‘मेलघाट की कहानियां बताती हैं कि बच्चों की मौतों की बड़ी वजह है भूख. दूसरी ओर भूख से निपटने की सरकारी व्यवस्था कई बार बड़ी बाधा बन रही है. ऐसा इसलिए कि इसे एहसास नहीं है कि भूख क्या होती है? भोजन करने की इच्छा भूख का एहसास तो कराती है, लेकिन मेलघाट में कोई बच्चा भूख से एक दिन में तो मरा नहीं. जैसा कि होता है हाइपोथैल्यस के हार्मोन छोड़ने से भूख बढ़ती गई होगी. अंतड़ियों में मरोड़ बढ़ती गई होगी. कई दिनों तक ज्यादा भूखे रहने के कारण तब कहीं जाकर भूखमरी की नौबत आई होगी और बच्चे का शरीर कंकाल बना होगा.’
वर्ष 2020 में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ कि रिपोर्ट है कि विश्वस्तर पर 820 मिलियन से अधिक लोग भूखे हैं. ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ के अनुसार 2020 भारत 107 देशों की सूची में 94वें स्थान पर है. आगे ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के अनुसार ही विश्व में भूख तीन साल बाद भी कम नहीं हो रही है और मोटापा लगातार बढ़ रहा है. भूख और मोटापा दो कतई मुख्तलिफ़ दुनिया का चेहरा हैं.
भारत में इन दो चेहरों को लेखक-पत्रकार शिरीष खरे ने अपने रिपोर्ताज़ में बखूबी उकेरे हैं. शिरीष का यह रिपोर्ताज़ संग्रह ‘राजपाल’ प्रकाशन से पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है. इन रिपोर्ताज़ में हमारी दुनिया के उन कोने-अंतड़ों की मार्मिक तस्वीर है जिन्हें तथाकथित मुख्यधारा से काट दिया गया है, जिनकी आवाज़ न्यूज चैनल्स की टीआरपी न बढ़ा पाने के कारण इच्छाधारी नाग-नागिन, बिग बॉस, आईपीएल, बेसिर-पैर की वेब-सिरीज़ और कुराजनीतिक धक्कम-धक्का में खो गई हैं. इस संग्रह में कुल बारह रिपोर्ताज़ हैं, जो बारह दुनियाओं की बात कहते हैं.
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ये कौन सी दुनिया है
पहला रिपोर्ताज़ ‘वह कल मर गया’ महाराष्ट्र के मेलघाट की हृदयविदारक तस्वीर है. जहां अपने मासूम बच्चे की मौत पर मां सपाट लहजे में कहती है- वह कल मर गया तीन महीने भी नहीं जिया. उसकी आवाज़ का सपाटपन दरअसल लगातार मृत्यु और भूख से जूझती उसकी आत्मा का सुन्न हो जाना है. मां पहले भी अपने दो बच्चे भूख की आग में गंवा चुकी है. लेखक आगे लिखता है- मैं हूं देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से उत्तर-पश्चिम की तरफ कोई सात सौ किलोमीटर दूर, पर मैं हूं कौन सी दुनिया में भाई?
यह वाकई कौन सी दुनिया है. जहां सरकारें या तो मानती हैं कि 1991 से 2008 तक 10,762 बच्चों की मौत हुई है, पर यह नहीं मानती कि ये सारी मौतें भूख से हुई हैं, क्योंकि यह मान लेने के बाद सरकारों की जवाबदेही तय होती है! लेकिन, लेखक की निगाह सिर्फ समस्याओं पर ही नहीं गई. उसकी खोजी दृष्टि उन कारणों को भी यथासंभव तलाशने का प्रयास करती है जिनके कारण महाराष्ट्र की कोरकू जनजाति की यह दुर्दशा है.
यहां ग्रामीण बताते हैं कि गांव में बिजली नहीं है, लेकिन पानी की कमी इन्हें सबसे ज्यादा सताती है. 1974 में एम टीआर यानी ‘मेलघाट टाइगर रिजर्व’ वजूद में आया और कोरकू जनजाति तबसे विस्थापन और पुनर्वास नामक दो पाटों के बीच लगातार पिस रही है. सरकार शेरों को बचाना चाहती है, इसलिए मेलघाट में शेरों के चमड़े बराबर जगह चाहिए थी. लेकिन, लेखक बताते हैं कि बाद में शेर का चमड़ा कैसे चौड़ा होते-होते पूरे मेलघाट को ढकने लगा है.
कितनी अजीब बात है कि जब हम प्रकृति की बात करते हैं तो हमारे ख्याल में घास-फूस, गाय-भैंस, शेर-चीता यहां तक कि पहाड़ और नदियां भी आ जाती हैं. बस वहां रहने वाले मनुष्य आदिवासी हमारे जेहन में नहीं आता.
‘पिंजरेनुमा कोठरियों में ज़िन्दगी’ नामक रिपोर्ताज़ में लेखक ने एशिया की सबसे बड़ी देह मंडी महाराष्ट्र के कमाठीपुरा की तस्वीर दिखाई है. इस तस्वीर में दिखता हर चेहरा घुटन से छटपटा रहा है. पर, इन ज़िंदगियों की कहीं रिहाई नहीं. कहें तो रिहाई की कोई आस नहीं…. वे इसे अपनी नियति मान चुकी हैं.
मैं यह जगह कभी नहीं छोडूंगी. मैं मरूंगी भी तो यहीं. बेला ने कमाठीपुरा से बाहर जीने की कल्पना छोड़ दी है. वजह, बाहर वह हर आदमी से डरती है. वहीं, यहां वह हर बाहरी आदमी के साथ होकर भी खुद को सुरक्षित महसूस करती है. कुछ ऐसी स्त्रियां भी हैं जो खुद तो इन पिंजरों से बाहर तो न निकल सकीं, पर अपनी अगली पीढ़ी को पढ़ा रही हैं और चाहती हैं कि वे इन तंग गलियों से बाहर बेहतर ज़िन्दगी गुजारें.
लेखक ने न केवल कमाठीपुरा की अलग-अलग कई स्त्रियों से बातचीत की है, बल्कि निजी तौर पर भी उन्होने इस ताने-बाने को समझने के लिए शोध किया है और इसे पढ़ते हुए इन तंग गलियों का सामाजिक-आर्थिक ताना-बाना व इनकी मूलभूत सांख्यिकी कुछ हद तक साफ होती नज़र आती है.
‘अपने देश के परदेशी’ नामक रिपोर्ताज़ के केंद्र में महाराष्ट्र का कनाडी बुडरुक नामक स्थान है. दरअसल स्थान नहीं, यहां रहने वाली तिरमली घुमंतू जनजाति है, इनकी तरह देश में कई घुमंतु-अर्धघुमंतु जनजातियां हैं जो अपने ही देश में निर्वासितों-सा जीवन बिता रहे हैं. पहले मराठवाड़ा में कनाडी बुडरुक नामक गांव में तिरमली जनजाति के लोग भी नंदी बैल का खेल दिखाकर जनता का मनोरंजन करते थे.
इस खेल तमाशे से ही जो थोड़ी-बहुत कमाई होती थी, उससे वे अपना जीवन-यापन करते थे. लेकिन, तब इनकी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं थी. पूरी तरह तो आज भी नहीं है. वे देश के नागरिक के रूप में नहीं गिने जाते थे. न पैन कार्ड, न राशन कार्ड न निवास प्रमाण पत्र… और इस तरह वे बरसों-वर्ष तमाम नागरिक सुविधाओं से वंचित रहे. लेकिन, उनकी एकता व संगठन ने तस्वीर को पहले से थोड़ा बदला है.
लेखक ने रिपोर्ताज़ में तिरमली समुदाय की जीवन शैली और कुछ हद तक उनके इतिहास पर अच्छी रोशनी डाली है. इसी प्रकार नट समुदाय पर लिखा रिपोर्ताज़ ‘कोई सितारा नहीं चमकता’ सैय्यद मदारी नट समुदाय के संघर्षों व अभावों का मार्मिक चित्रण करता है कि मुंबई के फिल्मी सितारों के चमकने के लिए यह मदारी नट समुदाय नेपथ्य में रहकर अपने करतब दिखाता रहा है.
तालियां सितारों के हिस्से आयीं और इन्हें इनका देय कभी नहीं मिला. लेखक ने इन समुदायों के भीतर उतरकर उनके संघर्ष, उनकी पीड़ा को समझा और लिखा है. इसलिए ये सारे रिपोर्ताज़ अपने समग्र में वंचितों की चटकार आवाज़ बनकर उभरे हैं. इस संग्रह के ज़्यादातर रिपोर्ताज़ ठेठ देहातों और पिछड़ी बस्तियों के हैं. इनके किरदार पिछड़ी जगहों के संघर्षरत आम मनुष्य हैं. लेखक ने उनकी आवाज़ के साथ अपनी कलम चलाकर अपनी एक तस्वीर सामने रख दी है. यह तस्वीर हमारी संवेदनाओं को गहरे तक झकझोरती और समृद्ध भी करती है.
किताब का नाम – एक देश बारह दुनिया, लेखक का नाम – शिरीष खरे, प्रकाशन – राजपाल प्रकाशन, नई-दिल्ली, विधा – कथेत्तर ( रिपोर्ताज़)
(उपासना कहानियां लिखती हैं.)
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