नई दिल्ली: विजय कुमार, राजेश डब्ल्यू. अधाऊ और वी.वी. शर्मा के लिए डॉक्टर होना एक पेशा है लेकिन उनका दिल तो आज भी हरे रंग की वर्दी यानी सेना के बारे में बात करते हुए भावुक हो जाता है.
पूरा देश जब करगिल युद्ध की 22वीं वर्षगांठ मना रहा है और पाकिस्तानी सैनिकों से लड़ते हुए सर्वोच्च बलिदान देने वाले बहादुर जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है, तो अब सेना में कर्नल बन चुके तीन डॉक्टर युद्ध के दौरान सैकड़ों जानें बचाने पर गर्व महसूस कर रहे हैं.
इन तीन डॉक्टरों ने अब रिटायर हो चुके एक अन्य डॉक्टर के साथ वीरता के लिए सेना पदक जीता था. इन्होंने अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना अग्रिम मोर्चे पर भारी गोलाबारी के बीच घायलों का इलाज करके भारतीय हताहतों की संख्या घटाने में अहम भूमिका निभाई थी.
इन डॉक्टरों को पता था कि उन्होंने किस जिम्मेदारी को संभालने का बीड़ा उठाया है और कारगिल युद्ध में उन्होंने अपनी क्षमताओं का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी किया.
कर्नल कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘सेना में शामिल होने से पहले मैं इन सभी परिस्थितियों से अवगत था. आप इतिहास से समझ सकते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध जैसी जंग के दौरान भी डॉक्टरों ने हमेशा अहम भूमिका निभाई है. लेकिन निश्चित तौर पर यह एक अलग तरह का अनुभव था.’ उनसे पूछा गया कि एमबीबीएस खत्म करने के बाद सेना के लिए साइन अप करते समय क्या उन्हें पता था कि वह क्या करने जा रहे हैं.
उन्होंने आगे कहा, ‘सैन्य अस्पताल एक स्थिर वातावरण प्रदान करता है और आपके पास पर्याप्त साधन होते हैं. लेकिन करगिल में ऊबड़-खाबड़ और ऊंचाई वाले इलाके में हताहतों की संख्या बढ़ने से रोकना था और वह भी ऐसी स्थितियों में जब दुश्मन की तरफ से भारी फायरिंग और गोलाबारी जारी हो और उस पर कोई कवर नहीं मिल रहा हो. मैं अस्थायी बंकरों के अंदर और खुले आसमान के नीचे भी हताहतों का इलाज करता था, जो कि बेहद ठंडे मौसम की स्थिति में काफी चुनौतीपूर्ण था.’
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कड़ी परीक्षा
इस काम में उनकी मदद कर रहे थे कर्नल अधाऊ, जो बताते हैं कि शुरू में जब सेना में शामिल हुए थे तो दिल्ली कैंट स्थित प्रतिष्ठित आर्मी हॉस्पिटल रिसर्च एंड रेफरल में पहली पोस्टिंग पाकर वह ‘बहुत खुश’ थे.
उन्होंने कहा, ‘मैंने तो सोचा था कि हमेशा यहीं पर रहूंगा. वास्तव में मैंने कभी यह सोचा तक नहीं था कि मैं एक जंग का हिस्सा बनूंगा, जहां मैं दुश्मन की ओर से भारी गोलाबारी के क्षेत्र में गोलियों से घायल सैनिकों का इलाज करूंगा.’
लेकिन जब एक बार मोर्चे पर उतार दिया गया तो डॉक्टरों ने अपने साथी सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जंग लड़ी.
कर्नल शर्मा कहते हैं, ‘युद्ध का दृश्य भयावह होता है, क्योंकि आपको हर घायल लोग, तबाही का मंजर और आसन्न मृत्यु का खतरा नज़र आ रहा होता है. यह स्वाभाविक है लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि ‘साहस की भावना साथ नहीं छोड़ती है’ और गलत इरादे से हमारी जमीन पर कब्जा करने वाले दुश्मन को हराने के लिए सच्ची वीरता, निर्भीकता और उत्साह युद्ध के बीच ऐसे दृश्यों और उसके बाद के प्रभावों से कहीं अधिक प्रेरक होते हैं.’
उन्होंने बताया, ‘हर बीतता दिन हमारे सैनिकों और अधिकारियों की वीरता की कालजयी कहानियां गढ़ रहा था. इसने मुझे उन्हें निराश नहीं होने के लिए प्रेरित किया और मैंने युद्ध के बीच उनके साथ लड़ाई के मैदान में जाने का फैसला किया.’
उनका पहला काम युद्ध में घायलों को तत्काल चिकित्सा सहायता प्रदान करना था ताकि हताहतों की संख्या कम से कम रहे.
इसका मतलब यह था कि फील्ड मेडिकल कैंप युद्ध के मैदान के नजदीक ही स्थापित किए जाने थे, ताकि किसी सैनिक के घायल होने पर उसे ‘गोल्डन ऑवर’— जब आपातकालीन उपचार सफल रहने की सबसे ज्यादा संभावना होती है— में प्राथमिक चिकित्सा मुहैया कराकर उसकी जान बचाई जा सके.
कर्नल शर्मा ने बताया, ‘युद्ध के मैदान के करीब होने के कारण मैं करीब 150 घायलों को बचा सका. जब भी मैं इन सैनिकों और उनके परिवारों से मिलता हूं तो उनके मुस्कुराते चेहरे और कृतज्ञता के भाव देखकर मुझे ताकत मिलती है. वे अक्सर कहते हैं कि मैंने वर्दी में डॉक्टर और सैनिक के रूप में अपना काम किया है.’
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यादों का पिटारा
कर्नल कुमार उस एक सैनिक को कभी नहीं भूलेंगे, जिसकी जान वह सिर्फ इसलिए बचा सके क्योंकि उन्होंने युद्ध के मैदान में रहने का फैसला किया था.
जब वह अपनी बटालियन की अल्फा कंपनी के साथ 27 मई, 1999 को द्रास सेक्टर में नियंत्रण रेखा की ओर बढ़ रहा था, अचानक दुश्मन की ओर से भारी हथियारों और तोपखाने की गोलाबारी की चपेट में आ गया.
कर्नल कुमार उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ‘हमले के दौरान अल्फा कंपनी के कई सैनिकों को जगह-जगह स्पिलंटर लगे थे और एक जवान बुरी तरह घायल था. इस जवान ने अपने दोनों हाथ गंवा दिए थे. उसका खून बहुत तेजी से बह रहा था और जब मैं उनके पास पहुंचा तो वह सदमे से बेहोश हो चुका था.’
उन्होंने और यूनिट बैटलफील्ड नर्सिंग असिस्टेंट ने इस जवान को दुश्मन की गोलाबारी और फायरिंग से बचाने के लिए एक चट्टान के पीछे पहुंचाया क्योंकि उस समय भी दोनों तरफ से जंग जारी थी.
उन्होंने बताया, ‘मैंने दोनों हाथों पर पट्टियां बांधकर किसी तरह खून बहना रोका और उसे लगे सदमे को देखते हुए इंजेक्शन लगाया. इसके बाद हमने घायल सैनिक को अन्य लोगों के साथ स्ट्रेचर से आगे सड़क तक पहुंचाया और फिर वहां से एंबुलेंस के जरिये अगली चिकित्सा सुविधा में स्थानांतरित कर दिया. इसके बाद उसे फॉरवर्ड सर्जिकल सेंटर (एफएससी) में एयरलिफ्ट किया गया. वह जवान जीने की अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और युद्ध क्षेत्र में समय पर चिकित्सा सुविधा मिलने के कारण बच सका. मैं यह तो नहीं कहूंगा कि इस घटना ने मुझे तोड़ दिया लेकिन यह निश्चित तौर पर मेरे लिए भावनात्मक दिन था, कुछ ही समय के भीतर कंपनी के कई युवाओं को आजीवन चोटों और हर तरह के आघात सहते देखा था.’
यद्यपि आमतौर पर यही कहा जाता है कि डॉक्टरों को इस तरह का दर्द देखने की आदत हो जाती है, तीनों डॉक्टरों ने दिप्रिंट को बताया कि ऐसा नहीं था.
कर्नल अधाऊ ने कहा, ‘जब मैं तोलोलिंग कॉम्प्लेक्स में था, मेस स्टाफ के मेरे एक जवान की हाल ही में शादी हुई थी. उससे बातचीत के दौरान मैंने पूछा, ‘आप फ्रंटलाइन में क्यों शामिल हो रहे हैं? आपको प्रशासनिक दल में होना चाहिए!’ बहादुर जवान का उत्तर था, ‘सर, दुश्मन से लड़ना मेरा अंतिम धर्म है! मुझे दुश्मन से लड़ना है!’ दो घंटे के बाद ही मुझे फोन पर दुर्भाग्यपूर्ण सूचना मिली, माथे पर गोली लगने से हमारी तरफ से पहली शहादत हुई है (यह उपरोक्त जवान ही था). यह सुनकर मैं पूरी तरह टूट गया. फिर कैप्टन विक्रम बत्रा के सर्वोच्च बलिदान के बाद मैंने उनके पार्थिव शरीर को कंधा दिया और मुझे बहुत दुख हुआ.’
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