बेंगलुरू: अपने किसी प्रियजन के अंतिम संस्कार में शामिल होने में असमर्थ रहने या उन्हें अंतिम विदाई न दे पाने से लेकर पढ़ाई-लिखाई और स्वास्थ्य सेवाएं मिलने में आने वाली चुनौतियों तक निश्चित तौर पर कोविड-19 महामारी का लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर एक गहरा स्थायी असर पड़ेगा.
इस मामले में व्यापक असर वाली प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोलॉजिकल साइंसेज (निमहांस) के डॉ के सेकर का कहना है कि हर तीन में से दो लोग मौजूदा महामारी के कारण मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं और दुख और आघात की भावना पहली लहर की तुलना में दूसरी लहर से ज्यादा बढ़ी है.
निमहांस में सेंटर फॉर साइकोसोशल सपोर्ट इन डिजास्टर मैनेजमेंट के प्रमुख डॉ. सेकर ने दिप्रिंट को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘सामान्य तौर पर किसी भी आबादी में 10 लोगों में से एक व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्या होती है. लेकिन इस समय प्रतिक्रियाएं बहुत ज्यादा हो रही हैं और हर तीन में से दो लोग मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहे हैं.’
उन्होंने कहा, ‘पहली लहर में प्रतिक्रिया केवल (इस बारे में) अलगाव की थी और लोग एक-दूसरे से दूर रह रहे थे. अब, यह एक ऐसा मुद्दा है जिसमें परिवार से पूरी तरह दूर हो जाना पड़ रहा है. दूसरी लहर में मौतों की संख्या (भी) बढ़ गई है और जीवन के किसी भी पड़ाव में, जब किसी प्रियजन की मृत्यु होती है, तो यह किसी भी इंसान के लिए सबसे अधिक तनाव का कारण होता है.’
मौत का डर
मई में दिप्रिंट ने बताया था कि निमहांस की तरफ से संचालित हेल्पलाइन में मुश्किल वक्त में आने वाली कॉल की संख्या तेजी से बढ़ी है.
डॉ. सेकर के मुताबिक, नवंबर 2020 में इस साल मार्च के अंत तक कॉल संख्या में एक स्थिरता बनी हुई थी जब संस्थान को प्रति माह 2,000 से 3,000 के बीच फोन आते थे.
उन्होंने कहा, ‘लेकिन अप्रैल और मई के महीनों के दौरान हमने इसमें खासी तेजी देखी. उस समय कोविड केस तेजी से बढ़ने के बीच यह आंकड़ा प्रति माह 14,000 से 17,000 कॉल तक पहुंचने लगा.
उन्होंने बताया कि दूसरी लहर के दौरान लोगों में ‘मौत का डर’ एकदम हावी हो गया.
उन्होंने कहा, ‘जिस क्षण मौत की आशंका लोगों के मन में बसी, बड़ी संख्या में खुद को असहाय, निराशापूर्ण और महत्वहीन समझना शुरू कर दिया और कुछ ने तो आत्महत्या के बारे में भी सोचा. हम सामाजिक ताने-बाने को भी काफी हद तक टूटते देख सकते थे क्योंकि यह एक या महीने की बात नहीं थी, 15 महीने हो गए थे.
इसके अलावा, जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा लोग अपने प्रियजनों को गंवाते गए, ‘लंबे समय तक छाई रहने वाली दुख की भावना’ भी तेजी से बढ़ी.
उन्होंने कहा, ‘बहुत से लोगों को अपने प्रियजनों को खोने पर ज्यादा दुख होता है लेकिन यहां तो एक दूसरी ही समस्या रही. (पहले) लोग किसी शव को देख सकते थे और उनके अंतिम संस्कार या दफनाने जैसी परंपराएं निभा सकते थे. यहां ऐसा नहीं हो रहा. इसलिए लोगों को लगता है कि वह वो नहीं कर पा रहे जो करने की उन्हें जरूरत है और वे खुद को दोषी महसूस करने लगते हैं. ऐसी परिस्थितियों में दुख की भावना लंबे समय तक बनी रहती है और यही मौजूदा समय में हो रहा है.’
‘एक जटिल आपदा’
कोई भी आपदा जब आती है तो आबादी के एक बड़े हिस्से के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है. जैसे-जैसे समय बीतता है लोगों पर इसका असर धीरे-धीरे कम होता जाता है और सामान्य स्थिति की भावना वापस आ जाती है.
डॉ. सेकर ने स्पष्ट किया, ‘मार्च 2020 में भी करीब 95 फीसदी आबादी ने महामारी के प्रति अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया दी थी. फिर क्या होता है जब आपदा थम जाती है, आमतौर पर छह महीने की अवधि में 65 प्रतिशत लोग ही इससे प्रभावित रह जाएंगे. यही आंकड़ा करीब दो वर्षों में घटकर 30 प्रतिशत पर आ जाएगा और लगभग तीन से चार सालों में सामान्य स्थिति आ जाएगी.’
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हालांकि, कोविड-19 के साथ स्थिति यह है कि यह एक बेहद जटिल और दीर्घकालिक आपदा बन गई है.
उन्होंने कहा, ‘ज्यादातर आपदाओं में यह सब एपिसेंटर और एपिसेंटर के प्रसार पर आधारित रहा है कि यह किस स्तर तक पहुंचता है. वहां हम जोन ए, बी और सी में बंटे होते थे. लेकिन ये एक निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित रहा है. यहां तो एक राष्ट्र है और फिर पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है.’
लोगों पर मौजूदा महामारी के असर के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि किसी को आघात लगा है तो किसी को सामान्य तनाव है. ‘सामान्य तनाव’ में ऐसी चिंताएं शामिल हैं जैसे मास्क पहनना भूल जाना, घर से काम करने की चुनौतियां और दोस्तों और प्रियजनों से मिल पाने में असमर्थ होना.
डॉ. सेकर ने बताया कि एक ऐसी स्थिति जिसमें कोई व्यक्ति संक्रमित हो गया है और उसे आइसोलेशन में रखा जा रहा है, ‘आघातपूर्ण तनाव’ का उदाहरण है. इसमें करीब पांच दिन बीतन के आसपास वह व्यक्ति मानसिक पीड़ा से गुजरने लगता है. आघातपूर्ण तनाव के दौरान विचारों के संदर्भ में बात करें तो वे कुछ ऐसे होते हैं जैसे ‘जीएंगे या मर जाएंगे और मुझे कुछ तो करना होगा’ और जब वे अपने आसपास किसी की मौत को देखते हैं, तो उनमें एक तरह की घबराहट की भावना पैदा होती है.’ साथ ही जोड़ा, ‘अत्यधिक दबाव की यही स्थिति कोविड से संबंधित आघातपूर्ण तनाव को उत्पन्न करती है.’
उन्होंने कहा कि यह स्थिति तब और विकट हो जाती है जब गंगा नदी में सामूहिक रूप से शव बहाए जाने, अस्पतालों और श्मशान के बाहर लंबी कतारें होने आदि जैसी खबरें सामने आती हैं.
उन्होंने बताया, ‘ये सभी बातें हाइपरविजिलेंस वाली स्थिति बना देती है जिसमें दिल की धड़कन तेज हो जाती है और उन्हें पसीना आने लगता है. सभी मनोवैज्ञानिक समस्याएं सोमैटो यानी भौतिक शरीर पर सीधा असर दिखाने लगती हैं.’
उन्होंने कहा, ‘इस प्रकार हम एक साधारण प्रतिक्रिया वाले लक्षण की जगह एक सिंड्रोमल प्रेजेंटेशन की बात कर रहे हैं जो आज के समय में तेजी से सामने आ रहा है और यह सामान्य आबादी के मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं वाले केवल 10 प्रतिशत हिस्से को ही प्रभावित नहीं करेगा, बल्कि आने वाले समय में इसे 30 प्रतिशत के आंकड़े पर पहुंचा सकता है.’
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