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Friday, 22 November, 2024
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9,000 करोड़ रुपए की कावेरी जलाशय परियोजना और कर्नाटक व TN के बीच दशकों की तकरार

मेकेदातु परियोजना कर्नाटक के रामनगर ज़िले में, कावेरी और उसकी सहायक नदी अरकावती के संगम पर स्थित, एक गहरी खाई पर बनाए जाने का प्रस्ताव है.

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बेंगलुरू: तमिलनाडु और कर्नाटक सरकारें एक बार फिर 9,000 करोड़ रुपए की मेकादातु परियोजना को लेकर टकराव की स्थिति में आ गई हैं.

कर्नाटक मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने शनिवार को अपने तमिलनाडु समकक्षी एमके स्टालिन को पत्र लिखकर आग्रह किया कि वो जलाशय परियोजना का विरोध न करें.

येदियुरप्पा ने लिखा, ‘हम कावेरी बेसिन में कर्नाटक के अधिकारों के लिए लड़ते रहे हैं, और उसमें कामयाब रहे हैं. ये मामला भी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष है, जहां हम अपने पक्ष रख रहे हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘हम अपने अधिकारों की क़ानूनी लड़ाई जारी रखेंगे. हमें विश्वास है कि हम उसे जीतेंगे और मेकेदातु परियोजना को पूरा करेंगे’.

स्टालिन ने रविवार को इसका जवाब देते हुए कहा कि कर्नाटक सरकार को इस परियोजना को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए, क्योंकि जलाशय तमिलनाडु में जाने वाले कावेरी जल के मुक्त प्रवाह को ज़ब्त कर लेगा.

ये पत्र इस विवादास्पद परियोजना के इतिहास में छोड़े गए ताज़ा तीर हैं, जो व्यापक कावेरी जल विवाद का हिस्सा है, वो विवाद जो शायद इस देश से भी पुराना है.

दिप्रिंट एक नज़र डालता है कि इस मुद्दे में क्या-क्या घुमाव और मोड़ आए हैं, और तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच फिर से जाग उठी दुश्मनी पर विशेषज्ञों का क्या कहना है.


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क्या है मेकेदातु परियोजना?

9,000 करोड़ रुपए की जलाशय परियोजना कर्नाटक में रामनगर ज़िले के ओंतिगोंदलू में, कावेरी और उसकी सहायक नदी अरकावती के संगम पर स्थित, एक गहरी खाई पर बनाए जाने का प्रस्ताव है.

जलाशय की क्षमता लगभग 67,000 मिलियन क्यूबिक फीट (टीएमसीएफटी) पानी की है, और इसका लक्ष्य बेंगलुरू और उसके पड़ोसी क्षेत्रों को पेयजल की सप्लाई सुनिश्चित करना है. ये भी परिकल्पना है कि परियोजना के पूरा हो जाने पर, इससे 400 मेगावॉट बिजली पैदा की जा सकेगी.

कर्नाटक के कावेरी नीरावारी निगम लिमिटेड की ‘मेकेदातु संतुलन जलाशय एवं पेयजल परियोजना की प्री-फीज़िबिलिटी रिपोर्ट’ के अनुसार, ‘मेकेदातु परियोजना से बिजली बनाने की संभावना की, 1948 से जांच चल रही है’.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘लेकिन इस परियोजना की जांच पड़ताल तब तक नहीं की गई, जब तक 1956 में राज्यों का पुनर्गठन नहीं हो गया’.

परियोजना पर चर्चा का सिलसिला 1960 के दशक में शुरू हुआ, लेकिन कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर राज्यों के बीच हुए टकराव के बाद इसे भुला दिया गया.

रिपोर्ट के अनुसार जलाशय का मुद्दा 1996-1997 के बाद से, राज्य सरकारों के बीच हुई चर्चाओं के दौर में, रुक रुक कर सामने आता रहा.

लेकिन, मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ के प्रोफेसर जनकराजन का कहना था कि चूंकि पानी को पंप किया जाना है, इसलिए इस बात को लेकर संदेह है कि बीते सालों में ये एक बड़ी परियोजना हो सकती थी, जब इसकी जांच-पड़ताल करने का दावा किया जा रहा है.

उन्होंने कहा कि परियोजना का रूप 2013 में ही प्रस्तावित किया गया था, जब कर्नाटक के कानून मंत्री टीबी जयचंद्र ने परियोजना की घोषणा की थी.

परियोजना को तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्दारमैया के कर्नाटक मंत्रिमंडल से सैद्धांतिक मंज़ूरी मिल गई, जिसके बाद राज्य सरकार की ओर से केंद्रीय जल आयोग को एक प्री-फीज़िबिलिटी रिपोर्ट पेश की गई.

2013 के बाद से अलग-अलग मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में तमिलनाडु सरकार ने, ‘कर्नाटक की एक तरफा कार्रवाइयों’ का कट्टर विरोध शुरू कर दिया था.

मामले के लंबे और जटिल क़ानूनी इतिहास पर नज़र डालते हुए जनकराजन ने कहा, ‘इस विवाद में दिन-ब-दिन कड़वाहट भरती जा रही है. एक ट्रिब्युनल था, एक अंतिम अवॉर्ड था, एक सुप्रीम कोर्ट का फैसला था, और फिर कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड का गठन था, लेकिन मामलों में अनिश्चितता बनी रही.’


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क्या कहते हैं विशेषज्ञ

दिप्रिंट से बात करने वाले विशेषज्ञों ने परियोजना की ज़रूरत पर ही सवाल खड़े किए, और इस ओर इशारा किया कि ये सुप्रीम कोर्ट के 2018 के एक फैसले का उल्लंघन हो सकती है.

एक शहरी योजनाकार और जलसंरक्षण विशेषज्ञ एस विश्वनाथ ने समझाया, ‘कर्नाटक के नज़रिए से ये एक जटिल स्थिति है; केआरएस (कृष्णा राजा सागर) बांध और काबिनी जलाशय के नीचे, ये आख़िरी कैचमेंट है जो अनियंत्रित है. इसलिए बारिश का पानी बिना किसी नियंत्रण के तमिलनाडु में बहकर चला जाता है’.

उन्होंने कहा कि कर्नाटक को ये भी उम्मीद है, कि वो मैदानों से बहकर जाने वाले पानी को नियंत्रित कर लेगा, और बेंगलुरू के लिए एक समर्पित जल स्रोत भी बना लेगा.

लेकिन, तमिलनाडु को डर है कि अगर कर्नाटक आगे ओंतिगोंडलु तक पानी को नियंत्रित कर लेगा, तो फिर वो सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनिवार्य क़रार दिए गए दायित्व पर बना नहीं रहेगा.

फरवरी 2018 में, लंबे समय से चले आ रहे क़ानूनी टकराव पर दिए गए अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के बीच पानी के बटवारे का एक फॉर्मूला पेश किया.

विश्वनाथ ने कहा, ‘लेकिन कोई भी पक्ष नदियों की पारिस्थितिक अखंडता की बात नहीं कर रहा है. अगर उन्होंने इस बारे में बात की होती, उस पर ध्यान केंद्रित किया होता, तो इस मेकेदातु परियोजना की ज़रूरत ही न पड़ती’.

जनकराजन ने कहा, ‘जलाशय संबंधित तटवर्ती राज्यों की अनुमति से ही बन सकता है, जबकि उन्होंने किसी से परामर्श नहीं किया है. हालांकि वो (कर्नाटक) कह रहे हैं कि वो तमिलनाडु को जल आपूर्ति सुगम करने के लिए ही, एक संतुलन जलाशय बना रहे हैं, लेकिन ये दावा सही नहीं है’. उन्होंने आगे कहा, ‘जब आप 65 टीएमसीएफटी क्षमता का बांध बना लेंगे, तो तमिलनाडु के लिए क्या प्रवाह रह जाएगा.’

संरक्षणकर्त्ताओं और कार्यकर्त्ताओं ने भी इसका विरोध किया है, क्योंकि इसका कावेरी वन्यजीव अभ्यारण्य पर भी प्रभाव पड़ेगा, जिसके अंतर्गत ओंतीगोंदलु आता है.


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कावेरी विवाद

कावेरी जल बटवारा विवाद में मेकेदातु एक ऐसा मुद्दा है, जो 1892 से दोनों पक्षों के बीच झगड़े की जड़ रहा है.

लेकिन तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच समस्या 1956 में उठनी शुरू हुई. कर्नाटक के अनुसार, 1924 में अंग्रेज़ी शासन के दौरान मद्रास रेज़िडेंसी और मैसूर राज्य के बीच हुआ समझौता सिर्फ 50 वर्षों के लिए वैध था. इसके बाद कर्नाटक ने नदी के साथ चार बांध बना लिए.

इससे उकसाए तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, जिसके बाद 1990 में शीर्ष अदालत के निर्देश पर, कावेरी जल विवाद अधिकरण (सीडब्ल्यूडीटी) का गठन किया गया.

1991 में ट्रिब्युनल के अंतरिम आदेश से, जिसमें कर्नाटक से कहा गया था कि वो तमिलनाडु को 205 टीएमसीएफटी पानी की सप्लाई सुनिश्चित करे, दंगे भड़ उठे और ऊपरी तटवर्ती राज्य ने उसे ख़ारिज कर दिया. लेकिन, एससी ने ट्रिब्युनल के आदेश को बरक़रार रखा.

क़रीब 16 साल बाद 2007 में, ट्रिब्युनल ने अपना अंतिम फैसला दिया, जिसमें 419 टीएमसीएफटी पानी तमिलनाडु को, 270 टीएमसीएफटी कर्नाटक को, 30 टीएमसीएफटी केरल को, और 7 टीएमसीएफटी पुडुचेरी को आवंटित किया गया.

इन सालों के दौरान बारिशों में कमी की वजह से तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, और पुडुचेरी का आवंटन कम हो गया. इन कठिन वर्षों में दोनों राज्यों के बीच पानी के बटवारे को लेकर टकरार होती रही है, जो कभी-कभी बढ़कर हिंसा भी हुई है.

शीर्ष अदालत ने अपना अंतिम फैसला 2018 में सुनाया, जिसमें कर्नाटक की हिस्सेदारी बढ़ा दी गई. अंतिम फैसले के अनुसार कर्नाटक को 284.75 टीएमसीएफटी पानी मिलेगा, तमिलनाडु को 404.25 टीएमसीएफटी, केरल को 30 टीएमसीएफटी, और पुडुचेरी को 7 टीएमसीएफटी मिलेगा, और 14 टीएमसीएफटी पानी ‘पर्यावरण संरक्षण’ और ‘समुद्र में बह जाने’ के लिए होगा.

(इस खबर को अग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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