भारतीयों की धार्मिकता के बारे में ‘पीईडब्लू’ ने जो सर्वे किया है वह काफी चर्चा में है और उसको लेकर गरमागरम बहसें चल रही हैं. क्या यह हमें हमारी राजनीति के बारे में भी कुछ सबक देता है?
अब तक यह बहस समाजविज्ञान के मानकों के दायरे में ही सिमटी रही है, कि विभिन्न आस्थाओं वाले भारतीय कितने धर्मपारायण हैं? वे एक-दूसरे को कितने सम्मान की नज़रों से देखते हैं? पड़ोसियों, राष्ट्रवाद, और खानपान के बारे में उनके विचार क्या हैं? लेकिन क्या यह इस तरह के सवालों के जवाब देती है कि आप भारत में कोई चुनाव कैसे जीतते हैं? खास तौर से, आप मतदाताओं से क्या कहते हैं, और किस भाषा में कहते हैं कि वे आपके संदेश और प्रस्ताव पर यकीन कर लेते हैं?
नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा को इन सवालों के जवाब मालूम हैं. इसलिए सवाल उनकी ओर से नहीं हैं; दूसरों की तरफ से हैं, जो उनके चुनावी वायदों की ठोस दीवार से अपने सिर टकरा कर अपने दिमाग पर जोर दे रहे हैं. वे यह भी जानते हैं कि मोदी अगर आगे न हों तो भाजपा को हराना संभव है. पश्चिम बंगाल इसका ताजा उदाहरण है.
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अगर आप महत्वाकांक्षी विपक्षी हैं तो आप सवाल पूछ सकते हैं कि उनके वोट क्यों बढ़ रहे हैं? लोग मेरी बात क्यों नहीं सुन रहे हैं? क्या धर्मनिरपेक्षता उनके लिए कोई महत्व नहीं रखती? पिछले सात वर्षों में दूसरे देशों में इतना भारी परिवर्तन आया है? और अब जाति के प्रति लगाव भी क्यों बेअसर हो गया है? इसकी एक मिसाल 2019 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन है. और, लोगों का दिमाग अगर इतना बदल गया है कि उन्हें कुछ और समझाना मुश्किल है, तो मैं क्या करूं?
हम जानते हैं कि भारत के लोग व्यस्त हैं. उनके पास सबकी बातें सुनने, उनके मतलब और इरादों को समझने, उनका दिमाग पढ़ने का समय नहीं है. उन्हें आपको वह संदेश देना होगा जो वे सुनना चाहते हैं. आप उनमें वह संदेश सुनने की चाहत पैदा करना चाह सकते हैं. लेकिन आप यह तभी कर सकते हैं जब आप उनसे उस भाषा में बात करेंगे जिसे वे समझते हैं और सम्मान देते हैं. अब आप यह जान गए होंगे कि मोदी की कुछ ‘खामियां’ उनके लिए कोई मतलब क्यों नहीं रखतीं.
वह भाषा क्या हो? ‘पीईडब्लू’ के इस सर्वे के शीर्षकों से आगे जब हम आंकड़ों को देखते हैं तब कई जवाब मिलते हैं.
वास्तव में, कई जवाब उन विरोधाभासों में मिलते हैं जो इन आंकड़ों से उभरते हैं. और, यह इस तर्क को दफन कर दीजिए कि इस सर्वे में मात्र 30,000 लोगों को शामिल किया गया. अगर सर्वे की विधि मजबूत है तो यह महत्व नहीं रखता कि सर्वे में कितने लोगों को शामिल किया गया. चुनाव आंकड़ा विशेषज्ञ संजय कुमार ने अपने ट्वीटों के सीरीज़ में लिखा है कि उनकी लोकनीति-सीएसडीएस के 2015 के सर्वे में भी इतनी ही संख्या थी. और, इस सोच को भी दफन कर दीजिए कि मोदी के उभार ने भारत को इतना हिंदूमय कर दिया है कि दूसरों के लिए कोई भविष्य नहीं है.
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आइए, उन विरोधाभासों पर विचार करें, जो सबसे महत्वपूर्ण और ज्ञानप्रद हैं.
सबसे पहला विरोधाभास तो यह है कि भारतीय बहुत धार्मिक, दूसरों की आस्थाओं के प्रति सहनशील हैं.
दूसरा यह कि वे धर्म को अपनी पहचान का केंद्रीय स्तंभ मानते हैं, लेकिन यह अपेक्षा मत रखिए कि यह दूसरों के लिए भी राष्ट्रवाद को परिभाषित करेगा.
तीसरा, वे इस बात में विश्वास करते हैं कि उनकी आस्था का मूल संदेश, और उनके राष्ट्रवाद का उत्तरदायित्व यह है कि वे दूसरी आस्थाओं के लोगों का सम्मान करें, इसके बावजूद एक तिहाई भारतीय यह नहीं चाहते कि उनका पड़ोसी किसी दूसरे धर्म को मानने वाला हो.
चौथा, वाम दलों को वोट देने वाले 97 प्रतिशत मतदाता धर्म में आस्था रखते हैं.
पांचवां, वे दूसरे धर्म के लोगों को पसंद करते हैं, भारत की विविधता की प्रशंसा करते हैं और उनमें देशभक्ति की भावना भी उतनी ही है लेकिन उनमें से अधिकतर लोग यह नहीं चाहते कि उनके बीच का कोई व्यक्ति दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी करे. यह भावना ‘जाति से बाहर’ शादी के मामले में भी काम करती है.
इन जानकारियों से पांच राजनीतिक सूत्र मिलते हैं. एक यह कि भारतीय लोग धार्मिक होने के बावजूद ही नहीं बल्कि इसके कारण भी गहरे धर्मनिरपेक्ष हैं. दूसरे, वे इस झूठ में विश्वास नहीं करते कि दूसरे धर्म या किसी खास धर्म के लोग देश के प्रति वफादार नहीं हैं. क्योंकि अगर ऐसा होता तो वे उनका आदर नहीं करते. तीसरे, हम पड़ोसी के रूप में अपने धर्म वाले को इसलिए चाहते हैं कि मामला संस्कृति से लेकर रस्म-रिवाज, पर्व-त्योहार, और सबसे बढ़कर खानपान का है. यह सब एक सामुदायिकता का भाव जागता है.
यह जानकारी भी बहुत कुछ कहती है कि जो समुदाय पड़ोसी के रूप में दूसरे धर्म के लोगों को सबसे ज्यादा नापसंद करता है वह है जैन समुदाय (61 प्रतिशत). वे खास तौर से निरामिष हैं. चौथे, मैं वाम दलों को भले वोट करता हूं लेकिन ईश्वर से मुक्त विचारधारा के लिए मेरे पास समय नहीं है. इस वजह से भी भारत में भारी विषमता के बावजूद वामपंथ फैलने के विपरीत सिकुड़ रहा है. और अंत में, मैं किसी भी धर्म के साथी भारतीय बेशक पसंद करता हूं मगर अंतर-धार्मिक विवाह मामले को बहुत खींचना हो जाएगा.
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पूरे का सार यह है कि मैं अपने देश की विविधता का प्रशंसक हूं. लेकिन मुझे अपनी विविधता भरी पहचान भी पसंद है. मुझे एकरूपता लाने वाली किसी मशीन में मत घुमाइए. एकता का मतलब एकरूपता नहीं है. जो भी इस पर ज़ोर डालेगा उसे मेरी अति-संवेदनशील प्रतिरोध क्षमता का सामना करना होगा.
मोदी की भाजपा इससे कैसे निबटती है? वह हिंदू-भारतीय पहचान पर जमकर और बेहिचक ज़ोर देती है. उसने अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को पहले ही अपनी गिनती से बाहर कर दिया है. आप जानते हैं कि वे हमें वोट नहीं देंगे, इसलिए प्यारे हिंदू भाइयो आप हमें ज्यादा से ज्यादा वोट देंगे या नहीं, या किसी अल्पसंख्यक को इस वीटो का अधिकार देंगे कि भारत पर कौन राज करेगा? मतदाताओं को यही भाषा समझ में आती है. अगर वे आधे से ज्यादा हिंदू वोट हासिल कर लेते हैं तो उनका काम बन जाता है. पश्चिम बंगाल में यह अनुपात ज्यादा, 60-65 प्रतिशत के बारबार था इसलिए वे नाकाम रहे.
इसका अर्थ यह निकाला जाता है कि ज़्यादातर मुसलमान चूंकि भाजपा के खिलाफ वोट देते हैं इसलिए वे हिंदुओं के खिलाफ हैं. यह टेनिस गेंद फेंकी जाने से पहले 81-15 के गेम, सेट और मैच का है, सिवाय उन राज्यों के, जहां पहचान के दूसरे आधार ज्यादा मजबूत हैं, जैसे कि तमिलनाडू.
लोग मोदी के विरोधियों की इसलिए नहीं सुन रहे क्योंकि वे जिस भाषा में बोलते हैं उसे लोग न तो पसंद करते हैं और न समझते हैं. आप उन्हें धर्मनिरपेक्षता पर भाषण पिलाइए, वे समझेंगे कि आप उन्हें कट्टरपंथी मान रहे हैं. आप उनसे समाजवाद लाने का वादा कीजिए, तो यह वादा तो हर कोई कर रहा है. भारतीय राजनीति ने समाजवाद के सबसे ज्यादा रूपों का आविष्कार किया है. आप आर्थिक मोर्चे पर मोदी के कामकाज की आलोचना कीजिए, जवाब मिलेगा कि लोग केवल रोटी-दाल के नहीं जीते हैं.
वामपंथी बुद्धिजीवी दशकों से कई पीढ़ियों को नास्तिकता, तार्किकता, विरासत में मिले नेहरूवाद, समाजवाद आदि की घुट्टी पिलाते रहे हैं. इसके अलावा दूसरी पार्टियों ने, खासकर हिंदी पट्टी की, धर्म को भाजपा को थाली में परोसकर सौंप दिया. भारत कभी धर्मनिरपेक्ष इसलिए नहीं हो सकता कि लोग अपनी धार्मिक पहचान को परे कर देंगे. भारत इसलिए धर्मनिरपेक्ष बना रहेगा क्योंकि वह गहरे रूप से धार्मिक है और इसके लोगों ने शायर इकबाल का यह गीत आत्मसात कर लिया है कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना‘. आप जब हमें उपदेश पिलाते हैं तो हममें खीझ पैदा करते हैं. हमारी धर्मनिरपेक्षता को पक्का मान कर चलिए, वरना हम यह मान लेंगे कि आप अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को चेता रहे हैं कि वे आपको वोट दें.
कौन हिंदू मतदाता है, कौन धर्मनिरपेक्ष मतदाता है, यह उलझन ही एक बड़ी वजह है कि मोदी के विरोधी उन्हें मजबूत चुनौती देने में विफल रहे हैं. अगर भाजपा हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करके जीतती है, तो उसके विरोधी मुसलमानों और ‘दूसरों’, खासकर विशेष जाति समूहों को एकजुट करके उसे शिकस्त नहीं दे सकते. उसे विश्वसनीय चुनौती वही दे सकता है जो हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करेगा, जबकि वे दोनों अपनी-अपनी पहचान, अपने-अपने पड़ोस और नातेदारी में बने रहेंगे. ‘पीईडब्लू’ के सर्वे के निष्कर्ष इसी राजनीतिक मुहावरे और भाषा की सिफ़ारिश करते हैं.
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