मिज़ोरम और असम जैसे दो छोटे-छोटे राज्य जमीन के लिए मशीनगन उठाकर क्यों आपस में भिड़ गए हैं, यह समझने के लिए हमें पांच सवालों पर ध्यान देना होगा. उनके जवाबों में ही इस मसले का राज छिपा हुआ है.
पहला सवाल यह है कि उत्तर-पूर्व के जिन छह राज्यों से असम की सीमाएं मिलती हैं उनमें से चार राज्यों के साथ ही असम का सीमा विवाद क्यों है, बाकी दो राज्यों के साथ क्यों नहीं? कम-से-कम उनसे कोई अहम विवाद नहीं है. इस सवाल पर एक और सवाल उठता है कि भारत का अपने लगभग सभी पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद क्यों है, खासकर उनके साथ जो देश विभाजन के बाद अस्तित्व में आए?
इसकी व्याख्या यह है कि जिस तरह पाकिस्तान भारत से अलग करके बना, और नेपाल के साथ सीमाएं ब्रिटिश काल से विरासत में मिलीं, असम के चार पड़ोसी राज्य भी 1963 से 1972 के बीच उससे अलग करके बनाए गए.
जिस तरह भारत और उसके नये पड़ोसियों के साथ सीमाएं एक बाहरी ताकत, ब्रिटेन ने हड़बड़ी में जैसे-तैसे तय कर दी थी, उसी तरह उत्तर-पूर्व के नये राज्यों की सीमाएं दिल्ली में बैठे नौकरशाहों ने तय कर दी. यह प्रक्रिया रेडक्लिफ के विपरीत ज्यादा आराम से पूरी की जा सकती थी क्योंकि इस मामले में सीमाएं भारत के नक्शे के अंदर हमारे अपने राज्यों के बीच तय की जानी थीं. लेकिन ज़्यादातर ब्रिटिश काल से विरासत में मिलीं सीमाओं को ही कायम रखा गया.
मिज़ोरम-असम के बीच ताजा विवाद इसका अच्छा उदाहरण है. 1972 में, जब असम के लुशाल हिल्स जिले को अलग करके मिजोरम नाम का केंद्रशासित प्रदेश बनाया गया (1987 में इस पूर्ण राज्य बना दिया गया) तब गृह मंत्रालय ने जिले की जो सीमा ब्रिटिश शासकों ने 1933 में तय की थी उसे ही तय कर दिया. अंग्रेजों ने इसी क्षेत्र की सीमाएं 1875 में भी तय की थी जिसके तहत कुछ क्षेत्र मिज़ो लोगों को दिए थे लेकिन 1933 में वे क्षेत्र उनसे वापस ले लिये गए. वह पहला सीमांकन 1873 के बंगाल ईस्टर्न फ़्रंटियर रेगुलेशन नामक कानून के तहत किया गया था. इसलिए, पहले सवाल का जवाब यह है कि इस उपमहादेश का जिस तरह विभाजन किया गया उसी तरह हड़बड़ी में सीमांकन की अप्रिय विरासत का यहां भी पालन किया गया.
अब हम दूसरे सवाल पर आते हैं. 1933 में सीमारेखा क्यों बदली गई? मिज़ो और असमी लोगों के बीच झगड़ा किस बात का था? वे 1875 वाली रेखा को कबूल करते हैं क्योंकि उनका कहना है कि उस समय उनके जनजातीय बुजुर्गों और मुखियायों से सलाह की गई थी. 1933 में ऐसा कोई लिहाज नहीं किया गया. हो सकता है कि तब तक लुसार हिल्स के मैदानी और थोड़े ढलवां क्षेत्र में चाय के बागान उग आए थे इसलिए अंग्रेजों के व्यापारिक हित उभर आए हों.
दूसरी ओर, असम का दावा कानूनी और नैतिक रूप से इसलिए मजबूत है क्योंकि उसका कहना है कि वह अधिकृत रूप से तय की गई सीमाओं को ही मान सकता है. इसके अलावा यह कि उसने राष्ट्रहित में अपनी उदारता का परिचय देते हुए अपने विशाल राज्य का इस तरह बंटवारा होने दिया. यही वजह है कि असम, त्रिपुरा और मणिपुर के बीच इस तरह का गंभीर सीमा विवाद नहीं है. इसकी वजह यह है कि उन दोनों राज्यों के क्षेत्र पहले से तय थे और उन्हें असम का विभाजन करके नहीं बनाया गया था.
तीसरा सवाल यह है कि इतने वर्षों तक दबे रहे ये सीमा विवाद आज क्यों उभर आए हैं? वह भी तब जबकि एक राजनीतिक दल, जो भारी बहुमत से देश पर शासन कर रहा है वह पूरे उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी सत्ता में है— या तो असम और त्रिपुरा में सीधे, या मणिपुर में गठबंधन के रूप में, या अरुणाचल में खरीदफरोख्त करके, या मेघालय, नागालैंड, मिज़ोरम में सहयोगियों के जरिए?
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गौरतलब है कि जब एक ही पार्टी कांग्रेस दोनों राज्यों में सत्ता में थी तब भी मुख्यतः असम और नागालैंड के बीच हिंसक सीमा विवाद हुआ था. अंतिम बड़ा विवाद, जिसमें 1985 में 41 लोग मेरापनी बाज़ार नामक गांव में मारे गए थे, तब हुआ था जब असम में हितेश्वर सैकिया और नागालैंड में एस.सी. जमीर मुख्यमंत्री थे.
इस सवाल का सीधा-सा जवाब यह है कि छोटे राज्य होने का एहसास भी काम करता है. भारत के पड़ोसी देश भी इसी भावना के कारण विवादित सीमा को लेकर क्रोध पाले रहते हैं. यहां हम केवल (पश्चिमी) पाकिस्तान की बात नहीं कर रहे हैं. वैसे, वहां यह भी माना जाता है कि माउंटबेटन ने नेहरू के साथ साठगांठ करके रेडक्लिफ को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि वे भारत के पंजाब का गुरदासपुर जिला भारत को सौंप दें. अगर यह ‘शैतानी’ न की जाती तो भारत के लिए जम्मू-कश्मीर तक सीधे पहुंचना असंभव हो जाता. मेहरबानी करके यह मत सोचिए कि मैं इसमें कोई औचित्य ढूंढ रहा हूं. ऐसी कोई बात नहीं है. हम यह मुद्दा भी सीमित रूप में उठा रहे हैं कि पुराने और बड़े राज्यों से अलग करके बनाए गए छोटे, नये राज्य आम तौर पर मन में शिकायत पाले रहते हैं. नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय और अरुणाचल के मन में इसी तरह के ‘अफसोस’ हैं.
चौथा सवाल—भाजपा, नॉर्थ ब्लॉक में इसके गृह मंत्रालय, और उत्तर-पूर्व के ज़ार नहीं तो महान वज़ीर माने गए असम के मुख्यमंत्री हिमन्त बिसवा सरमा ने इस विवाद की आहट पहले ही क्यों नहीं महसूस की और इसे रोका क्यों नहीं? अब भी वह इस ‘खेल’ को रोकने और सबको शांत करने के उपक्रम क्यों नहीं कर रही? दोनों राज्यों की सरकारें एक-दूसरे के सुरक्षा बलों और नागरिकों के खिलाफ इस तरह के धमकी भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं जैसे दो देश लड़ाई कर रहे हों? असम ने अपने लोगों को मिज़ोरम की यात्रा करने से मना करते हुए उनकी सुरक्षा के लिए यात्रा संबंधी अविश्वसनीय निर्देश कैसे जारी कर दिए?
मैं 1981-83 के बीच के सबसे संकटपूर्ण दौर में उत्तर-पूर्व से खबरें भेजने के लिए वहां रहा था. उस समय असम में चार तरह के विद्रोह उभर आए थे और असम इस तरह ठप पड़ा था कि वहां से एक बैरल कच्चा तेल भी पाइपलाइन से बिहार के बरौनी की रिफाइनरी में नहीं भेजा जा सकता था. तब भी ऐसा कोई निर्देश किसी ने नहीं जारी किया था. न ही जम्मू-कश्मीर, या आतंकवाद से त्रस्त पंजाब के लिए भी कभी ऐसा निर्देश जारी किया गया. भारत मैं ऐसा कभी नहीं हुआ. 2021 में हमने एक पहला राष्ट्रीय रेकॉर्ड जैसा बनाया है, जो एक शर्म ही है.
1985 में जब मैं असम-नागालैंड झगड़े को कवर करने के लिए मेरापानी गया था और देखा कि बीएसएफ आपस में झगड़ रहे दो पुलिस बलों को अलग कर रहा है और जिस तरह वह अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चौकियां बनाकर सीमा की रक्षा करता है उस तरह की चौकियां बनाकर दोनों राज्यों की सीमा की रक्षा कर रहा है. तब मैंने यही सोचा था कि इससे बुरा और कुछ देखने को नहीं रह गया. हमारे ही राज्यों के बीच इस तरह की चौकियां कैसे बन सकती हैं? आज यह सब एक अलग ही स्तर पर पहुंच गया है. निष्पक्षता की खातिर यह भी बताना जरूरी है कि मिज़ोरम से सांसद के. वनललवेणा बाहर खड़े होकर धमकी दे रहे थे कि असमियों को मार डालेंगे. दोनों राज्यों की ‘सीमाओं’ पर अब केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात हैं.
अब हम पांचवें सवाल पर आते हैं. भारत अपने सीमा विवाद को कहां सुलझा पाया है, और क्यों? मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार और शेख हसीना की सरकार के बीच जो प्रक्रिया शुरू की गई थी जिसे मोदी सरकार ने उदारता का परिचय देते हुए आगे बढ़ाया है, उसके तहत भारत ने बांग्लादेश के साथ अपनी जमीनी और समुद्री सीमाओं का मसला सुलझा लिया है. इसी तरह दशकों पहले इंदिरा गांधी ने श्रीलंका के साथ कछतिवू द्वीप संबंधी विवाद को सुलझाया था. दोनों मामले में बड़े पड़ोसी ने संकीर्णता या दादागीरी के जगह उदारता और फरागदिली का परिचय दिया था. इस सवाल का जवाब इससे मिल जाता है. भारत अगर ‘बिग ब्रदर’ वाला रवैया अपनाता तो यह सब संभव नहीं हो पाता.
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इन सारे जवाबों से हम कुछ निष्कर्षों पर पहुंचते हैं कि आखिर उत्तर-पूर्व में गलती क्या हुई. पहली बात तो यह है कि भाजपा ने इसे सिर्फ इसलिए एक ‘मोनोलिथ’ मान कर गलती की कि वह पूरे क्षेत्र पर राज कर रही है. वास्तव में ये सात बिलकुल अलग-अलग राज्य हैं, जिनमें हरेक की अपनी अलग मजबूत क्षेत्रीय भावना, जातीय भावना है और वे भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति ढीलाढाला नजरिया रखते हैं. भाजपा उनके ‘एकीकरण’ की जीतोड़ कोशिश कर रही है. इस फेर में वह उस चीज को बदलने की कोशिश कर रही है जिसे बदलना नामुमकिन है. इसने सोये पड़े क्षेत्रीयतावाद को जगा दिया है.
एकीकरण की इसी कोशिश में उसने ‘एनईडीए’ नाम का एक संगठन बनाया है. इसकी तुलना सेनाओं में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ या अब थिएटर कमांड के गठन पर उभरी बहस से की जा सकती है. वायुसेना और नौसेना सेना के हिस्से हैं. लेकिन सिर्फ संख्या की वजह से वे अपना प्रभुत्व नहीं छोड़ सकतीं. छोटे सहयोगियों से आपको बातचीत करनी पड़ती है, उन्हें तरजीह देनी पड़ती है, आश्वस्त करना पड़ता है. उन्हें एक केंद्रीकृत कमांड सिस्टम और एक कमांडर दे देने से बात नहीं बनती.
अंत में, इन छोटे राज्यों का गठन तीन वजहों से किया गया था. एक तो यह कि ये इलाके तब सुदूर शिलोंग में बैठी असम सरकार की नज़रों से दूर होने के कारण ध्यान से भी अलग हो गए हैं ऐसा महसूस कर रहे थे. दूसरे, उनमें बाहरी लोगों के कारण असुरक्षा की भावना भी थी, और अपनी पहचान गंवाने का भी डर था. और तीसरे, जनजातीय कुलीन तबके को सत्ता में भागीदारी भी देनी थी. संयुक्त असम में यह सब मुमकिन नहीं था क्योंकि उनकी संख्या अनुपात के हिसाब से इकाई अंक वाले प्रतिशत में पहुंचती थी. आज भी, सभी छह पड़ोसियों की कुल आबादी 1.55 करोड़ ही है, जो असम की आबादी का करीब 40 प्रतिशत है.
वे असम को हमेशा ‘बिग ब्रदर’ के रूप में नापसंदगी की नज़र से देखते रहे हैं. वे न तो दिल्ली का वर्चस्व चाहते हैं, न दिसपुर का. इस सबके ऊपर भाजपा ने उन्हें असम के मुख्यमंत्री के रूप में एक क्षेत्रीय कमांडर-इन-चीफ सरीखा दे दिया है. यह अव्यावहारिक, अविवेकपूर्ण, और असहनीय है.
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