नई दिल्ली: एक तरफ जहां मरीजों को ब्लैक फंगस का इलाज करने वाली दवा लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन-बी मिलने में खासी दिक्कतें आ रही हैं, वहीं, गुरुग्राम स्थित फार्मास्युटिकल फर्म लाइफकेयर इनोवेशन के कर्मचारी इसे बनाने के लिए चौबीसों घंटे काम में जुटे हैं.
लाइफकेयर इनोवेशन एंटी-फंगल दवा लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन-बी को डेवलप करने और उसका उत्पादन करने वाली पहली कंपनी है, यह दवा म्यूकोर्माइकोसिस कहे जाने वाले ब्लैक फंगस के इलाज के तौर पर हाल ही में सुर्खियों में आई है.
पिछले कुछ हफ्तों में देशभर में कोविड से उबरे मरीजों में दुर्लभ फंगल इंफेक्शन के सैकड़ों मामले सामने आए हैं. अन्य कारणों के अलावा इन मरीजों, जिनकी प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावित हुई है, को बड़े पैमाने पर ओरल स्टेरॉयड दिए जाने को भी मुख्य तौर ऐसे मामले बढ़ने के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है.
फार्मा उद्योग विशेषज्ञों के अनुसार, कोविड से पहले इस दवा की मांग बहुत सीमित थी, जो हर साल एक लाख शीशियों से ज्यादा नहीं होती थी. इसलिए दवा कंपनियां सीमित मात्रा में ही इसका निर्माण कर रही थीं. इसके अलावा इस दवा के निर्माण की प्रक्रिया भी काफी जटिल है.
फिलहाल बाजार में उत्पाद के कई निर्माता हैं जिसमें माइलान, सिप्ला, सन फार्मा और इंटास आदि शामिल हैं. लेकिन वह तो लाइफकेयर इनोवेशन ही थी जिसने भारत में सबसे पहले इसका निर्माण शुरू किया था.
डॉक्टर दंपत्ति डॉ. जितेंद्र एन. वर्मा और डॉ. लिली वर्मा द्वारा संचालित कंपनी ने करीब दो दशक पहले देश में लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन-बी के मैन्युफैक्चरिंग की तकनीक पेश की थी. 2009 में फंगीसोम नाम से ब्रांडेड यह दवा देश में एक दशक के शीर्ष फार्मा इनोवेशन में शुमार थी.
डॉ. जितेंद्र वर्मा ने दिप्रिंट को बताया, ‘पहली लहर के दौरान म्यूकोर्माइकोसिस के मामले काफी कम और सीमित क्षेत्र में सामने आए थे और दवा का उत्पादन बहुत ज्यादा बढ़ाने की जरूरत नहीं थी.’
उन्होंने अपनी कंपनी की उत्पादन क्षमता का ब्योरा दिए बिना कहा, ‘हालांकि, दूसरी लहर में मामले बहुत ज्यादा और एकदम अचानक बढ़ गए. हमने काम की शिफ्ट लंबी करके तुरंत उत्पादन बढ़ाया और यहां तक कि साप्ताहिक अवकाश के दिनों में भी काम किया. अब क्षमता बढ़ाए जाने के साथ, उत्पादन कई गुना बढ़ जाएगा.’
मई में स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से दिए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले महीने छह फार्मा कंपनियां दवा की 1.63 लाख शीशियों के उत्पादन में सफल रही हैं. जून के महीने में यह उत्पादन बढ़कर 2.55 लाख शीशियों तक पहुंचने की उम्मीद है.
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लाइफकेयर इनोवेशन कैसे बनी
लाइफकेयर इनोवेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डॉ जितेंद्र ने लिपोसोम—लिपिड के स्ट्रेटजिक मिक्स से बना एक छोटा बबल जिसे ड्रग डिलीवरी व्हीकल के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है—बनाना तब शुरू किया था जब मई 1977 में वह पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ में एक रिसर्च फेलो के तौर पर शामिल हुए थे और बाद में उन्होंने पीएचडी की.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘पीएचडी के तुरंत बाद मैं अमेरिका चला गया और वहां पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी, नॉर्थवेस्टर्न और जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी में काम किया, जहां मैंने एक्पेरिमेंटल यूज के लिए लिपोसोम बनाए.’
दंपति ने कई सालों तक अमेरिकी यूनिवर्सिटी और संस्थानों में काम किया और फिर 1990 में उन्होंने भारत लौटने और यहां रिसर्च और इनोवेशन में शामिल होने का फैसला किया.
उनका दावा है, ‘मैं एक लिपोसोम टेक्नोलॉजिस्ट हूं और करीब 44 सालों तक लिपोसोम शोध से जुड़ा रहना शायद मुझे दुनिया में सबसे ज्यादा अनुभवी लिपोसोम टेक्नोलॉजिस्ट बनाता है.’
अमेरिका के आर्मी मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट में अपने आखिरी असाइनमेंट के तौर पर उन्होंने उत्पाद विकास के लिए लिपोसोम तकनीक का इस्तेमाल किया, जहां उनके शोध ने लिपोसोमल मलेरिया वैक्सीन विकसित करने में खासा योगदान दिया.
डॉ. जितेंद्र ने कहा, ‘हमारे शोध नतीजों ने पहली बार 1990 में यह साबित किया कि एंटीबॉडी रिस्पांस देने के अलावा लिपोसोमल टीके सेलुलर इम्यून रिस्पांस भी देते हैं जो टीके को सुरक्षात्मक प्रतिरक्षा प्रदान करने के लिए जरूरी है.’
उन्होंने आगे बताया कि भारत लौटने के बाद डॉक्टर दंपति ने लिपोसोमल सिफलिस टेस्ट को डेवलप और कॉमर्शियलाइज किया—भारत में पहला लिपोसोमल उत्पाद डेवलप और निर्मित किया गया.
उन्होंने कहा, ‘एक सफलता ने और अवसर दिलाए और हमने लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन-बी को सलाइन फार्म में तैयार किया.’
उन्होंने लाइफकेयर इनोवेशन की स्थापना 2000 में अपनी पत्नी और सर्जन डॉ. लिली के साथ मिलकर की, और इस दवा को कॉमर्शियल बनाने का काम पीएटीएसईआर (प्रोग्राम एम्ड एड टेक्नोलॉजी सेल्फ रिलायंस) के तहत वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान विभाग (डीएसआईआर) की तरफ से मिले अनुदान और ऋण के जरिये किया गया.
भारत का पहला ‘लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन-बी’ 2003 में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस पर लॉन्च किया गया था.
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एम्फोटेरिसिन-बी क्या है?
एम्फोटेरिसिन-बी नाक, आंखों, साइनस और कभी-कभी मस्तिष्क को भी क्षति पहुंचाने वाले म्यूकोर्माइकोसिस के इलाज के लिए आवश्यक प्रमुख दवा है. लिपोसोमल फॉर्मूलेशन में एम्फोटेरिसिन-बी की मांग काफी ज्यादा होती है.
मौजूदा साक्ष्य बताते हैं कि लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन-बी पारंपरिक एम्फोटेरिसिन-बी की तुलना में किडनी के लिए कम घातक है.
डॉ. जितेंद्र ने समझाया, ‘विडंबना यह है कि एम्फोटेरिसिन-बी किडनी के लिए बहुत ही ज्यादा टॉक्सिक होती है, यहां तक की इसे एम्फो-द-टेरिबल नाम दिया गया है. लेकिन खास तौर पर सलाइन में तैयार भारतीय दवा में ज्यादा विषाक्तता नहीं है. इसका रणनीतिक तौर पर तैयार फॉर्मूला सुनिश्चित करता है कि एम्फोटेरिसिन-बी सीधे फंगल पैथोजन पर असर करे, न कि किडनी को प्रभावित करे. यह इसे एम्फो-द-टेरिबल से एम्फो-द-टैरिफिक बना देता है.’
उन्होंने कहा, ‘सुरक्षित, असरदार ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एंटी-फंगल दवा, जिसमें ड्रग रेजिस्टेंस की समस्या ना हो, तैयार करना दवाएं खोजने और उन्हें विकसित करने से जुड़े लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती रहा है.’
डॉक्टर ने आगे कहा, ‘लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन-बी सलाइन में एक आदर्श एंटी-फंगल दवा की सभी जरूरतें पूरी करती है. पहले एंटी-फंगल कंपाउंड पोटेशियम आयोडाइड की पहचान 1903 में की गई थी और एक सदी बाद 2003 में फंगीसोम लॉन्च किया गया था.’
चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार, एम्फोटेरिसिन से किया जाने वाला इलाज कुछ मामलों में चार से छह हफ्ते तक जारी रहता है, जिसके लिए दवा के 70 से 100 इंजेक्शन की जरूरत हो सकती है. यह इलाज काफी महंगा है क्योंकि एक इंजेक्शन की कीमत 3,500 रुपये से 7,500 रुपये के बीच है.
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