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Friday, 22 November, 2024
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सॉफ्ट किल या हार्ड किल, ड्रोन से निपटने का कोई फूलप्रूफ सिस्टम नहीं है, भारत को R&D की जरूरत

वैसे देखा जाए तो जम्मू में ड्रोन हमला बहुत महंगा नहीं साबित हुआ है लेकिन इसने अंतत: भारत को इस तरह के खतरों से निपटने के लिए बहुत सारा धन खर्च करने को बाध्य कर दिया है.

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जम्मू में वायु सेना स्टेशन पर ड्रोन हमले ने भारतीय रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान की पूरी डायनमिक्स और योजना को बदलकर रख दिया है.

जैसा अपेक्षित ही था, नरेंद्र मोदी सरकार और सुरक्षा बल काउंटर-ड्रोन सिस्टम की खरीदारी तेज करने की ओर बढ़ रहे हैं, हालांकि वे सेना के लिए मानव रहित एरियल सिस्टम के संदर्भ में स्वदेशी क्षमता बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.

अगले कुछ महीनों में स्वदेशी और विदेशी दोनों कंपनियों के साथ लाखों डॉलर के करार पर हस्ताक्षर किए जाएंगे, जिससे खासकर ऐसे छोटे ड्रोन का मुकाबला किया जा सके जो व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हैं और जम्मू जैसे हमलों को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं.

वैसे देखा जाए तो जम्मू हमला बहुत महंगा नहीं साबित हुआ लेकिन इसने भारत को अंततः सस्ते ड्रोन, जिसकी कीमत 10,000 रुपये से एक लाख रुपये के बीच होती है, के खतरों से निपटने के लिए अरबों डॉलर खर्च करने पर बाध्य कर दिया है.

यद्यपि युद्ध और निगरानी दोनों के लिहाज से बड़े सैन्य मानवरहित एयर व्हीकल (यूएवी) का मुकाबला करने के लिए सिस्टम उपलब्ध हैं, लेकिन भारतीय सुरक्षा बलों के पास ट्रेडिशनल रडार कवरेज से नीचे उड़ान भरने वाले छोटे और व्यावसायिक रूप से उपलब्ध यूएवी का मुकाबला करने के लिए शायद ही कुछ हो.

सैन्य प्रतिष्ठान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे बताया, ‘यह कहना कि हमारे पास काउंटर-ड्रोन सिस्टम हैं, काफी हद तक गलत होगा. हमारे पास इसकी तकनीक है लेकिन सामर्थ्य और क्षमता सीमित ही है.’ भारत के सुरक्षा बल अब भी ऐसे ड्रोन का मानवीय आंखों से पता लगाने और असॉल्ट राइफलों से मार गिराए जाने पर निर्भर हैं. यहां तक कि नौसेना की तरफ से खरीदा गया नवीनतम एंटी-ड्रोन सिस्टम स्मैश 2000 प्लस लाइन-ऑफ-साइट मैकेनिज्म पर काम करता है.


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सेना के लिए बड़ी चुनौती

सेना ने भी इस साल के शुरू में जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर स्मैश 2000 प्लस का टेस्ट किया था, लेकिन यह बहुत प्रभावशाली नहीं था।

कहा जा रहा है कि यद्यपि यह सिस्टम नौसेना के लिए कारगर हो सकती है, जिसे आमतौर पर खुले इलाके में मुकाबला करना होता है, लेकिन सेना के लिए यह उपयुक्त नहीं हो सकता जिसे अन्य दोनों सेनाओं की तुलना में प्रकृति और क्षेत्र के लिहाज से अक्सर अनिश्चित स्थितियों का सामना करना पड़ता है. इसके अलावा, थल सेना का आकार भी बड़ा है और नौसेना या वायु सेना की तुलना में उसे ज्यादा प्रतिष्ठानों और ठिकानों की रक्षा करनी होती है. हर एक आर्मी बेस और पूरी सीमाओं को कवर करने वाला काउंटर-ड्रोन सिस्टम लगाना एक दुरूह कार्य और बहुत खर्चीला भी होगा. यहां तक कि अगर हम अपने सभी ठिकानों को कवर करने के लिए ऐसे सिस्टम लगा लें तो भी हमलों से 100 प्रतिशत सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते. किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि कई एंटी-फिल्टरेशन ग्रिड और सीमाओं पर लाखों सैनिकों की तैनाती के बावजूद आतंकवादी घुसपैठ में कामयाब होते हैं.

सेना अभी ड्रोन के मुकाबले के लिए फिक्स्ड जैमर और पोर्टेबल हैंड डिवाइस दोनों का इस्तेमाल करती है. लेकिन ड्रोन की निगरानी एक बड़ी जरूरत है. इन दोनों प्रणालियों की सीमित क्षमता एक और बाधा है.

सेना ड्रोन से निपटने के लिए सॉफ्ट किल और हार्ड किल सिस्टम दोनों पर विचार कर रही है. लेकिन दुनिया में ऐसा कोई उपकरण नहीं है जो इस तरह के हमलों से 100 प्रतिशत सुरक्षा की गारंटी दे सके. यहां तक कि अमेरिका, रूस और इजराइल जैसे देश, जो ड्रोन और काउंटर-ड्रोन सिस्टम दोनों पर रिसर्च और इन्हें विकसित करने में अरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं, एक फूलप्रूफ सिस्टम स्थापित करने में सक्षम नहीं हो पाए हैं. जैसा कि मैंने अपने पिछले कॉलम में लिखा था, इन देशों के पास छोटे ड्रोन से निपटने के लिए कई सिस्टम हैं जो हैंड-हेल्ड, फिक्स्ड और मोबाइल हर तरह के हैं.

डीआरडीओ ने एक ऐसी प्रणाली विकसित की है जो ड्रोन को निष्क्रिय करने और मार गिराने दोनों में सक्षम है. लेकिन तैनाती के उपयुक्त बनाने के लिए सेना की तरफ से मिलने वाले इनपुट के आधार पर और विकसित करने की जरूरत है.

सेना के सामने एक और मुद्दा यह है कि कहीं दुश्मनों के यूएवी को निशाना बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली फ्रीक्वेंसी हमारे अपने ड्रोन के लिए परेशानी न बन जाए. सेना सीमाओं और दुर्गम इलाकों में निगरानी के लिए क्वाडकॉप्टर और सामरिक यूएवी इस्तेमाल करती है. सुरक्षा बलों की तरफ से किए गए परीक्षणों में यह मुद्दा भी सामने आया है.

जम्मू वायु सेना स्टेशन भारत के सैन्य ड्रोन ठिकानों में से एक है, जहां एमके-2 और हेरॉन जैसे इजरायली ड्रोन है. यही वजह है कि हमले के पहले तक यहां पर कोई एंटी ड्रोन जैमिंग डिवाइस नहीं लगाई गई थी.


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विकसित होती तकनीक

एक सैन्य अधिकारी ने समझाया कि तात्कालिक चुनौती यह है कि ड्रोन और काउंटर-ड्रोन सिस्टम अभी विकसित ही किए जा रहे हैं. अभी हमले की स्थिति में अकेले या एक बार में 2-3 ड्रोन के इस्तेमाल से निपटने पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, लेकिन सबसे बड़ी चिंता एक साथ कई ड्रोन के हमलों को लेकर है, जिसके बारे में भारत के रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान आशंकित है कि दुश्मन का अगला कदम यही हो सकता है.

जम्मू हमला या सऊदी तेल प्रतिष्ठानों पर हमला इसकी सिर्फ एक बानगी भर है कि ड्रोन क्या कर सकते हैं. अधिकारी ने कहा, ‘अभी हम जो देख रहे हैं वो ड्रोन की शुरुआती क्षमता है. यह अंततः और विकसित होगा और इसके साथ ही इससे निपटने के उपाय भी. वही लोग जो ड्रोन बनाते हैं, उनसे मुकाबले का सिस्टम भी लेकर आएंगे.’

आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच संघर्ष ने यह दर्शा दिया है कि ड्रोन और घूमने वाले हथियारों ने युद्धों की तस्वीर कैसे बदल दी है.

रक्षा हलकों में कई लोगों का मानना है कि भविष्य के युद्ध कांटैक्टलेस होंगे. खाईनुमा दुर्गम जगहों में इन्फैंटरी और बख्तरबंद टुकड़ियों के बीच युद्ध की जगह साइबर युद्ध और ड्रोन का इस्तेमाल होने लगेगा.

यद्यपि कुछ विशेषज्ञ यूएवी की क्षमता पर सवाल उठाते हैं—वे केवल एयर डिफेंस सिस्टम के अभाव वाले एयर स्पेस में काम कर सकते हैं—हमें याद रखना चाहिए कि देश अब पायलट रहित लड़ाकू विमानों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो ड्रोन तकनीक का भविष्य है.

ड्रोन से मुकाबले का एकमात्र दीर्घकालिक उपाय यही है कि भारतीय रक्षा बजट को खर्च करने का तरीका बदले और खुद अपने सिस्टम के लिए रिसर्च और डेवलपमेंट पर पैसा लगाया जाए.

(व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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