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Friday, 22 November, 2024
होमदेश‘मेरा लोकतंत्र में विश्वास और यह अपराध नहीं होना चाहिए'- म्यांमार के शरणार्थियों को जुंटा शासन के पतन की उम्मीद

‘मेरा लोकतंत्र में विश्वास और यह अपराध नहीं होना चाहिए’- म्यांमार के शरणार्थियों को जुंटा शासन के पतन की उम्मीद

म्यांमार से सैकड़ों की संख्या में शरणार्थी, जिसमें अपदस्थ सरकार के कई सदस्य भी शामिल हैं, मणिपुर में शरण ले रहे हैं और वहां के निवासी भी उन्हें रहने की जगह, भोजन और कपड़े आदि उपलब्ध कराने के लिए आगे आए हैं.

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तेंगनौपाल: मार्च के मध्य में तीन लोग म्यांमार के सीमावर्ती शहर तामू में आभूषण की एक दुकान के पास मौजूद थे, जब देश की सेना ने वहां फायरिंग कर दी. इन तीनों में एक सुनार, दूसरा कार मैकेनिक और तीसरा एक वालंटियर था जो पड़ोस पर नजरें रखे था. वे बताते हैं कि जब म्यांमार की सेना ने हमला किया तो वो पूरी तरह से घिर गए थे.

सुनार ने बताया, ‘मुझे पता लगा था कि ज्वैलरी स्टोर पर कुछ हंगामा हो रहा है. मैं उसी इलाके के नजदीक रहता था इसलिए माजरा समझने के लिए दुकान पर पहुंच गया था. लेकिन मेरे वहां पहुंचने के थोड़ी ही देर बाद उन्होंने फायरिंग कर दी.’

सुनार को यूनिनरी ब्लैडर में गोली लगी थी. वहीं. उसी समय दुकान के पास मौजूद रहे कार मैकेनिक को स्पलीन के पास गोली लगी थी जिससे उसका पाचन तंत्र नष्ट हो गया. हमले के दौरान गंभीर रूप से घायल होने के बाद बच गए वालंटियर को दो गोलियां पैरों में, एक कलाई पर एक सीने में लगी थी और इसकी वजह से आंतरिक स्राव होने लगा था. तीनों ने देखा कि वहां खड़े एक अन्य व्यक्ति की गोलियां लगने से मौके पर ही मौत हो गई.

रक्तस्राव और तेजी से होश खो रहे इन लोगों को स्थानीय निवासियों ने मांडले शहर स्थित एक अस्पताल पहुंचाया तो लेकिन सैन्य उपस्थिति के डर से उन्हें वापस ले आए.

वालंटियर ने कहा, ‘हम गंभीर स्थिति में थे. सीमा पार करके भारत आने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. अन्यथा, हम मर जाते.’

म्यांमार से आए जिन सभी नागरिकों से दिप्रिंट ने बात की उन्होंने अपने देश लौटने पर प्रतिशोध के डर से अपना नाम न छापने का आग्रह किया.

हालांकि, म्यांमार और भारत के बीच आधिकारिक मार्ग, जो तेंगनौपाल के मोरेह टाउन में खुलता है, पिछले एक साल से बंद है. लेकिन सीमा पार से आ रहे शरणार्थियों ने देश में प्रवेश के लिए अन्य रास्ते ढूंढ़ लिए हैं.

मणिपुर के तेंगनौपाल जिले में अब भी फंसे हुए इन लोगों के पास पर पीठ पर लदे थोड़े-बहुत कपड़ों के अलावा कुछ नहीं है.

उनकी तरह ही अन्य सैकड़ों लोग- म्यांमार में अपदस्थ सरकार के कई सदस्यों समेत- राज्य में शरण ले रहे हैं, जो केंद्र सरकार के एक आदेश के बाद उनकी कोई सहायता करने में हिचक रहा है.

यद्यपि कोई सरकारी समर्थन नहीं मिल रहा है लेकिन म्यांमार सीमा से लगे जिलों के निवासी बिना किसी हिचकिचाहट के शरणार्थियों को रहने की जगह, भोजन और कपड़े आदि मुहैया कराने के लिए आगे आए हैं.

तेंगनौपाल स्थित एक कुकी कल्याणकारी संगठन के एक सदस्य ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम उन्हें ऐसे ही नहीं छोड़ सकते. वे सीमा पार के हमारे भाई-बहन ही हैं. वे लोकतंत्र चाहते हैं. आखिरकार हम कैसा लोकतंत्र होंगे यदि हम भी उन्हें उस चीज को पाने की कोशिश के लिए सजा देने लगे जो हमारे पास है?’

फोटो: सिमरन सिरूर/दिप्रिंट

तख्तापलट में बचे

म्यांमार 1 फरवरी को उस समय से ही अस्थिरता की स्थिति झेल रहा है जब आधिकारिक तौर पर तातमाडॉ के नाम से जाने जानी वाली सेना ने देश पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया और लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित आंग सान सू की की सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंका.

जबर्दस्त रक्तपात और हिंसा के बावजूद हजारों की संख्या में लोग सविनय अवज्ञा आंदोलन या सीडीएम में शामिल हो गए हैं, वहीं कुछ गुटों ने तो सैन्य कार्रवाई के खिलाफ अपने बचाव के लिए हथियार भी उठा लिए हैं.


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मानवाधिकार संगठन असिस्टेंस एसोसिएशन फॉर पॉलिटिकल प्रिजनर्स (बर्मा) के मुताबिक, 26 जुलाई तक 5,370 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, गिरफ्तारी से बचने वाले 1,963 लोगों के खिलाफ वारंट जारी किया गया है और जुंटा द्वारा 934 लोगों की हत्या भी कर दी गई है.

मणिपुर में फंसे तमाम शरणार्थी अपनी पहचान सीडीएम में शामिल लोगों के तौर पर बताते हैं जिन पर अपने लक्ष्यों को हासिल करने की बड़ी जिम्मेदारी है.

म्यांमार स्थित एक प्रमुख यूनिवर्सिटी के प्रशासनिक कर्मचारी ने कहा कि तातमाडॉ द्वारा उनकी यूनिवर्सिटी पर कब्जा करने, गोलियां चलाने, अलमारियां तहस-नहस करने और शिक्षकों को पीटे जाने के बाद सीमा पार करके यहां शरण लेने से पहले 10 दिन तक वह यहां-वहां भागते ही रहे थे.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘उनके पास हमारे नामों की एक सूची है, और मेरा नाम उसमें शामिल है.’ उन्होंने बताया कि सविनय अवज्ञा आंदोलन के सदस्य के नाते उन्होंने न केवल विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था, बल्कि धन भी जुटाया और अन्य सदस्यों के लिए भोजन आदि की भी व्यवस्था की थी.

उन्होंने बताया, ‘बचने के लिए मैं भूमिगत हो गया, कई बार कारें बदलीं, और देश छोड़ने से पहले दोस्तों के घर पर भी रहा, कभी-कभी अपने कमरे से नहीं निकलता या कई दिनों तक खाना भी नहीं खाता. हर वार्ड में एक मुखबिर होता है, और मेरी भी एक बार करीबी मुठभेड़ हुई थी.’

एक 20 वर्षीय सरकारी हाई स्कूल टीचर ने दिप्रिंट को बताया कि तातमाडॉ ने उसकी वोटर आईडी जब्त कर ली और उसके घर पर छापा मारा, जिससे उसे आधी रात में ही भागने को मजबूर होना पड़ा. उसने होमालिन स्थित अपने घर से तामू पहुंचने का रास्ता बनाया और वहां अपने चाचा से मिली और इसके बाद एक स्कूटर पर मणिपुर पहुंची.

उसने बताया, ‘मैं अपने परिवार के संपर्क में हूं. वे चाहते हैं कि मैं तब तक यहीं रहूं जब तक वहां चीजें बेहतर नहीं हो जातीं और मेरे लिए वापस लौटना सुरक्षित नहीं हो जाता.’

तातमाडॉ से बचकर आए ये शरणार्थी मणिपुर में गुमनामी के साथ अपना जीवन बिताना चाहते हैं.

मार्च में राज्य सरकार के विशेष सचिव ने एक आदेश जारी किया था जिसके मुताबिक, शरणार्थियों को ‘विनम्रता के साथ लौटाया जाना चाहिए.’ हालांकि, सार्वजनिक स्तर पर आक्रोश के बाद यह आदेश वापस ले लिया गया था, लेकिन केंद्र सरकार के निर्देश अभी कायम हैं और राज्य की तरफ से किसी कार्य को काफी हद तक प्रभावित कर रहे हैं.

चूड़ाचंद्रपुर में म्यांमार के शरणार्थियों को सीमा में घुसपैठ के लिए गिरफ्तार किया गया और जेल में रखा गया है, जबकि मोरेह में सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों की तरफ से शरणार्थियों को पूरी सक्रियता के साथ वापस लौटाया जा रहा है.

छिपकर बिता रहे जीवन

भारत म्यांमार के साथ 1,643 किलोमीटर की सीमा साझा करता है, जो कि नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम से लगी हुई है.

मणिपुर और मिजोरम के कुछ हिस्सों में जनजाति कुकी लोगों का वर्चस्व है, जो म्यांमार के लोगों के साथ गहरे सांस्कृतिक और जातीय संबंध साझा करते हैं, खासकर सागाइंग और चिन राज्यों में रहने वालों के साथ.

दोनों देशों के बीच एक करार है जिसे फ्री मूवमेंट रिजीम (एफएमआर) कहा जाता है, जो किसी भी देश की जनजातियों को बिना किसी दस्तावेज के 16 किलोमीटर तक सीमा पार करने की अनुमति देता है. एफएमआर को पिछले साल कोविड-19 के कारण निलंबित कर दिया गया था.

इस इतिहास और परस्पर रिश्तेदारी के कारण मिजोरम ने शरणार्थियों का खुले दिल से स्वागत किया है और केंद्र सरकार की पाबंदियों का खुले तौर पर उल्लंघन करके उनके कल्याण के लिए फंड भी एकत्र किया जा रहा है.

ऐतिहासिक रूप से मणिपुर भी हिंसक शासन से बचकर भागने वाले अपने पड़ोसियों को शरण देता रहा है. म्यांमार में 1988 के विद्रोह के दौरान मणिपुर के चंदेल जिले में शरणार्थी शिविर खोले गए और असम राइफल्स ने इन्हें संरक्षण प्रदान किया था.

लेकिन आज ऐसा नहीं है. अब शरणार्थी भोजन आदि के लिए अपने मेजबानों और वालंटियर की दया पर निर्भर हैं, और पकड़े जाने के डर से अपने घर छोड़ने से बचते हैं.

India shares a 1,643-km border with Myanmar | Illustration: Ramandeep Kaur
म्यांमार से भारत की 1643 किलोमीटर की सीमा लगती है | चित्रण: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

एक स्थानीय निवासी ने अपना नाम न छापने की शर्त पर बताया, ‘हमारे पास जो थोड़े-बहुत कपड़े होते हैं, हम उन्हें दे देते हैं. वे खुद ही काफी साधन संपन्न हैं और कभी-कभी अपने भोजन की व्यवस्था खुद ही करते हैं, इसलिए खर्च के लिहाज से यह कोई बड़ी समस्या नहीं है. लेकिन मेरा घर अब करीब-करीब भर चुका है, और अगर बहुत अधिक लोग आते हैं तो मुझे उन्हें लौटाना होगा.’

बहरहाल, समस्या तब होती हैं जब मणिपुर के अधिकारियों के साथ टकराव की स्थिति आ जाती है, जैसे चिकित्सा आपात स्थिति आने आदि के मामले में.

स्थानीय लोगों ने बताया कि गोली लगने से घायल हुए तीनों लोगों को अंततः इलाज के लिए इंफाल ले जाया गया, लेकिन कई दौर के विचार-विमर्श और राज्य सरकार से अनुमति लेने के बाद ही ऐसा हो पाया.

तेंगनौपाल में एक राहत समूह के साथ काम करने वाले एक स्थानीय नेता ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा, ‘यदि यहां कोई शरणार्थी कोविड पॉजिटिव हो जाता है या उसे अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत होती है तो कर्मचारियों की पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि उन्हें लौटा दें. लेकिन उन्हें भर्ती कराने के लिए हमें उनको समझाना पड़ता है.’

चूड़ाचंद्रपुर में गिरफ्तार किए गए 29 शरणार्थियों में से दो की बाद में हिरासत के दौरान ही कोविड-19 की चपेट में आकर मौत हो गई.


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इम्फाल स्थित एक संगठन ह्यूमन राइट्स अलर्ट ने आरोप लगाया है कि शरणार्थियों को राज्य की तरफ से न तो भोजन उपलब्ध कराया गया और न ही समय पर चिकित्सा दी गई, जिससे उनकी स्थिति और बिगड़ी है.

मणिपुर मानवाधिकार आयोग के पास एक मामला दर्ज कराया गया है, और यद्यपि राज्य के अतिरिक्त जेल महानिदेशक ने कुछ भी गलत होने की बात से इनकार किया है, लेकिन शिकायत पर आधिकारिक प्रतिक्रिया का अभी इंतजार किया जा रहा है.

ह्यूमन राइट्स अलर्ट के निदेशक बबलू लोइटोंगबाम ने दिप्रिंट को बताया, ‘सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि अगर वे गिरफ्तारी से पहले औपचारिक रूप से शरणार्थी के तौर पर अपना पंजीकरण कराना चाहते हैं, तो उन्हें दिल्ली जाना होगा और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के कार्यालय में खुद उपस्थित होना होगा. लेकिन जब आपके पास पहचान पत्र नहीं है, तो मणिपुर से दिल्ली की यात्रा कैसे संभव है?’.

उन्होंने आगे जोड़ा, ‘उन्हें पंजीकरण प्रक्रिया आसान बनाने के लिए यहां एक कार्यालय खोलना चाहिए. या फिर उन लोगों को पंजीकरण सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए जो यात्रा नहीं कर सकते.’

मई में मणिपुर हाई कोर्ट ने शरणार्थी दर्जे के लिए आवेदन करने के उद्देश्य से सात शरणार्थियों को यह कहते हुए दिल्ली जाने की अनुमति दी थी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गैर-भारतीयों को भी जीवन का अधिकार दिया गया है.

लोइटोंगबाम ने कहा, ‘यह एक बहुत शानदार फैसला है. लेकिन सैकड़ों अन्य लोगों को भी इसी तरह की मदद की जरूरत है.’

दिप्रिंट ने ईमेल के जरिये यूएनएचसीआर के कार्यालय में संपर्क साधा लेकिन यह रिपोर्ट प्रकाशित होने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली थी.

तेंगनौपाल के जिला मजिस्ट्रेट एन. प्रवीण ने कहा, ‘हमारे सभी सुरक्षा बल सीमाओं पर एकदम सतर्क हैं, जो कि सील भी की जा चुकी हैं. हम सीमाएं सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन साथ ही मानवीय आधार पर भी जो संभव हैं, करते हैं.’

मोरेह में लॉकडाउन लगा है | फोटो: सिमरन सिरूर/दिप्रिंट

तख्तापलट के निहितार्थ

भारत में फंसे सीडीएम में हिस्सा लेने वाले सदस्यों के लिए सुरक्षित घर वापसी तभी संभव है जब वहां लोकतंत्र बहाल हो.

सत्ता फिर से हासिल करने के प्रयास के तहत अपदस्थ सांसदों ने दो महीने पहले नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट (एनयूजी) का गठन किया था, म्यांमार की निर्वासित सरकार वैधानिक मंजूरी के लिए संघर्ष कर रही है.

सीडीएम के कुछ गुट स्थानीय सशस्त्र मिलिशिया के तौर पर भी विकसित हो गए हैं जो एनयूजी की सशस्त्र इकाई, पीपुल्स डिफेंस फोर्स के लिए लड़ते हैं. लेकिन इसने चिंता भी बढ़ा दी है क्योंकि ये समूह भारत-म्यांमार सीमा से लगे जंगलों से संचालित हो रहे हैं.

मणिपुर में घाटी में सक्रिय कुछ विद्रोही समूहों ने कथित तौर पर म्यांमार की जुंटा के साथ मिल गए हैं, जिससे देश के असंतुष्टों के खिलाफ एक और ताकत खड़ी हो गई है. इससे राज्य में जातीय विभाजन और गहराने की आशंका बनी हुई है.

लोकतांत्रिक अधिकारों की वकालत करने वाले एक समूह साउथ एशियन फॉर ह्यूमन राइट्स ने इस महीने की शुरुआत में एक ब्लॉग पोस्ट में लिखा था, ‘भारतीय धरती पर प्रतिरोध करने वाले लड़ाकों को संभावित प्रशिक्षण और क्षेत्र में पनप रहा अवैध हथियारों का कारोबार, पूर्वोत्तर राज्य में भारत सरकार का विरोध करने वाले सशस्त्र विद्रोही समूहों की मौजूदगी और पूर्वी एशिया से नशीले पदार्थों के कारोबार आदि को देखते हुए म्यांमार के विस्थापितों के साथ-साथ स्थानीय समुदाय की सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है.’

नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर और इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज की जून की एक रिपोर्ट में कहा गया है, ‘बहुत संभाव है म्यांमार पुरानी सरकार की बहाली या नए चुनावों की बजाये 2021 के बाकी महीनों में बड़े पैमाने पर सशस्त्र विद्रोह की राह पर बढ़ जाए.’

इसमें कहा गया है, ‘नई दिल्ली को शरणार्थियों को समायोजित करने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि म्यांमार में स्थिति लगातार बिगड़ रही है, खासकर उन लोगों के मामले में जो सीमावर्ती क्षेत्रों के रहने शरणार्थी/बागी हैं और भारत में अपने समकक्षों के साथ गहरे सांस्कृतिक, जातीय और धार्मिक रिश्ते रखते हैं.’

दिप्रिंट ने जिन शरणार्थियों से बात की, उनका कहना था कि वह अपने लिए सुरक्षित माहौल होने पर निश्चित तौर पर अपने घर लौटना चाहते हैं. तमाम लोगों को भरोसा है कि भले ही अभी उनके देश में हिंसा हो रही है, लेकिन आने वाले महीनों में सैन्य शासन का खात्मा होगा.

यूनिवर्सिटी कर्मचारी ने कहा, ‘मैं अभी शरण के लिए आवेदन नहीं करना चाहता. मुझे पूरा विश्वास है कि जीत हमारी ही होगी. यदि सिविल सेवक हड़ताल जारी रखते हैं तो जुंटा की सत्ता चलती नहीं रह सकती है.’

‘एनयूजी को मान्यता मिले’

यह पूछे जाने पर कि वह क्या चाहते हैं दुनिया उनके हाल के बारे क्या जाने, शरणार्थियों ने अपने संघर्षों के तमाम पहलुओं को रेखांकित किया- भारत भारत में शरण लेने की मजबूरी से लेकर म्यांमार में फैले कोविड-19 संकट तक.

म्यांमार ने गुरुवार को 6,000 से अधिक नए केस और 316 मौतें दर्ज की गई है और इस बीच सेना तख्तापलट का विरोध कर रहे स्वास्थ्य कर्मियों का लगातार दमन कर रही है. भारत में फंसे लोगों के पास अपने प्रियजनों को बीमारी के शिकार बनकर जान गंवाते देखने के अलावा कोई चारा नहीं है.

म्यांमार में तबाही मचाने वाली कोविड-19 की लहर ने 1988 में तख्तापलट का विरोध करने वाले कई दिग्गज विद्रोहियों की भी जान ले ली है- जिनमें कुछ ने मौजूदा आंदोलन के लिए प्रेरित किया था जो लगातार जारी है.

गोलियों की मार झेलने के बाद कोलोस्टॉमी बैग के इस्तेमाल करने को बाध्य कार मैकेनिक ने कहा, ‘म्यांमार का दम घुट रहा है क्योंकि हमारे पास पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं है. लोगों की जान लेने के लिए जुंटा की तरफ से न केवल गोलियों का इस्तेमाल किया जा रहा है बल्कि लोगों को ऑक्सीजन सिलेंडरों भराने से भी रोका जा रहा है. कोविड संकट पर उनके इंतजाम बदहाल हैं और लोगों को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है.’

यूनिवर्सिटी कर्मचारी ने कहा कि सविनय अवज्ञा आंदोलन और एनयूजी को और अधिक अंतरराष्ट्रीय समर्थन की जरूरत है.

जहां कई देशों ने म्यांमार पर प्रतिबंध लगा दिए हैं, वहीं रूस और चीन ने सैन्य जुंटा को हथियारों की आपूर्ति करके उसका समर्थन करना जारी रखा है. भारत ने तख्तापलट की निंदा तो की है, लेकिन सिंगापुर के शोधकर्ताओं का मानना है कि नई दिल्ली की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही है.

शोधकर्ताओं का कहना है कि 1990 के दशक के बाद से भारत ने बेहद सधे हुए ढंग से ‘अपने रणनीतिक हितों (पूर्वोत्तर की सुरक्षा और उग्रवाद को रोकने) और म्यांमार विशेषकर दक्षिण पूर्व एशिया में कारोबारी हितों के मद्देनजर सेना (और उसके सहयोगी सहयोगियों) के साथ सहयोग जारी रखते हुए आंग सान सू की और एनएलडी के साथ अच्छे राजनयिक संबंध कायम कर रखे हैं. इनके बीच एक पारस्परिक संबंध रहा है.’

यूनिवर्सिटी कर्मचारी ने कहा, ‘अन्य देशों को सेना का बहिष्कार करना चाहिए. हमारे उद्देश्य को और अधिक अंतरराष्ट्रीय समर्थन की आवश्यकता है, खासकर आसियान से. और संयुक्त राष्ट्र को नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट को मान्यता देनी चाहिए.’

म्यांमार स्थित कुकी महिला मानवाधिकार संगठन की एक कार्यकर्ता ने दिप्रिंट को बताया, ‘शरणार्थियों के तौर पर हमारा पंजीकरण किए जाने की प्रक्रिया और आसान बनाने की जरूरत है. हमारी सबसे बड़ी चिंता हमारी सुरक्षा और असुरक्षा की भावना है. मैंने यूएनएचसीआर को लिखा है और उनके नंबरों पर कॉल किया है, लेकिन एक महीने से अधिक समय के बाद भी कोई जवाब नहीं आया है.’

हालांकि, उन सभी के लिए, दूर रहकर भी विरोध करना छोड़ देना कोई विकल्प नहीं है. तीनों घायलों ने बताया कि वे सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत प्रदर्शनों में शामिल नहीं हुए थे, लेकिन जैसे ही ठीक होंगे, उसका हिस्सा बनना चाहते हैं.

सुनार ने कहा, ‘मैं एक लोकतंत्र में विश्वास करता हूं. यह विश्वास अपराध नहीं होना चाहिए, और मैं इसके लिए लड़ने को तैयार हूं, भले ही यह मेरे जीवन को फिर से खतरे में डाल दे.’ अन्य लोगों ने भी उनकी बात पर हामी भरी.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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