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Friday, 22 November, 2024
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नेपाल को नए PM देउबा से स्थिरता की आशा, उम्मीद है कि वह भारत के साथ संबंध ‘संतुलित’ करेंगे

शेर बहादुर देउबा को, जो पांचवीं बार नेपाल के पीएम बने हैं, अब अपना बहुमत साबित करना होगा ताकि काठमांडू में एक स्थायी सरकार का गठन हो सके.

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नई दिल्ली: मंगलवार को 75 वर्षीय शेर बहादुर देउबा को पांचवीं बार नेपाल के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई.

उनकी नियुक्ति ऐसे समय हुई है, जब छह महीने चली आंतरिक राजनीतिक उथल- पुथल के बाद, नेपाल अपने संवैधानिक लोकतंत्र की मज़बूती के साथ, राजनीतिक स्थिरता भी हासिल करना चाहता है.

सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि नेपाल सुप्रीम कोर्ट के नेपाली कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष देउबा को नियुक्त करने के फैसले को ‘अभूतपूर्व और ऐतिहासिक’ क़रार दिया जा रहा है- ऐसा फैसला जो देश के संविधान को मज़बूत करेगा.

सूत्रों ने ये भी कहा कि देउबा उन्हें दी गई एक महीने की समय सीमा से पहले ही, संसद में अपना बहुमत साबित कर देंगे, जिससे उन्हें पूरे कार्यकाल की गारंटी मिल जाएगी.

नेपाल में मौजूदा सियासी उथल-पुथल दिसंबर 2020 में शुरू हुई, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री केपीएस ओली ने देश की संसद के निचले सदन- 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया, जिसने संविधान की वैधता पर ही सवालिया निशान लगा दिया.

इस साल मई में संकट अपने चरम पर पहुंच गया, जब ओली ने सभी राजनीतिक दलों के भारी विरोध के बावजूद, अपनी कार्रवाई को दोहरा दिया.

इस सारे घटनाक्रम के नतीजे में नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी का पूरी तरह विभाजन हो गया, जिसे 2018 में सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन (माओवादी सेंटर) को एक करके बनाया गया था. ये प्रक्रिया दिसंबर में ही शुरू हो गई थी.

इस बीच मंगलवार को देउबा का शपथ ग्रहण भी काफी नाटकीय रहा, जिसमें राष्ट्रपति बिद्या देवी भण्डारी ने ये स्पष्ट करने से इनकार कर दिया, कि नए पीएम की नियुक्ति नेपाली संविधान की धारा 76 (5) के अनुसार हो रही थी, जिसमें कहा गया है कि शपथ लेने के 30 दिन के भीतर, सदन के अंदर विश्वास मत हासिल करना अनिवार्य है.

सूत्रों के अनुसार, देउबा के पास पुष्प कुमार दहल की कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी-सेंटर), बाबूराम भट्टाराय-उपेंद्र यादव की अगुवाई वाले जनबादी समाजवादी पार्टी (जेएसपी) गुट, और यूएमएल के माधव नेपाल-झालानाथ खनाल का समर्थन हासिल है.

सूत्रों ने आगे कहा कि देउबा के नेतृत्व में नेपाल, नई दिल्ली और बीजिंग के बीच रिश्तों को संतुलित करने की कोशिश करेगा. देउबा के पिछले शासन के दौरान नेपाल और भारत के द्विपक्षीय रिश्तों ने बेहतर दिन देखे हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए पूर्व पीएम और जेएसपी अध्यक्ष भट्टाराय ने, शीर्ष अदालत के फैसले को ‘ऐतिहासिक’ क़रार दिया, और कहा कि उनकी पार्टी ‘ओली के निरंकुश शासन को उखाड़ फेंकने को प्रतिबद्ध है, जो अलोकतांत्रिक और तानाशाही भरा था’.

उन्होंने कहा, ‘हमने बहुत संघर्ष और विरोध के बाद ये नई सरकार बनाई है, और हम ओली की तानाशाही और उनकी लोकतंत्र-विरोधी चालों को उखाड़ फेंकने के लिए प्रतिबद्ध हैं. निरंकुश तत्व अब फिर से अपने सर नहीं उठा पाएंगे. इस सरकार को संख्या हासिल करनी होगी. हम सब एकजुट हैं और हमें उम्मीद है कि हम संख्या जुटा लेंगे. हमारे पास बहुमत होगा और एक स्थायी सरकार होगी’.

भट्टाराय ने उम्मीद जताई कि भारत अब इस बात को समझेगा, कि ओली किस तरह के सार्वजनिक और राजनीतिक विरोध का सामना कर रहे थे, और हिमालयी राष्ट्र में एक स्थाई और लोकतांत्रिक सरकार का समर्थन करेगा.


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भारत-नेपाल रिश्ते

भारत और नेपाल के द्विपक्षीय रिश्ते, मई 2020 के बाद से काफी अशांति भरे रहे हैं, जब ओली ने नेपाल का एक नया राजनीतिक नक्शा जारी कर दिया, जिसमें भारत के साथ विवादित चल रहे तीन क्षेत्रों- कालापानी, लिपुलेख, और लिंपियाधूरा को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया था.

अपने राष्ट्रीय प्रतीक के हिस्से के तौर पर, नए मानचित्र को शामिल करने के लिए, नेपाल ने पिछले साल अपने संविधान में भी संशोधन कर लिया.

विशेषज्ञों के अनुसार, दोनों देशों के बीच सीमा विवाद अभी भी अनसुलझा है, जिसका समाधान करने में लंबा समय लगेगा.

कांठमांडू में भारत के पूर्व राजदूत रंजीत राय ने दिप्रिंट से कहा, ‘सीमा विवाद एक जटिल मुद्दा है और उसे सुलझाने में समय लगेगा. भारत को एक आश्वासन चाहिए कि किसी भी द्विपक्षीय बातचीत के नतीजे को, नेपाली संसद के दो तिहाई बहुमत का समर्थन होना चाहिए, क्योंकि उसके लिए संविधान में एक संशोधन करना होगा’.

उन्होंने आगे कहा कि देउबा को नियुक्त करके, नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने देश के संविधान को ‘बरक़रार और संरक्षित’ रखा है

उन्होंने कहा, ‘उसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति की कार्रवाई की न्यायिक समीक्षा हो सकती है, और अगर राष्ट्रपति के फैसले संविधान के अनुरूप नहीं हैं, तो अदालत उन्हें ठीक करने के लिए हस्तक्षेप करेगी. कोर्ट ने सीधे तौर पर प्रधानमंत्री को नियुक्त किया है. इन फैसलों के नेपाल के लिए दीर्घ-कालिक परिणाम होंगे’.

ओली ने भारत के राष्ट्रीय प्रतीक लायन कैपिटल, और आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ पर कटाक्ष करते हुए कहा था, कि नई दिल्ली अब आदर्श वाक्य ‘सिंहेव जयते’ का पालन कर रही है’.

इस बीच, देउबा के शपथ लेने के एक दिन बाद, काठमांडू में भारत के राजदूत विनय मोहन क्वात्रा नए प्रधानमंत्री से मुलाक़ात करने गए, और गहराते द्विपक्षीय रिश्तों पर बातचीत की.


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चाइना फैक्टर

ओली के अंतर्गत नेपाल का चीन की ओर अधिक झुकाव हो रहा था जिससे भारत में असंतोष था. एक समय तो नई दिल्ली का दृढ़ विश्वास था, कि ओली के नक्शे को बीजिंग का सीधा समर्थन हासिल था.

एनपीसी के आपस में भिड़ते गुटों को एक रखने में, चीन ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी है. राजनीतिल उथल-पुथल शुरू होने के बाद उन्हें एक जगह लाने के लिए, चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के शीर्ष पदाधिकारियों की अगुवाई में, एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल भी नेपाल भेजा गया था.

चल रही राजनीतिक उथल-पुथल के बीच, इसी महीने बीजिंग ने कहा कि सीपीसी ‘अपने सपनों को साकार करने और एक बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए, विश्व की राजनीतिक पार्टियों के साथ काम करने के लिए तैयार है’.

राय ने कहा, ‘जब से विलय की गई कम्यूनिस्ट पार्टियां अलग हुई हैं, तब से चीन की उंगलियां कुछ जल गई हैं. हालांकि उन्होंने कहा है कि वो सभी पार्टियों के साथ मेल-मिलाप रखेंगे, लेकिन कम्यूनिस्ट ताक़त को संगठित करने का उनका दीर्घ-कालिक लक्ष्य बरक़रार रहेगा’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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