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Thursday, 21 November, 2024
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1991 के सुधारों के दायरे में बैंकिंग और वित्त क्षेत्र नहीं आए इसलिए अर्थव्यवस्था एक टांग पर चलने को मजबूर हुई

बैंकिंग पर प्रतिबंधों के कारण नये उद्यमियों के लिए संसाधन तक पहुंच हुई सीमित, पुराने इलीट हावी रहे लेकिन अब तो इस सब से मुक्त होना चाहिए.

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भारत में 1991 में व्यापार तथा उद्योग में किया गया उदारीकरण आर्थिक सुधारों की दिशा में एक गंभीर पहल थी, जिससे आर्थिक वृद्धि में तेजी आई लेकिन यह मूलतः अधूरी थी.

इस पहल में अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंगों को, जो जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी द्वारा बनाई गई नियोजित अर्थव्यवस्था की जरूरतों के लिए अनुकूल थे, अनछुआ छोड़ दिया गया. ऐसा ही एक अंग है बैंकिंग सेक्टर.


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सुधारों का मतलब

‘आर्थिक सुधार’ शब्द में जो ‘सुधार’ शब्द है उसका अर्थ यह नहीं है कि किसी चीज को बेहतर बनाने के लिए उसमें परिवर्तन किया जाए बल्कि उसका अर्थ यह है कि सरकारें आर्थिक गतिविधियों पर जो अंकुश लगाती हैं उन्हें खत्म किया जाए.

इसलिए, अमेरिका जैसे देश के लिए यह कहा जा सकता है कि उसकी टैक्स व्यवस्था में सुधार की जरूरत है. लेकिन एक उभरती अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुधारों का अर्थ था केंद्रीय नियोजन के दौर में लगाई गई कुछ पाबंदियों को हटाना. इसलिए, जब हम कहते हैं कि भारत में आर्थिक सुधार 1991 में शुरू हुए, तब हमारा मुख्य आशय यह होता है कि अर्थव्यवस्था के उद्योग सरीखे सेक्टर पर लगाई गई पाबंदियों को हटाया गया था.

1991 तक, कोई फर्म भारत में तब तक किसी चीज का उत्पादन नहीं कर सकती थी जब तक उसके लिए लाइसेंस नहीं हासिल कर लेती थी. उत्पादन कितना किया जाएगा इसके लिए भी लाइसेंस लेना पड़ता था. व्यापार के क्षेत्र में, सामान और सेवाओं का आयात वाणिज्य मंत्रालय से उत्पाद, उसकी मात्रा और आयात के स्थान से संबंधित लाइसेंस हासिल किए बिना नहीं किया जा सकता था.

इन पाबंदियों के चलते लोग अपने मन से किसी चीज का उत्पादन शुरू नहीं कर सकते थे, भले ही वे श्रम या प्रदूषण संबंधी नियमों-कानूनों का पालन क्यों न कर रहे हों. ये पाबंदियां सरकार के उन अनुमानों पर आधारित होती थीं कि किसी सामान का कितना उत्पादन ठीक होगा. इसलिए, लोग अगर कार की मांग कर रहे थे और कारों का निर्माण लाभदायी भी हो, किसी के पास उनके लिए कारखाना बनाने का पैसा भी हो, यही नहीं ज्यादा कारें बनाकर निर्यात करने की तैयारी भी हो तब भी उसे इसकी इजाजत नहीं थी.

पाबंदियों का अर्थ यह था कि ज्यादा कारें नहीं बनाई जा सकती थीं, रोजगार नहीं पैदा किए जा सकते थे, निवेश नहीं किया जा सकता था और निर्यात नहीं किया जा सकता था.

1991 में उदारीकरण ने उस ‘लाइसेंस राज’ को बदल दिया जिसके तहत बिना परमिट के उत्पादन करने पर पाबंदियां लगाई गई थीं.


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वित्त क्षेत्र को छोड़ दिया

इस तस्वीर में से एक बड़ी चीज अभी भी गायब थी. वह यह कि उत्पादन कौन कर सकता है- क्या सरकार मौजूद कंपनियों को नयी चीज करने की छूट दे रही थी, क्या वह अर्थव्यवस्था पर अब तक हावी बड़ी कंपनियों को वास्तव में अपने आसन से उतार रही थी?

लोग जब कारखाने लगाते हैं और निवेश करते हैं तब उन्हें पैसे की जरूरत पड़ती है. भारत में मौजूदा कंपनियों को इक्विटी मार्केट में अपने शेयर बेच कर पूंजी उगाहने की छूट दी गई. इक्विटी मार्केट बनाए गए और 2000 के दशक में उनका आधुनिकीकरण किया गया लेकिन उनमें प्रवेश करने वाली नयी कंपनियां शर्तों को पूरा नहीं करती थीं.

जुलाई 1991 के बाद भी बैंकिंग पर यह पाबंदी कायम रही कि केवल सरकार ही बैंक की मालिक हो सकती है. इसके कारण संसाधन नये उद्यमियों की पहुंच से दूर रहे.

बैंक पूंजी का जो भंडार बना सकते हैं वह, पूंजी उगाहने की सरकारी बैंकों की अक्षमता के कारण सीमित बनी रही. यह उद्योग जगत से यह कहने जैसा था कि केवल मौजूदा उद्योग ही विस्तार कर सकते हैं.

ऐसा ही कुछ करने की कोशिश 1980 के दशक में की गई थी जब सरकार ने किसी उद्योग की क्षमता का विस्तार करने के लिए लाइसेंस की शर्त में ढील दी थी. लेकिन यह कारगर नहीं हो पाया था क्योंकि पहले से मौजूद अक्षमता ज्यादा उत्पादन करने की छूट देने से नहीं दूर हुई.

इनोवेशन की कमी और कम उत्पादकता की समस्या जारी रही है. संसाधन हासिल करने की गति 1991 के बाद भी धीमी रही. इसका प्रभाव संभावित नवागंतुकों पर सबसे ज्यादा पड़ा. मौजूदा बैंक अपने पुराने ग्राहकों को तरजीह देते रहे जिससे उन्हें ज्यादा उधार हासिल करने में मदद मिली. वे बेहतर हाल में थे क्योंकि वे अपने शेयर बेच कर शेयर बाज़ार से पैसे उगाह सकते थे.

जब विदेशी निवेशकों को भारत आने की अनुमति दी गई तो वे शेयर खरीद सकते थे. इस तरह बड़ी कंपनियां घरेलू और विदेशी इक्विटी भी जारी कर सकती थीं. जब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मंजूरी दी गई तो सरकारी नियमों ने विदेशियों को भारतीय कंपनियों के साथ बनाए गए संयुक्त उपक्रमों (जेवी) में निवेश करने की अनुमति दी. बाद में उन्हें मूल भारतीय साझीदार से अनुमति लेकर स्वतंत्र उपक्रम बनाने या किसी दूसरी भारतीय कंपनी के साथ उपक्रम शुरू करने की सुविधा दी गई. यह सब पहले से मौजूद कंपनियों के लिए अनुकूल साबित हुआ.

उदारीकरण से पहले के दौर में जब लाइसेंस लेने पड़ते थे, तब ये कंपनियां सरकारों और नेताओं पर अपने प्रभाव के बूते लाइसेंस हासिल कर लेती थीं. जाहिर है, ये सब सबसे उत्पादक, कार्यकुशल, ईमानदार या प्रयोगशील कंपनियां नहीं थीं.
भारत के वित्त क्षेत्र पर अंकुश, एफडीआई नीति और बैंकिंग पर पाबंदियों के कारण उन्हीं कंपनियों को फायदा हुआ जिनका भारत में लंबे समय से वर्चस्व था.

कुछ पुराने निजी बैंक कायम थे लेकिन वे बहुत छोटे थे. बाद में कुछ नये निजी बैंकों को अनुमति दी गई लेकिन इस सेक्टर पर सरकारी बैंकों का ही वर्चस्व रहा, जो केंद्रीय नियोजन वाली मानसिकता से काम करते रहे.

बॉस को खुश रखने और नई तथा प्रयोगशील परियोजनाओं को उधार देने में अक्षमता या प्रोत्साहन की कमी की संस्कृति कायम रही.

बैंकिंग सेक्टर के रेगुलेटर रिजर्व बैंक और सरकार ने बैंकिंग में वही केंद्रीय नियोजन वाली व्यवस्था जारी रखी और बैंकों को कहा कि वे अपने उधार का कुछ निश्चित प्रतिशत हिस्सा सरकार द्वारा परिभाषित ‘प्राथमिकता वाले सेक्टरों’ को दें और कुछ हिस्सा सरकार आदि को.


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बदलाव की जरूरत

व्यवस्था अभी भी कायम है और इसके साथ नेताओं तथा नौकरशाहों के निर्देश पर अनुपयुक्त परियोजनाओं को उधार देने की समस्या भी कायम है. करदाताओं के पैसे साल-दर-साल उन बैंकों के हवाले किए जाते हैं जो घाटा दिखाते रहते हैं.

बैंकिंग सेक्टर में सुधार भारत में आर्थिक सुधारों के अधूरे एजेंडा में शामिल हैं.

अब जबकि ताजा बजट में सरकारी बैंकों के निजीकरण की बातें की गई हैं, उम्मीद है कि इसके पीछे अच्छी राजनीतिक पूंजी भी लगाई जाएगी. भारत में निवेशों में नयी जान फूंकने के लिए बैंकिंग सेक्टर में सुधार जरूरी हैं. जब तक ऐसा नहीं होता तब तक भारत को एक टांग के सहारे ही चलना पड़ेगा.

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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