साल 2007 की बात है सारंडा एक्शन प्लान की तैयारी दिल्ली में चल रही थी. इधर झारखंड के सारंडा के जंगल में सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस की टुकड़ियां धड़ाधड़ बहाल की जा रही थी. साथ ही जंगल के भीतर रह रहे आदिवासियों की मुसीबतें भी हर दिन बढ़ रही थीं.
माओवादियों की तलाश में निकला पुलिस फोर्स आदिवासियों पर सामत बनकर इनके घर में घुसने लगे. इनका कसूर ये था कि ये माओवादियों के दवाब पर उनका रशद एक जगह से दूसरे जगह पहुंचा रहे थे, उनके लिए खाना बना रहे थे. नतीजा से हुआ कि ऐसा करनेवाले 6000 से अधिक लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया. कईयों को गोली लगी, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, उनके घर तोड़ दिए गए.
मुश्किल में फंसे इन आदिवासियों की मदद को आगे आए फादर स्टेन स्वामी. सारंडा के सामाजिक कार्यकर्ता सुशील बारला बताते हैं, ‘साल 2009 में ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया गया. इसके बाद साल 2011 में ऑपरेशन एनाकोंडा चलाया जा रहा था. केवल सारंडा इलाके से 3000 से अधिक लोगों को जेल में डाल दिया गया था.’
बारला दिप्रिंट को बताते हैं कि कैसे स्टेन स्वामी ने इनकी लड़ाई लड़नी शुरू की. वह बताते हैं, ‘गिरफ्तार हुए अधिकतर लोगों के पास पहचानपत्र तक नहीं था. स्थानीय लोगों को कानूनी अधिकार की जानकारी देकर उन्हें तैयार किया. परिणाम ये था कि आंदोलन की वजह से जिन 25 गांव को सीआरपीएफ ने घेर कर रखा था, उसे खाली करना पड़ा. जिन ग्रामीणों का अनाज फेक दिया, उसे भोजन मुहैया कराया.’
स्टेन चुप नहीं बैठे साल 2008-13 तक हुई गिरफ्तारियों को लेकर उन्होंने राज्यव्यापी अभियान चलाया. सहयोगियों की मदद से पूरे दो साल तक यात्रा कर इनका आंकड़ा, अता-पता और सबूत जमा किए. इसके बाद झारखंड हाईकोर्ट में इनकी रिहाई के लिए एक पीआईएल दाखिल की. साथ ही ‘डिप्राइव ऑफ राइट्स ओवर नैचुरल रिसोर्सेज, इंप्रोवाइज्ड आदिवासीज गेट इंप्रीजनः अ स्टडी ऑफ अंडरट्रायल्स इन झारखंड’ नाम से रिपोर्ट भी पब्लिक फोरम में रखी.
इस पूरे मामले के वकील मार्टिन हॉफमैन कहते हैं, ‘साल 2017 में कोर्ट में इस संबंध में पीआईएल दायर की गई, जिसमें जानकारी दी गई गई कि राज्य भर के जेलों में ऐसे 6000 से अधिक कैदी बंद हैं. जनवरी 2018 में पहली सुनवाई के बाद कोर्ट ने सरकार से इस पूरे मामले पर वास्तिविक स्थिति पेश करने को कहा था. फिलहाल ऐसे मामलों में ट्रायल में देरी, कॉग्निजेंस मे देरी का सामना भुक्तभोगी कर रहे हैं.
स्टेन के मरने से क्या ऐसे लोग उम्मीद हार जाएंगे. हॉफमैन कहते हैं, ‘नहीं. चूंकि मामला कोर्ट में है, इसमें एक और याचिकाकर्ता हैं, तो यह मामला चलता रहेगा. सवाल बस ट्रायल मे देरी का है.’
इस रिसर्च में स्टेन के सहयोगी रहे दामोदर तुरी कहते हैं, ‘इस पीआईएल का पॉजिटिव रिजल्ट ये रहा है कि कुछ केस में जल्दी ट्रायल हुआ और कुछ में तो एक्विटल ऑर्डर भी मिला है.’
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विचाराधीन कैदियों के लिए कोर्ट गए, खुद विचाराधीन कैदी बनकर हुई मौत
स्टेन ने विचाराधीन कैदियों के लिए लंबा संघर्ष किया. फिलवक्त भी वह इनके लिए कोर्ट में लड़ ही रहे थे. ये एक संयोग है कि वो खुद भी अंडर ट्रायल कैदी के रूप में ही मर गए.
मानवाधिकार कार्यकर्ता और लंबे समय तक उनके सहयोगी रहे ग्लैडसन डुंगडुंग आदिवासियों के लिए उनके उठाए गए कई कदमों को याद करते हैं. एक वाक्ये का दिप्रिंट से जिक्र करते हुए वो बताते हैं, ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध में साल 2010 में रांची में रैली का आयोजन किया गया था, स्टेन उसका नेतृत्व कर रहे थे. राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था, पुलिस ने यह कहते हुए रैली की अनुमति नहीं दी कि यह माओवादियों की रैली है.’
डुंगडुंग आगे कहते हैं, ‘विरोध करने पर कुछ साथियों को जेल में डाल दिया गया. उस वक्त राज्यपाल के सलाहकार रहे आरआर प्रसाद ने स्टेन और मुझे मिलने बुलाया. हमने अनुमति मांगी, जवाब में उन्होंने कहा कि स्टेन सीनियर माओविस्ट हैं, और तुम जूनियर माओविस्ट. हम रैली की अनुमति नहीं दे सकते हैं.’
वो बड़े काम जो स्टेन स्वामी ने किए
आदिवासियों को कानूनी शिक्षा – साल 1991 से सहयोगी रहे सुशील बारला कहते हैं, ‘साल 1993-98 तक उन्होंने हजारों गावों में मेरे जैसे युवाओं को कानूनी अधिकारी की जानकारी दी.’
‘हम ग्रामसभा का आयोजन करते थे, जिसमें केवल संविधान और हमारे अधिकारों की बात बताते थे. साल 1993 में चाईबासा में एक कॉलेज में जनसभा कर रहे थे, उस वक्त फादर ने हमसे एक बड़ी बात कही.’
उन्होंने कहा, ‘सुशील सब लोग अगर नौकरी ही करेंगे, तो इन गरीब, मजबूर और सुविधाहीन आदिवासियों के लिए कौन खड़ा होगा. उसके बाद से हम लगातार इस इलाके में अपने लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं.’
विस्थापन के खिलाफ लड़ाई – ग्लैडसन डुंगडुंग साल 2004 से उनके साथ काम कर रहे थे. वो कहते हैं, ‘उस वक्त पूरे झारखंड में एकमात्र वही मानवाधिकार के मसले के बड़े ज्ञाता थे. लगातार लड़ाई लड़ रहे थे. पूरे राज्य में जहां भी आदिवासियों-गैर आदिवासियों के विस्थापन का मसला हुआ, स्टेन वहां पहुंचकर आंदोलन किए. अगर नहीं पहुंच पाए तो कानूनी सलाह देते रहे. देश-दुनिया के अखबारों में लिखते रहे.’
‘आप अगर झारखंड का इतिहास खंगालते हैं तो राज्य गठन आंदोलन के बाद सबसे अधिक विस्थापन की लड़ाई ही आपको मिलेगी. और अधिकतर जगहों पर आपको स्टेन दिखेंगे, लैंड एक्विजिशन के खिलाफ लोग लड़ने लगे. ऐसे में लड़ाई के लिए लोगों को तैयार करना ये उनका सबसे बड़ा कंट्रीव्यूशन है.’
पेसा एक्ट के लेकर अभियान – इलेक्शन वाच संस्था के झारखंड संयोजक सुधीर पाल कहते हैं, ‘साल 1996 में पैसा एक्ट लागू हुआ. उसके बाद जितने भी जनसभा या आंदोलन में स्टेन जाते रहे, वहां इसके बारे में लोगों को बताते रहे.’
पाल आग कहते हैं, ‘गांव-गांव जाकर हजारों सेमिनार किया. इस दौरान वो कहीं भी किसी के भी घर में सो जाते थे. जो मिलता वो खा लेते थे. यहां के आदिवासियों पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा. इसको लेकर जितनी भी जागरुकता है, उसमें कई लोगों का योगदान है, स्टेन भी उसमें शामिल हैं.’
इसके अलावा फॉरेस्ट राइट एक्ट को लेकर जागरुकता फैलाई, रघुवर सरकार के दौरान बने लैंड बैंक के खिलाफ भी लोगों की आवाज को स्वर दिया.
ग्लैडसन एक बार फिर कहते हैं, ‘हम जंगल जाते थे, फैक्ट जमा करते, जिन अत्याचारों के खिलाफ लोग बोलने से डरते थे उसके लिए आवाज उठाते रहे. उन्होंने हक और अधिकार की लड़ाई करनेवाले की फौज तैयार की.’
चार दशकों तक लड़ते रहे हक की लड़ाई
भीमा कोरेगांव मामले में जब एनआईए फादर को गिरफ्तार करने आनेवाली थी, उस वक्त उनके सहयोगियों ने उन्हें कहा था कि आपकी तबियत ज्यादा खराब है. आपको इस गिरफ्तारी से बचना चाहिए और किसी सुरक्षित जगह चले जाना चाहिए. स्टेन ने इसका विरोध किया. उन्होंने कहा कि इसे ‘फेस’ करूंगा. अगर मैंने कुछ गलत नहीं किया है तो सब चीजें साफ हो जाएंगी.
भाकपा माले के कार्यकर्ता और भोजन के अधिकार अभियान से जुड़े आकाश रंजन कहते हैं, ‘झारखंड में शायद ही कोई आंदोलन होगा जिसमें स्टेन स्वामी ने हिस्सा न लिया हो. या यूं कह लीजिए कि हरेक आंदोलन के बैकबोन रहे थे.’
आदिवासी अधिकार, संसाधनों पर सामुदायिक हक की लड़ाई थी उनकी, ग्राम सभाओं को मजबूत करने की लड़ाई और जागरुकता के लिए स्टेन स्वामी ने चार दशक से अधिक तक काम किया. आज राज्य में उनके प्रशिक्षित किए कई लोग हैं, जो समाज की आवाज बन उनके लिए उम्मीद कायम रखे हुए हैं.
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