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Wednesday, 20 November, 2024
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चुनाव नतीजों का तीखा विश्लेषण बताता है अपेक्षा से अधिक होंगे मोदी की राह में कांटे

गुजरात का प्रचार और भाजपा का खुद का व्यवहार बाताता है कि सत्ताधारी दल भी कमजोर है. उसको अजेय मानने की नादानी तो ना ही करें.

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चुनावी जीत में हाशिए पर लिखी यह इबारत नहीं भूलनी चाहिए कि सत्ताधारी दल भी कमज़ोर है.

एक और गुजरात चुनाव का सूरज ढलने के साथ ही, नतीजे लगभग जाने-पहचाने से हैः भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को एक और यानी 1995 से लगातार छठी जीत मिली है. भाजपा को 182 में से 99 सीटें मिलीं, पिछली विधानसभा से 16 कम और 150 सीटें जीतने के इसके दावे से बहुत कम। वैसे, जीत तो जीत होती है. जब गुजराती 2022 में अगली विधानसभा चुनेंगे, तो भगवा दल लगातार 27 वर्षों से सत्ता में होगी- एक कार्यकाल जिसके बरक्स केवल पश्चिम बंगाल के वाममोर्चा की सरकार होगी.

हालांकि, जीत की इबारत में हाशिए पर लिखे लेकिन उद्वेलित करने वाले उप-शीर्षक को नहीं भूलना चाहिएः गुजरात का प्रचार और भाजपा का खुद का व्यवहार बाताता है कि सत्ताधारी दल भी कमजोर है. जैसा कि मैंने इससे पहले अपने कॉलम में लिखा है, भाजपा का बाहरी दबदबा इसके प्रदर्शन के आंतरिक भ्रमों के विरोधाभास के साथ खड़ा है. जहां पार्टी के नेता चैन की लंबी सांस ले रहे हैं कि उन्होंने बहुमत का आंकड़ा छू लिया. इस चुनाव ने हालांकि हमें भारतीय राजनीति में आयी करवट के बारे में कम से कम तीन चीजें बतायी हैं. ये पाठ हमारी प्रत्याशाओं से कहीं अधिक मज़ेदार क्वार्टर फाइनल का मज़ा देते हैं, जो मोदी के सत्ता में पहली बारी रहते हुए खेला गया.

पहला पाठ यह है कि भाजपा अपने आर्थिक रिकॉर्ड के मुद्दे पर मतदाताओं को नहीं लुभा पा रही. गुजरात में, भाजपा को एक रक्षात्मक प्रचार चलाने पर मजबूर होना पड़ा क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने लगातार ‘अच्छे दिनों’ की असफलता को मुद्दा बनाया। मुझे 2015 में भाजपा के एक दिल्ली स्थित समर्थक से बातचीत की याद आती है, जब मोदी सरकार संप्रग के 2013 में लाए भूमि-अधिग्रहण कानून के कुछ तत्वों को हटाकर उसका विधेयन (लेजिस्लेशन) करना चाहती थी. समर्थक ने दावा किया था कि टिप्पणीकार और थिंक टैंक भूमि बिल की असफलता की चीरफाड़ करेंगे, लेकिन यह असफलता एक अप्रासंगिक व्यवधान से अधिक कुछ नहीं है.

2018 में जब देश अगले आम चुनाव की तैयारी कर रहा होगा, उन्होंने उम्मीद जतायी कि विकास की दर 8 फीसदी के पास होगी, मुद्रास्फीति तीन प्रतिशत के नीचे रहेगी, निजी निवेश लगातार बढ़ेगा और घाटा कम होगा. आर्थिक नवीनीकरण की पीठ पर चढ़कर पार्टी फायदे में रहेगी, न कि राजनीतिक पंडित, ऐसा उस समर्थक ने भरोसा जताया. यह आशावादी रूझान अब हकीकत की ज़मीन पर चूर हो रहा हैः विकास लड़खड़ा गया है, मुद्रास्फीति बढ़ रही है, निजी निवेश कम है और वित्तीय दवाब उभर रहे हैं क्योंकि तेल के दामों में कमी के फायदे अब सूख रहे हैं. असमान आर्थिक आंकड़ों और सरकार की नौकरी देने में विफलता ने इसके दावों की कुछ हवा निकाल दी है.

भाजपा के लिए सकारात्मक बात यही है कि शहरी गुजरात पर इसकी पकड़ जीएसटी और नोटबंदी के दो कांटों के बावजूद बनी रही. इन दोनों ने ही व्यापारी समुदाय को बहुत परेशान किया था. अपने सबसे पुराने और वफादार वोटरों को बुरी तरह प्रभावित करनेवाली नीतियों को अपनाते वक्त मोदी और पार्टी अध्यक्ष शाह ने गणना की थी कि उनके मुख्य समर्थकों के पास कोई उम्दा विकल्प नहीं मौजूद है. भाजपा के साथ उद्यमी कितने भी खफा हों, वे कहां जाएंगे? मोदी-शाह का यह सिद्धांत गुजरात के नतीजों से पनपा निकलता है। दूसरी तरफ, ग्रामीण इलाकों की अलग कहानी है. वहां कांग्रेस ने भाजपा को पटखनी दी है, खासकर सौराष्ट्र में। भाजपा के लिए यह भी चिंतनीय है कि युवा (18 से 25 वर्ष के) कांसग्रेस की तरफ मुड़ रहे हैं, जो 2014 का ठीक उलटा हो सकता है, जब पहली बार वोट दे रहे युवाओं के बीच भाजपा सबसे लोकप्रिय थी.

गुजरात चुनाव का दूसरा सबक किसी नए पाठ की जगह एक रिमाइंडर सा है. भाजपा ने अपने प्रक्रियात्मक प्रारूप में बहुसंख्यक राष्ट्रवाद को एकीकृत तत्व की तरह देखा है. भाजपा को विकास बनाम हिंदुत्व के सामान्य द्वैध से देखना भले ही कितना भी आकर्षक लगे, लेकिन सच तो यही है कि मोदी इन दोनों को एक, समग्र बनाना चाहते हैं. गुजरात प्रचार ने कुछ अतिरेकी सांप्रदायिक वक्तव्य भी देखे, जिसमें कांग्रेस की ‘मुगलई’ मानसिकता से लेकर राहुल गांधी की ताजपोशी को ‘औरंगजेब राज’ तक कहा गया. प्रधानमंत्री सीधे तौर पर बहुसंख्यक बहाव और धार में उतर गए. यह भी पता चला कि ये सारी टिप्पणियां तो केवल प्रस्तावना थीं, मोदी के इस अजीब से आरोप की कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और दूसरे कांग्रेसी नेता पाकिस्तान के साथ मिलकर गुजरात में भाजपा को पलीता लगाना चाहते हैं. यह एक ऐसी आशंका थी, जिसे अधिक से अधिक ट्रंप-नुमा कहा जा सकता है.

मोदी के सहयोगियों ने भरसक अपने  ऊपर से आए संदेश को नीचे तक पहुंचाया. भावनगर की एक रैली में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस के कश्मीर पर ‘मुलायम’ रुख का मज़ाक उड़ाते हुए और रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रति सहानुभूति पर बरसते हुए उसके देशप्रेम का मज़ाक उड़ाया. दूसरे पार्टी नेता ने इस पर ज़ोर दिया कि भारत को देश में रहनेवाले ‘दाढ़ी-टोपी’ वालों की संख्या घटनी चाहिए. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ‘दाभोई में दुबई की जनसंख्या नहीं बसनी चाहिए.’(दाभोई वड़ोदरा की एक नगर-निकाय है)

ऐसे ध्रुवीकरण को बढ़ावा देनेवाले वक्तव्य 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव की याद दिलाते हैं, जहां मोदी ने ज़ोर दिया था कि विपक्षी दल पिछड़ी और निर्बल जातियों का आरक्षण लेकर किसी ‘अल्पसंख्यक” समुदाय को देना चाहते हैं. शाह ने आग में घी यह कहकर छिड़का कि अगर भाजपा बिहार में हार जाती है तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे. गुजरात अगर किसी तरह की राह दिखाता है, तो हमे 2018 में होनेवाले छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश औऱ राजस्थान के चुनावों का अनुमान लगा लेना चाहिए, जहां भाजपा के खिलाफ एंटी-इनकम्बैन्सी सबसे अधिक है.

तीसरा पाठ यह है कि एक समय मृतप्राय कांग्रेस में फिर से जीवन के निशान दिख रहे हैं. कांग्रेस समर्थकों के लिए पिछले साढ़े तीन साल में शायद ही खुशी के मौके आए हों. पार्टी ने जहां 2014 में खुद को हार के लिए तैयार किया था, लेकिन यह लगभग मिट ही गयी थी. पार्टी की दो मुख्य कमियां- नेतृत्व और दर्शन का अभाव- सभी के देखने के लिए खुली छोड़ दी गयी थीं. अगले महीनों में शायद ही कुछ ऐसा किया गया, जिससे लगे कि कांग्रेस हाईकमान को इन अस्तित्वगत मसलों की चिंता है. और फिर, जब पार्टी के समाधि-लेखों की स्याही सूख ही रही थी कि इसने जीवन के निशान दिखाने शुरू किए. राहुल गांधी शीर्षस्थ काम के लिए चुने गए, जिससे वर्षों की अटकलों को विराम मिला. चुनाव प्रचार और सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान भी राहुल अधिक आत्म-विश्वस्त और दृढ़ नज़र आए. इससे भी अचरज की बात यह कि कई मौकों पर वह राजनीति का लुत्फ लेते दिखे, जब उन्होंने प्रधानमंत्री पर तंज कसे या फिर भाजपा के रिकॉर्ड पर बरसे.

साथ ही, कांग्रेस का अहंकार भी कम दिखा, जिससे गुजरात में आसान गठबंधन बने. पिछले वर्षों में जहां कांग्रेस हार्दिक पटेल जैसे युवा-तुर्क को कुचलने का काम करती, इस बार वह उसके साथ चली. कांग्रेस की परंपरा में शायद ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर या दलित कार्यकर्ता जिग्नेश मेवाणी के साथ समझौता संभव नहीं होता, गुजरात प्रचार ने मौकापरस्त समझौते देखे. कांग्रेस संगठन भले ही आइसीयू में हो, लेकिन इसकी नब्ज कम से कम चल रही है.

भाजपा की नेतृत्व, संगठन और भौतिक स्रोतों में बढ़त को देखते हुए इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि नए वर्ष में भी भाजपा बढ़त के साथ प्रवेश करेगी, भले ही आर्थिक सच्चाई कुछ भी हो. गुजरात का बने रहना और हिमाचल का आना, मोदी और शाह की जोड़ी को चैन की सांस लेने देगा, हालांकि यह राहत बहुत कम देर की होगी, अगर गुजरात को 2018 में होनेवाली लड़ाई का ट्रेलर मान लें.

मिलन वैष्णव ‘कार्नेगी एनडाउमेंट फॉर इंटरनेशननल पीस’ के दक्षिण एशिया कार्यक्रम के वरिष्ठ फेलो औऱ निदेशक हैं. उनको Twitter @MilanV पर फॉलो कर सकते हैं.

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