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Thursday, 19 December, 2024
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कोरोना भयावह नहीं है. इस उम्मीद का खत्म होना भयावह है

सीवोटर के ट्रैकर में सात सालों में लगातार लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ती मोदी सरकार की रेटिंग केवल इन्ही सात हफ्तों में धराशायी हो गई .

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मोदी सरकार की दूसरी इनिंग्स के भी दो साल निकल गए. पिछले सात साल एक तरफ और पिछले सात हफ्ते एक तरफ कहा जाता है कि राजनीति में एक हफ्ता भी बहुत होता है. पिछले सात हफ्तों की बानगी ये है कि सीवोटर के ट्रैकर में सात सालों में लगातार लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ती केंद्र सरकार की रेटिंग केवल इन्ही सात हफ्तों में धराशायी हो गई . इस हफ्ते केंद्र से असन्तुष्ट लोगों की संख्या इस सरकार से संतुष्ट लोगों की संख्या से कहीं ज्यादा निकल गई है .

ऐसा नहीं हैं कि पिछले दो सालों में कुछ अच्छा हुआ ही नहीं. हमारे सर्वेक्षण में देश की जनता ने बहुमत से कहा कि धारा 370 को हटाना मोदी 2.0 की सबसे बड़ी उपलब्धि है. अयोध्या का फैसला उसी जनता के बड़े हिस्से के बीच ऐतिहासिक भाव के सामूहिक घाव को भर गया.

तीन तलाक वाले कानून पर देश की जनता पूरे दिलोदिमाग से सरकार के साथ रही, यहां तक कि मुस्लिम समाज का बहुमत भी उस कानून के पक्ष में बनता दिखा. हालांकि सीएए पर अल्पसंख्यकों की नाराजगी भी परवान चढ़ी, लेकिन बहुमत उसके पक्ष में बना रहा .

यहां तक कि विपक्ष के इतने विरोध के बावजूद नागरिकता संशोधन कानून पर देश इस सरकार पर भरोसा दिखाता रहा है.

लेकिन किसान आंदोलन वाले मुद्दे पर देश का वही बहुमत ये भी कह रहा है कि सरकार की भूमिका किसान विरोधी दिखाई दे रही है . छह साल पहले भूमि अधिग्रहण कानून पर भी हमारे ट्रैकर में 70 फीसदी लोगों ने सरकारी कदमों को किसान विरोधी कहा था.

आज भी देश कह रहा है कि सरकार को किसानों से बात कर के समाधान निकालना चाहिए .

चीन के मुद्दे पर वही बहुमत सशंकित भी है पर देश की सरकार के साथ खड़ा भी है. और इस देश के जनादेश का धैर्य देखिए , कि वो ये भी कहता है की मुसीबत के वक़्त दूसरे देशों को दवाई भेजना गलत नहीं है, और न ही नए संसद भवन के काम को रोकने की जरूरत है.

लेकिन जहां पर देश का जनादेश धैर्य खो बैठता है वो मुद्दा है लगातार चुनाव प्रचार का मोड. जहां देश का जनादेश धैर्य खो बैठता है, वो है भाजपा की राजनीति का कांग्रेसीकरण. किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना और चुनाव जीतने को ही अपने राजनैतिक आस्तित्व का मुख्य ध्येय मान लेना, ये जनता के बीच अर्जित विश्वास का अतिरेकी दुरुपयोग है.


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जनता का विश्वास पाना कठिन है , खोना बहुत आसान

प्रधानमंत्री के द्वारा जनता के बीच अर्जित विश्वास को अब भाजपा के नेता अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ के लिए दुह रहे हैं. अगर आप ये सोचते हैं कि पश्चिम बंगाल हारने से भाजपा का मुख्य नुकसान हुआ है तो आप राजनीति की सही समझ नहीं रखते. भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को केवल एक राज्य के चुनाव में मिली हार से नुकसान नहीं हुआ है. कुल 294 सीटों में जहां उनकी केवल 3 सीटें थी, अगर वो कांग्रेस और लेफ्ट का सफाया कर के मुख्य विपक्षी दल बन गए हैं तो ये उनका राजनैतिक नुकसान कहीं से भी नहीं है .

दरअसल उनका नुकसान इस बात से ज्यादा हुआ है की देश की जनता के मन में ये बात बैठ गई है की कोरोना के बढ़ते हुए आपातकाल के बीच जब देश को प्रधानमंत्री के पूरे फोकस की जरूरत थी, उस वक़्त वो देश के प्रधानमंत्री की तरह काम न कर के केवल अपनी पार्टी के नेता के रूप में चुनाव प्रचार कर रहे थे. पिछले तीन सौ चौंसठ हफ्तों की मन की बात पर पिछले सात हफ्ते भारी पड़ गए हैं. जनता के जो मन की बात है वो आज पोजिटीविटी या सकारात्मकता नहीं ढूंढ रही है.

बल्कि संवेदना की उस आस को ढूंढ रही है जहां आक्सिजन की कमी से उखड़ती सांसों के बीच कोई मंत्री उसको ये न बोले की देश में आक्सिजन की कोई कमी नहीं है. वो दुख की इस घड़ी में उस भरोसे को ढूंढ रही है जो अपने अनगिनत सगे संबंधियों, दोस्तों और रिश्तेदारों की अर्थिया उठाने के बाद उसको सरकारी आँकड़े दिखा कर ये न बताएँ की इतनी मौतें तो हुई ही नहीं .

इसमें कोई शक नहीं की इस देश की जनता अपने प्रधान मंत्री पर आंखे मूंद कर भरोसा करती है. जब प्रधान मंत्री रात को आठ बजे टीवी पर कहते हैं आज रात बारह बजे से नोट बंदी लागू है , तब भी पूरी जनता दूसरे दिन से बिना किसी शिकन या शिकायत के बैंक की लाइन में लग जाती है.

जब प्रधानमंत्री कहते हैं कोरोना योद्धाओं के सम्मान में थाली और कटोरी बजाओ तो सौ करोड़ लोग अपने अपने घरों में थाली बजाने लगते हैं या दिए जलाने लगते हें. ऐसे भरोसे को जीतने वाले प्रधानमंत्री जब कहते हैं की ‘जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं’ तो देश का बच्चा बच्चा भी सतर्क हो जाता है और बिना मास्क वालों को टोकने लगता है. लेकिन जब देश की जनता अपने प्रधानमंत्री को बिना मास्क के लाखों लोगों की रैली संबोधित करते टीवी पर लाइव देखती है, तो कहीं न कहीं वो भी मान लेती है की कोरोना अब समस्या नहीं है. और इसी गलतफहमी या खुशफहमी में अपनी सारी सतर्कता को ताक पर रख देती है .

बचपन से हर चौराहे पर पढ़ते आए हैं की सावधानी हटी, दुर्घटना घटी. दुर्घटना तो घटनी ही थी, सो घट गई. लेकिन चुनाव प्रचार नहीं रुका. और जब लोग अस्पतालों में परेशान हों, तब वही धुआंधार चुनावी प्रसारण उन्ही लोगों को कष्ट देने लगा . जब तक महान रणनीतिकारों को ये बात समझ में आई, तब तक नुकसान हो चुका था .

पता नहीं की अभी भी ये बात सरकार को समझ आई है या नहीं की जब जब सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता टीवी पर ये कहते हैं की देश में आक्सिजन की कोई कमी नहीं है, तब तब आक्सिजन की कमी से छटपटा रहे हर मरीज के परिवार वाले केवल उन मंत्रियों को कोस रहे होते हैं. जब जब सरकारी आंकड़ों में ये कहा जाता है की ज्यादा लोग मरे ही नहीं हैं, तब तब हर उस घर से जहां कोई अभागा कोरोना की अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ है, उस हर घर में सरकार और प्रधानमंत्री की छवि को नीचे धकेलने का काम सरकारी आंकड़े कर रहे होते हैं.

काम पर बवाल नहीं, संवेदनशीलता पर सवाल है

पिछले एक साल से सी वोटर की टीम रोज कोरोना से जुड़े मुद्दों पर पूरे देश में बात करती रही है. अब तक इस कोविड सर्वे में हम लगभग दो लाख भारतीयों का साक्षात्कार कर चुके हैं. इस कोविड ट्रैकर में जिन परिवारों ने हमको ये बताया की उनके यहां कोविड के चलते किसी की तबीयत ज्यादा खराब हुई या फिर किसी की मौत हो गई, उन परिवारों की संख्या सरकारी आंकड़ों से लगभग सात गुना ज्यादा है.

उस सर्वे रिपोर्ट से केवल ये साबित होता है की हर राज्य से कोरोना की मौतों पर आने वाले सरकारी आंकड़े केवल और केवल झूठ का पुलिंदा हैं. हमारी सर्वे रिपोर्ट साफ दिखाती है की देश में कम से कम अट्ठारह लाख लोग कोरोना से मारे गए हैं. और ये हमारा अनुमान नहीं है, ये उन आम नागरिकों के द्वारा बताई गई खुद की भोगी आपबीती है जिनके परिवार से लोग इस महामारी में मारे गए हैं .

आप किसी की मौत पर संवेदना प्रकट न करें तो भी ठीक है. लेकिन लोगों की मौत को नकार कर ये कहना की इतने लोग मरे ही नहीं हैं, ये किसी भी सरकार की ओर से दिखाई गई असंवेदनशीलता का परिचायक है. मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर जो हमारी रिपोर्ट आई है , उसमे साफ पता चलता है की इस असंवेदनशीलता पर जनता बहुत ही दुखी है .

किसी के दुख में अगर आप भागीदार नहीं हो सके तो कम से कम उस घाव में सरकारी आकड़ों का नमक मत रगड़िए .
देश को आज न केवल संवेदना की जरूरत है , पूरी प्रामाणिकता के साथ इस महामारी से लड़ने की जरूरत है. सच्चाई ये है की देश को अगले एक साल तक केवल और केवल दवाई यानि वैक्सीन और टीकाकरण पर बेहतर तालमेल की जरूरत है. अगर प्रधान मंत्री पूरी ताकत से केवल इसी एक एजेंडे पर खुद को लगा दें तो उनकी लोकप्रियता वापस अपनी ऊंचाई पर आ सकती है .

हमारा सर्वे साफ बता रहा है की देश की 80 फीसदी जनता बिना किसी भ्रम के वैक्सीन लगवाना चाहती है . कहीं किसी भी किस्म की ‘वैक्सीन हेजीटेनसी’ नाम की चीज भारत में नहीं है. शहरी जनता तो नाराज बोल बोल ही रही है, अब ग्रामीण भारत भी साफ कह रहा है की टीका अभियान की व्यवस्था में सरकार फेल हो गई है. अर्थव्यवस्था के फ्रन्ट पर जो केंद्र सरकार की योजनाएं हैं , उसने अभी तक गरीब को भूख से नहीं मरने दिया, लेकिन अब दवाई की कमी से वो न मरे इसकी व्यवस्था सरकार को करनी ही होगी.


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सबसे खतरनाक है उन उम्मीदों का ख़त्म हो जाना

किसी भी देश के लिए कोई भी महामारी या नैसर्गिक आपदा बड़े संकट का काल होती है. भारत ने भी बड़े संकट के काल देखें हैं सत्तर सालों में . लेकिन इस राष्ट्र की आशावादिता और उम्मीदें कभी खत्म नहीं हो सकीं. आज के इस कोरोना काल में महामारी से भी बड़ा संकट है उस आशा और उम्मीद का कम हो जाना. मैं जब बहुत छोटा था तब इमरजेंसी का भयावह दौर देखा था, वो भी याद है. इंदिरा जी और राजीव गांधी की निर्मम हत्याओं के दौर से ये देश किस तरह धीमे धीमे बाहर निकला उसका प्रत्यक्षदर्शी हूं.

एक पत्रकार के नाते पिछले पच्चीस सालों से जनमत संग्रह का काम कर रहा हूं. अपने व्यक्तिगत और प्रोफेशनल जीवन में कभी ऐसा दौर नहीं देखा जब देश कठिन से कठिन समय में भी आशा का दिया संजोये न बैठा हो. लेकिन इस बार पहली बार देख रहा हूं कि सभी तरफ अवसाद की स्थिति है. निराशा से भरा हुआ माहौल है.

लोगों से जब हम पूछते हैं कि आने वाले छह महीने या एक साल कैसे होंगे तो लोग चुप्पी साध जाते हैं. पहले खराब से खराब समय में भी लोग उम्मीद जताते थे कि आने वाला समय अच्छा होगा. इस देश की ये वही चिर-आशा वादिता थी जिसने 2014 में ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ के नारे पर मुहर लगा दी थी .

पिछले सात सालों में जब हम लोगों से पूछते थे कि उनकी सबसे बड़ी समस्या क्या है, तो कांग्रेस के समय की भ्रष्टाचार और मंहगाई जैसी समस्याओं के बजाय लोग शिक्षा और रोजगार की बातें करने लगे थे .

दिसंबर 2015 में ही हमारे ट्रैकर में ‘रोजगार’ सबसे बड़ा मुद्दा बन गया था. इसलिए नहीं कि लोग रातों रात बेरोजगार हो गए थे. बल्कि इसलिए की भ्रष्टाचार और मंहगाई का मुद्दा मानो गायब हो गया था . इसीलिए 2019 में बेरोजगारी के मुद्दे के बाद भी मोदी सरकार वापस बम्पर बहुमत से आ गई, क्यों कि जनता का भरोसा था कि इस मुद्दे का समाधान भी मोदी सरकार ज्यादा बेहतर कर सकती है . पिछले सात सालों में हमारे ट्रैकर में जो भी समस्या जनता ने बताई, उसका समाधान कौन कर सकता है ये पूछने पर देश की जनता का काफी बड़ा बहुमत भाजपा और मोदी का नाम लेता रहा है. आज उसी जनता का दो तिहाई भाग ये बोल रहा है कि फिलहाल उनको किसी भी पार्टी या नेता से किसी भी समाधान की कोई उम्मीद नहीं है .

ये सही है कि ऐसी स्थिति में भी विपक्ष कुछ खास नहीं कर पा रहा है. जब प्रधानमंत्री पद के लिए पसंदीदा उम्मीदवार पूछा जाता है तो आज मोदी के बाद सबसे बड़ा नाम ‘कह नहीं सकते’ वाले ऑप्शन का आता है. पश्चिम बंगाल के नतीजे आने के बाद कई सारे मीडिया महारथियों ने ममता दीदी का नाम उछाल दिया केंद्र की राजनीति के लिए. बिना ये सोचे, कि बंगाल जीतने के बाद भी ममता बनर्जी बड़ी मुश्किल से देश भर में केवल तीन फीसदी लोगों की ही पसंद हैं प्रधानमंत्री के पद के लिए . उनसे दो गुना ज्यादा रेटिंग तो अरविन्द केजरीवाल की है और चार गुना ज्यादा राहुल गांधी की है . देश के इन सभी विपक्षी नेताओं की सभी रेटिंग को जोड़ भी दिया जाए तो ये सब के सब मिल के भी तीस फीसदी तक ही पंहुचते हैं. और इतने गर्दिश में होने के बाद भी नरेंद्र मोदी की रेटिंग आज भी चालीस फीसदी है इस सवाल पर.

अब आप ये पूछेंगे कि जब ऐसा है तो राजनैतिक रूप से नरेंद्र मोदी को खतरा क्या है जो वो परेशान हो जाएं ? नरेंद्र मोदी की सबसे खराब समय की रेटिंग भी जब बाकी सभी से अच्छी है तो इसमे ऐसा भयावह क्या है ? दरअसल देश की जनता से जब हम ये पूछते हैं कि आपकी ज़िंदगी और देश क्या सही रास्ते पर है , तब पिछले सात सालों में बहुत से लोगों ने ये भले ही बोला हो कि उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी में कई तकलीफें हैं , लेकिन बड़ी तादाद में तब भी लोग यही बोलते थे कि देश सही दिशा में जा रहा है .

आज ठीक उसी सवाल पर पर लगभग अस्सी फीसदी लोग कह रहे हैं कि उनको फिलहाल कुछ भी सही रास्ते पर चलता नहीं दिख रहा है. और इतना ही नहीं बल्कि घनघोर आशावादी की छवि रखने वाली भारत की जनता अपनी धीर गंभीर खामोशी से ये भी कह रही है कि आने वाले समय में उनको सब ठीक होने की उनको कोई उम्मीद भी नहीं है .

कोरोना भयावह नहीं है . इस उम्मीद का खत्म होना भयावह है.

(यशवंत देशमुख सी वोटर इंटरनेशनल के संस्थापक-निदेशक हैं.विचार व्यक्तिगत हैं)


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