नई दिल्ली. आप एक विख्यात फ्रांसीसी वायरोलॉजिस्ट हैं, जिन्होंने 1983 में ह्यूमन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस (एचआईवी) की सह-खोज की थी और जिन्हें साल 2008 में फिजियोलॉजी या मेडिसिन में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. और फिर, सदी-में-एक-बार होने वाली वैश्विक महामारी के प्रकोप के बीचो-बीच, आप भारतीय व्हाट्सएप पर सुर्खियां बनाना शुरू कर देते हैं जहां आपके नाम से चलाया गया सन्देश साफ़ तौर पर कह रहा है कि ‘उन लोगों के बचने की कोई संभावना नहीं है, जिन्होंने किसी भी रूप में (कोविड) वैक्सीन लगवाया है.’
यह कोई दिमागी फितूर कतई नहीं है; बल्कि यह ल्यूक मॉन्टैग्नियर की सच्ची कहानी है, जिन्होंने हाल के वर्षों में, काल्पनिक ‘वैज्ञानिक मनोवृत्ति’ की तरफ से नाटकीय तरीके से मोड़ ले लिया है और जो अब टीकाकरण, होम्योपैथी और हाल ही में, कोविड -19 के बारे में निराधार दावों को बढ़ावा देने के लिए सुर्खियां बटोर रहें है.
उन्होंने वास्तव में वह सब कुछ नहीं कहा जैसा कि व्हाट्सएप संदेश में उनके द्वारा कहे जाने का दावा किया गया है और इस फेक फॉरवर्डेड मैसेज को कई लोगों ने सिरे से खारिज भी कर दिया है. लेकिन 88 वर्षीय मॉन्टैग्नियर ने दुनिया के इस महामारी की चपेट में आने के बाद से और उससे पहले भी कई असत्यापित दावे जरूर किए हैं.
पिछले साल अप्रैल में, जब नॉवेल कोरोनवायरस के बारे में लोगों के पास बहुत कम जानकारी थी, मॉन्टैग्नियर ने एक फ्रांसीसी समाचार चैनल को दिए एक साक्षात्कार में दावा किया था कि ‘कोरोनावायरस के जीनोम में एचआईवी के तत्वों की उपस्थिति है और यहां तक कि ‘मलेरिया के रोगाणु’ के तत्व के होने की भी अत्यधिक संभावना है. ऐसा उन्होंने यह आरोप लगाते हुए कहा कि यह एड्स के खिलाफ एक टीका तैयार करने की कोशिश का परिणाम था.’
हालांकि, लगभग उसी समय, उन्होंने यह भी दावा किया कि कोविड -19 वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी द्वारा एक मानव निर्मित वायरस था – एक परिकल्पना जिसने अब काफी बल पकड़ लिया है लेकिन जिसकी सत्यता अभी भी प्रमाणित नहीं हो पायी है.
इससे पूर्व, उन्होंने ‘डीएनए एमिट्स इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक वेव्स’ (डीएनए से विद्युत चुम्बकीय तरंगे निकलती हैं) जैसे विवादास्पद सिद्धांतों का भी समर्थन किया, और एंटी-वैक्सर्स (वैक्सीन विरोधियों) को विश्वसनीयता प्रदान करने की कोशिश की. नोबेल पुरस्कार जीतने के एक साल बाद ही उन्होंने दावा किया था कि एक ‘अच्छी प्रतिरक्षा प्रणाली’ एड्स से बचाने के लिए पर्याप्त है और उन्होंने ‘जल की अपनी स्मृति होने’ के उस बदनाम से सिद्धांत का भी समर्थन किया था जिस पर होम्योपैथी का सारा आधार निर्भर करता है.
साल 2017 में, मॉन्टैग्नियर तब वैज्ञानिक समुदाय के कोपभाजन भी बने जब उन्होंने कुछ टीकों को अनिवार्य बनाने के लिए फ्रांसीसी सरकार की निंदा की और यह जताया था कि ऐसा करना ‘अगली पीढ़ी को थोड़ा-थोड़ा करके जहर देने’ जैसा है.’
इसके बाद, 106 वैज्ञानिकों ने उन्हें एक खुला पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था: ‘हम, चिकित्सा जगत के शिक्षाविद, यह स्वीकार नहीं कर सकते कि हमारा ही एक साथी अपने नोबेल पुरस्कार विजेता होने का दुरूपयोग अपने ज्ञान/ विशेषज्ञता के क्षेत्र से बाहर के खतरनाक स्वास्थ्य सम्बन्धी संदेश फैलाने के लिए कर रहा है.’
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खोई हुई विश्वसनीयता
मॉन्टैग्नियर का जन्म 18 अगस्त 1932 को फ्रांसीसी कम्यून ऑफ चाब्रिस में हुआ था. उन्होंने साल 1953 में विज्ञान में स्नातक डिग्री हासिल की और फिर साल 1932 में पोइटियर्स और पेरिस के विश्वविद्यालयों से चिकित्सा की उपाधि प्राप्त की. इसके बाद 1972 में वे पेरिस में पाश्चर संस्थान में एक शोध वैज्ञानिक के रूप में शामिल किये गए. यहीं पर उन्होंने साल 1983 में अपने साथी वैज्ञानिक फ्रेंकोइस बर्रे-सिनौसी के साथ एचआईवी की खोज की.
अंततः उन्हें साल 2008 में इसी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. लेकिन मॉन्टैग्नियर ने उस समय के आसपास ही अपनी विश्वसनीयता खोना शुरू कर दिया था और अनुदान के लिए उनके आवेदनों को अस्वीकार कर दिया जाने लगा, जिससे उनके पास अपने काम को आगे बढ़ाने के लिए पैसे नहीं बचा.
अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस को 2010 के एक साक्षात्कार में, उन्होंने दावा किया कि वह ‘बौद्धिक आतंक से बचने’ के लिए यूरोप छोड़ कर चीन जा रहे है जहां वे उन विद्युत चुम्बकीय तरंगों का अध्ययन करेंगे जो उनके अनुसार ‘विभिन्न रोगजनकों के अत्यधिक क्षीण डीएनए’ द्वारा उत्सर्जित होते हैं.
उन्होंने कहा, ‘मुझे अब यहां (फ्रांस में) एक सार्वजनिक संस्थान में काम करने की भी अनुमति नहीं है. मैंने अन्य स्रोतों से धन के लिए आवेदन किया है, लेकिन मुझे सब जगह से ठुकरा दिया गया है.’
एक साल पहले, मॉन्टैग्नियर ने दो विवादास्पद शोध अध्ययन प्रकाशित किए थे, जिनमें से एक में उन्होंने दावा किया था कि ‘जल (पानी) डीएनए और अन्य अणुओं से विद्युत चुम्बकीय छाप के माध्यम से जानकारी ग्रहण कर सकता है.’ यह अध्ययन उस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था जिसके संपादकीय दल में वे भी हैं. मॉन्टैग्नियर के अध्ययन से दो दशक पहले, एक अन्य फ्रांसीसी वैज्ञानिक जैक्स बेनवेनिस्ट ने लिखा था कि ‘पानी बहुत उच्च स्तर पर पतला होने पर भी यौगिकों (कंपाउंड्स) की ‘स्मृति’ को बरकरार रख सकता है.’
मॉन्टैग्नियर के पेपर ने स्विस इम्यूनोलॉजिस्ट एलेन डी वेक को ‘हैरान-परेशान’ कर दिया, जबकि एंडी लुईस – जो एक ब्लॉग द क्वैकोमीटर को होस्ट करते है – ने साइंस इनसाइडर को लिखे एक ईमेल में कहा था ‘यह क्लासिक पैथोलॉजिकल साइंस है जहां चिकित्सकों द्वारा दुहराए न जा सकने वाले प्रयोगों के शोर में चारों ओर उन सब विषयों के मामले में विभिन्न परिकल्पनाओं का समर्थन करने के लिए खोज-बीन की जाती है जिनमें उनकी विशेषज्ञता है ही नहीं और इस तरह इन क्षेत्रों में पूरी तरह से सुस्थापित वैज्ञानिक सिद्धांतों का मजाक उड़ाया जाता है.
साल 2010 में जर्मनी में लिंडौ नोबेल पुरस्कार विजेताओं की एक बैठक को संबोधित करते हुए, मॉन्टैग्नियर ने परोक्ष रूप से होम्योपैथी के प्रति समर्थन व्यक्त किया था.
तब उन्हें द हफिंगटन पोस्ट (अब हफपोस्ट) द्वारा यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि ‘मैं यह नहीं कह सकता कि होम्योपैथी हर मामले में सही है. पर अब मैं जो कह सकता हूं वह यह है कि तत्वों को उच्च स्तर पर पतला करने की क्रिया – उच्च तनुकरण- (जो होम्योपैथी में बड़े पैमाने पर प्रयुक्त होती है) सही है. किसी तत्व का उच्च तनुकरण कुछ खास बात नहीं है. वे ऐसी जल संरचनाएं हैं जो मूल अणुओं की नकल कर लेती हैं.’
उसका वर्तमान पता ठिकाना स्वतंत्र रूप से सत्यापित नहीं किया जा सकता है और इंटरनेट पर भी उनके बारे में बहुत कम विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध है.
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