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Thursday, 21 November, 2024
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योगी आदित्यनाथ और बाबा रामदेव की ये किताबें दर्शनशास्त्र के लायक़ क्यों नहीं हैं

चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय का, आदित्यनाथ और रामदेव की किताबों को दर्शन शास्त्र के कोर्स में शामिल करना एक मामूली फैसला लगता है, लेकिन एक अकादमिक दार्शनिक के नाते, ये परेशान करने वाला है.

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आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के दौर में, दर्शनशास्त्र विषय मुश्किल से सुर्ख़ियों में आता है. लेकिन भाग्य के अप्रत्याशित खेल में, दर्शनशास्त्र कुछ दिन पहले सुर्ख़ियों में था, हालांकि उसका कारण दुखद था: उत्तर प्रदेश में मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय ने, योग गुरू बाबा रामदेव और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की किताबों को, अपने अंडरग्रेजुएट दर्शनशास्त्र कार्यक्रम के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया है. संबंधित लेखकों के हालिया दावों के विपरीत, एक ऐसे कोर्स में, जिसे वैसे ही ज़्यादा लोग नहीं पढ़ते, उनकी किताबें शामिल करने का फैसला, तुच्छ और हास्यास्पद नज़र आता है.

लेकिन, एक अकादमिक दार्शनिक होने के नाते, मुझे ये घटनाक्रम परेशान करने वाला लगता है, क्योंकि पाठ्यक्रम में इस तरह के समावेश, ऐसे विषय की गुणवत्ता और महत्व को ख़राब करते हैं, जिसे भारत और दूसरी जगहों पर, पहले ही ज़्यादा तवज्जो और समर्थन नहीं मिलता. इसलिए ये समझना आवश्यक है, कि संबंधित किताबें दर्शनशास्त्र की शिक्षा के लिए, क्यों उपयुक्त नहीं हैं.

समस्या दो सवालों के इर्द-गिर्द घूमती है.

पहला, दर्शनशास्त्र के कोर्स में क्या विषय पढ़े/पढ़ाए जाने चाहिएं? क्या ‘सूर्य नमस्कार के निर्देश और उनके फायदे’ ऐसे अन्य विषयों के साथ शामिल किए जाने चाहिएं, जैसे ‘सत्य के विभिन्न सिद्धांत’, ‘क्या चेतना है?’ और ‘आम्बेडकर का नीतिशास्त्र का सिद्धांत’? दूसरा, दर्शनशास्त्र के कोर्स में किन लेखकों के कार्यों को शामिल करना चाहिए?

उपरोक्त दोनों सवाल उतने ही पुराने हैं जितना ख़ुद दर्शन शास्त्र, क्योंकि उनका संबंध विषय के बुनियादी पहलुओं से है: दर्शन शास्त्र क्या है, और क्या नहीं है? कौन दार्शनिक है और कौन नहीं है? दर्शन शास्त्र की हर परंपरा में, हर नई पीढ़ी ने, इन सवालों के अपने हिसाब से उत्तर दिए हैं. इन उत्तरों के प्रक्षेप पथ का पता लगाना, दर्शनशास्त्र के विकास को समझने का, एक तरीक़ा हो सकता है. हालांकि उपरोक्त दोनों सवालों को, आज के संदर्भ में संबोधित करना, उतना क्रांतिकारी नहीं होगा जितना ऐतिहासिक प्रयास थे, लेकिन मैं दोनों की चर्चा करूंगा, और इन दो किताबों को दर्शन शास्त्र के सिलेबस में शामिल से जुड़ी, कुछ चिंताएं उठाउंगा.


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दार्शनिक होना

पहला सवाल जो पूछने की ज़रूरत है वो ये है: संबंधित किताबों, रामदेव की योग साधना एवं योग चिकित्सा, और आदित्यनाथ की हठयोग: स्वरूप एवं साधना, में आख़िर दार्शनिक क्या है? दोनों किताबों में, प्राचीन ग्रंथों में योग की अवधारणा के, एक संक्षिप्त और बिखरे हुए परिचय के बाद, मुख्यत: आसन, सत्कर्म, सांस के अभ्यास, और ध्यान की तकनीकों के निर्देशों, और उनसे स्वास्थय को होने वाले फायदों की चर्चा की गई है.

उपरोक्त विषय दर्शन शास्त्र की पढ़ाई से सीधे तौर पर कैसे जुड़े हैं? इन किताबों की सिफारिश करने वाली कमेटी के सदस्यों ने, इस बात पर बल दिया कि योग अपने ‘व्यवहारिक पहलू’ के कारण महत्वपूर्ण है, और ये ‘हमारा प्राचीन विज्ञान’ है. उन्होंने इस पुस्तकों के ‘साहित्यिक महत्व’ का भी उल्लेख किया. ये पहलू फिलॉसफी कोर्स के लिए, विषय या पुस्तकें चुनने के मानदंड कब से बन गए? एक संबंधित लेखक के इस दावे को, कि योग अभ्यास ‘मूर्ख’ आधुनिक चिकित्सा से बेहतर हैं, वैज्ञानिक समुदाय में नापंसद किए जाने के बाद, क्या अब ये कोई नई तरकीब है, कि योग को ‘दर्शन’ के ब्राण्ड के तौर पर बेंचा जाए?

यहां पर ग़ौरतलब है, कि चूंकि योग भारत के प्राचीन दर्शन के विचारों में से एक है, इसलिए शारीरिक अभ्यास की जानकारी की विशेषता भी, दार्शनिक नेचर की होती है. लेकिन इस दावे में, दर्शन शास्त्र के एक बुनियादी बिंदु को नहीं समझा गया है: शारीरिक अभ्यास उस फ्रेमवर्क से अलग होते हैं, जो उन्हें दार्शनिक रूप से समझता है.

संस्कृत शब्द योग के ऐतिहासिक रूप से अलग अलग मायने हैं. कुछ सबसे शुरूआती प्रयोगों, जैसे ऋग्वेद में, इस शब्द का अर्थ ‘प्रयास’ और (रीति-रिवाज) का ‘अभ्यास’ है. बहुत बाद में जाकर, कुछ उपनिषदों में इस धारणा का वो अर्थ हो गया, जिसे हम आज के समय में पहचान सकते हैं: विशेष शारीरिक अभ्यास (जैसे कुछ मुद्राओं में आना, सांस की तकनीकें, ध्यान आदि) जिससे आत्मा को खोजा जा सके. बाद में, पतंजलि ने इन योग अभ्यासों को व्यवस्थित करके, अपने योगसूत्र में उनकी एक दार्शनिक व्याख्या कर दी, जो योग के दार्शनिक स्कूल का मूलग्रंथ बन गया. इसलिए योग के दार्शनिक स्कूल के विषय, शारीरिक अभ्यास के बारे में दार्शनिक, आध्यात्मिक, और ज्ञानशास्त्र के सिद्धांत हैं, न कि ख़ुद अभ्यास. फिल्में बनाना और दार्शनिक रूप से उनका विश्लेषण करना एक अलग पेशा है. इसी तरह योग का अभ्यास, और उसका दर्शन तैयार करना भी, एक अलग व्यवसाय है.

भारतीय दार्शनिक स्कूलों का परिचय– रूढ़िवादी स्कूल (न्याय, वैसेसिका, मीमांसा, योग, संख्या, वेदांत, और अन्य) और अपरंपरागत स्कूल (बौद्ध धर्म, जैन धर्म, लोकायुता व अन्य)- और इन परंपराओं के प्रमुख विचारक, अधिकतर भारतीय विश्वविद्यालयों में, दर्शन शास्त्र पाठ्यक्रम का एक आवश्यक अंग रहे हैं. जब इन विषयों पर पहले से ही जानी-मानी पुस्तकें उपलब्ध हैं, तो ऐसे कार्यों को शामिल किया जाना समझ से बाहर है, जो योग दर्शन के मूल तत्वों की चर्चा भी नहीं करते.

दर्शन शास्त्र का श्रम

पातंजलि ने योग के लिए क्या किया, इसपर उपरोक्त चर्चा से एक दार्शनिक के कार्य का, स्पष्ट रूप से सचित्र वर्णन होता है. ये एक ऐसा व्यवसाय है, जिसके लिए विशेष दक्षता की ज़रूरत होती है: वैचारिक स्पष्टीकरण देना, तर्कों की बारीकियों में जाना, संबंधित विषयों के मौलिक पहलुओं को खोजना आदि. लेकिन, कौन दार्शनिक है और कौन नहीं है, भारतीय संदर्भ में ये तय करना, एक कठिन और विवादास्पद प्रश्न रहा है. आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों के अलावा, दर्शन शास्त्र अभी भी शिक्षा के पारंपरिक स्थलों (जैसे मदरसे, हिंदू मठ, और बौद्ध, जैन तथा ईसाई मोनास्ट्री वग़ैरह) में ही फलता-फूलता है, और तत्वपाद तथा सूफी अभ्यासी वग़ैरह ही, इसका प्रदर्शन करते हैं.

रूपों की इस समृद्ध विविधता का समायोजन, अकादमिक दर्शन के लिए एक बड़ी चुनौती रहा है, और इन चिंताओं को दूर करने के प्रयास किए गए हैं. पाठ्यक्रम इस तरह से तैयार किए गए हैं, कि उनमें दर्शन की पश्चिमी और पूर्वी दोनों परंपराओं के, विभिन्न विषयों और विचारकों का परिचय कराया गया है. कुछ प्रोजेक्ट्स ऐसे भी रहे हैं, जिनमें अकादमिक विद्वानों, और दर्शन के पारंपरिक व्यवसाइयों के बीच, संवाद स्थापित करने के प्रयास किए गए हैं.

ये प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं रहे हैं, और अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है. लेकिन, इन सार्थक प्रयोगों के विपरीत, संबंधित पुस्तकों को शामिल करना विचारहीनता है, और जो भी थोड़ी बहुत प्रगति हुई है, ये क़दम उसे रद्द कर देता है. चयन समिति की ओर से, पुस्तकों को शामिल करने का एक कारण ये दिया गया, कि उनमें से एक लेखक ‘योग गुरू हैं… वो योग को जनमानस तक ले गए हैं!’ आसनों की मुद्रा के तौर पर योग की समकालीन धारणा, हाल की उत्पत्ति है, जिसमें कई कारकों से तेज़ी आई, जिनमें से एक है योग को अनंत काल से चले आ रहे, एक हिंदू अभ्यास के तौर पर पेश करने का राष्ट्रवादी प्रयास. इस प्रक्रिया में चुनिंदा रूप से, शारीरिक व्यायाम को शास्त्रीय दार्शनिक परंपराओं से जोड़ा जाता है, और साथ ही जादू, रसायन शास्त्र, तथा यौन व्यवहार जैसे तांत्रिक तत्वों का, शुद्धिकरण किया जाता है, जो हठयोग के अभिन्न अंग थे. योग के जटिल इतिहास की, ये एकतरफा और चयनात्मक कथा ही, इसे संभव करती है कि संबंधित लेखकों को, ग़लत ढंग से ‘दार्शनिकों’ की बराबरी पर रखा जाए.

फिलॉसफी के कोर्स में इन दो किताबों को रखना, एक ऐसे विषय का अनादर करना है, जिसके लिए ख़ास विशेषज्ञता की दरकार होती है. दर्शन शास्त्र वास्तव में खुला होता है. लेकिन इसका ये मतलब क़तई नहीं है, कि हर चीज़ दर्शन है, और कोई भी दार्शनिक बन सकता है.

वरुण भट्टा आईआई एसईआर भोपाल में दर्शन शास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. वो इंडियन फिलॉसफी नेटवर्क के सह-संस्थापक हैं, जो भारत में अकादमिक दार्शनिकों का एक संगठन है, और बेयरफुट फिलॉसफर्स इनीशिएटिव का भी हिस्सा हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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