदी शिविरों को तीन साल की अवधि में बंद कर दिया जाएगा. हमारी राय में, इसके साथ ही बुनियादी ढांचे और अन्य उपायों के मामले में देशभर के प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों को मजबूत करने की जरूरत होगी ताकि सभी लोगों को स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध हो सके.’

मुत्तरेजा ने एक अन्य समस्या की ओर भी इंगित किया कि देश के स्वास्थ्य बजट का केवल छह प्रतिशत हिस्सा परिवार नियोजन पर खर्च किया जाता है, और इसमें केवल 1.4 प्रतिशत अस्थायी गर्भनिरोधक विधियों जैसे कंडोम और आईयूडी पर खर्च किया जाता है.

असम और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में परिवार नियोजन पर कानून की तैयारियों का जिक्र करते हुए उन्होंने आगाह किया, ‘दो बच्चों के मानदंड वाली नीतियों पर जोर देने से केवल जबरन नसबंदी की प्रवृत्ति ही बढ़ेगी.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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