लद्दाख में सेनाओं की वापसी के मामले में गतिरोध जारी है. यह चीन की दगाबाजी की एक और मिशाल साबित हो सकती है. भारत को पहले भी काफी अनुभव हो चुका है कि चीन समय काटने के लिए समझौते करके किस तरह हमें धोखा देता रहा है. डोकलम संकट का समाधान करने के लिए 2018 में समझौता किया गया और उसके बाद डोकलाम के बाकी पठार पर किस तरह फौजी कब्जा किया गया यह अभी भूला नहीं है. इससे हमें सावधान हो जाना चाहिए था कि लद्दाख के कैलास सेक्टर में सामरिक रूप से बेहतर स्थिति से भारत को हटने के चीनी प्रस्ताव के साथ खतरा जुड़ा है और चीन समय काटने की चाल चलकर भारत को दबाव में डाले रखेगा.
चीन-अमेरिका भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के व्यापक परिप्रेक्ष्य के तहत लद्दाख में जो सैन्य चालें चली जा रही हैं उन पर गौर किया जाए तो चीन के रणनीतिक क्रियाकलापों का मतलब स्पष्ट हो जाता है. चीन की महत्वाकांक्षाओं के कारण जो भू-राजनीतिक मजबूरियां पैदा हो रही हैं वे अब रहस्य नहीं रह गई हैं. शी जिनपिंग का दावा है कि चीन और अमेरिका अब समान ताकत वाले देश हैं, और कुछ ही समय में चीन अमेरिका को आर्थिक रूप से पीछे छोड़ देगा. कुछ चीनी दावे तो यह भी हैं कि तकनीकी क्षेत्र में भी वह अमेरिका को पीछे छोड़ देगा. इसके साथ ही चीन का यह भी मानना है कि भारत उसकी महत्वाकांक्षाओं में रोड़े अटका सकता है. लेकिन यह तभी होगा जब अमेरिका और भारत की दोस्ती समुद्री क्षेत्र से जुड़ी भौगोलिक वास्तविकता का लाभ उठा लेती है और वैश्विक तथा क्षेत्रीय भू-राजनीतिक बिसात पर वर्चस्व बनाने के चीनी मंसूबों को खतरा पहुंचाती है.
चीन को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए भारत की भौगोलिक निधि और अमेरिका जैसी नौसैनिक शक्तियों के साथ उसकी गहरी दोस्ती को कमजोर करना जरूरी है. चीन अब तक भारत को इस उपमहादेश में सीमित करने और पाकिस्तान का इस्तेमाल करने की रणनीति पर चलता रहा है. चीन की कल्पित भू-राजनीतिक मजबूरी को ही भारत उससे निबटने का आधार बना सकता है. लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे नीतिकार इस बड़ी तस्वीर को देख नहीं पाते.
चीन के लिए दांव नाकाम
भारत की रणनीति अंततः 2005 में बदली, जब अमेरिका-भारत असैनिक परमाणु समझौता हुआ. इससे पहले, भारत अमेरिका-भारत रक्षा संबंध समझौते पर दस्तखत कर चुका था जिसने समुद्री सुरक्षा, मानवीय सहायता/आपदा राहत, और आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के क्षेत्रों में रक्षा सहयोग के लिए प्राथमिकताएं तय कर दी थी. इस परिवर्तन को चीन के उस रणनीतिक दावे से बल मिला था, जो इसकी सैन्य, खासकर समुद्री सुरक्षा क्षमताओं में वृद्धि में, और इसका जवाब देने के लिए अमेरिका द्वारा अपनी योजनाओं में भारत को शामिल करने के रूप में प्रकट हुआ.
जब तक इन समझौतों पर दस्तखत हुए, भारत को साफ पता लग गया था कि चीन की राष्ट्रीय ताकत, खासकर इसकी आर्थिक मजबूती का सामना समान हित वाले देशों के सहयोग से मिलकर करना होगा.
भारत ने अमेरिका और चीन के साथ सहयोग बढ़ाने की दोहरी नीति अपनाने की कोशिश की. चीन के साथ सहयोग के हमारे प्रयासों के कारण अमेरिका के साथ सहयोग से संबंधित कई फैसलों को रोकना पड़ा. चुनौती यह थी कि अमेरिकी प्रयासों में शामिल होते हुए भी हम एक बड़े खेल में स्वतंत्र खिलाड़ी की भूमिका में दिखें. लेकिन यह दिखावा जून 2020 में गलवान में खत्म हो गया, जिसके कारण चीन और भारत के बीच आपसी विश्वास को बड़ा झटका लगा. लेकिन इसके बाद भी, राजनीतिक-सैन्य मोर्चे पर भारत ने एक अहम सामरिक बढ़त दांव पर लगा दी और चीन पर भरोसा किया कि लद्दाख में उसने समझौते की जगह एक बातचीत में जो वादे किए उन्हें पूरा करेगा. राजनीतिक नेतृत्व द्वारा यह बहुत जोखिम भरा दांव था, जो नाकाम हो गया दिखता है.
किसी भी अनिश्चित राजनीतिक परिदृश्य में देशों को दांव लगाने पड़ते हैं. भारत के राजनीतिक गणित का जो विशाल फ्रेमवर्क है उसमें बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था ही लक्ष्य हो सकती है. भारत को जो दांव खेलने हैं उनमें वह अब देर नहीं कर सकता. अमेरिका ने शीतयुद्ध के दौरान और उसके बाद चीन पर दांव खेला. पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि यह दांव विफल रहा, चीन अमेरिका को धोखा देने में सफल रहा और ऐसी शक्ति बन गया जो अब उसके वर्चस्व को खत्म करने को तैयार है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति और रणनीतिक मामलों में यह कोई नयी बात नहीं है. दांव अक्सर विफल होते हैं लेकिन असली बात यह है कि उसकी भरपाई कैसे की जाती है. भारत ने भी चीन पर दांव लगाया और विफल रहा. अब इसकी भरपाई के लिए जो कदम उठाया जाना है उसमें भारत को अमेरिका और चीन के साथ अपने संबंधों पर दांव लगाना पड़ेगा. उदाहरण के लिए, इसका अर्थ यह भी होगा कि भारत को रूस के साथ अपने उन संबंधों पर भी दांव लगाना होगा, जो अमेरिका-रूस संबंधों के भावी स्वरूप को छूते हैं. फिलहाल चीन-रूस और भारत-रूस संबंधों के जो रणनीतिक आधार हैं उनके मद्देनजर ऐसा जोखिम उठाया जा सकता है.
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भारत को यह दांव खेलना चाहिए
हमें यह याद रखना चाहिए कि रणनीतिक स्वायत्तता का अर्थ यह है कि भारत भू-राजनीतिक परिदृश्य के अपनी आकलन के आधार पर रास्ता चुनने की अपनी क्षमता को कायम रखे और इसे विस्तार दे. साझा हितों की रक्षा के लिए दूसरों के साथ सहयोग का मतलब अपनी रणनीतिक स्वायत्तता खोना नहीं है, हालांकि निश्चित ही यह एकतरफा मामला नहीं है. सहयोग के स्वरूप से बहुत फर्क पड़ता है. भारत ने सहयोग के जिन समझौतों पर दस्तखत किए हैं उनमें से अधिकतर में संयुक्त कार्रवाई के लिए आपसी सहमति को साझा एवं आवश्यक सिद्धान्त माना गया है.
रणनीतिक मामले में, अमेरिका के साथ तीन ‘फाउंडेशनल’ समझौते—‘लेमोआ’ (2016), कॉमकासा’ (2018), और ‘बेका’ (2020)—पहले किए गए राजनीतिक समझौतों और संयुक्त बयानों को लागू करने के लिए हैं. भारत ने ‘बेका’ और ‘क्वाड’ पर जो फैसले किए उनमें लद्दाख मसले का जरूर प्रभाव रहा होगा. ऐसे समझौते जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, ब्रिटेन के साथ भी किए गए हैं. साफ है कि भारत-चीन संबंधों में गिरावट इन समझौतों की वजह रही. जो बाइडन सरकार ने ‘क्वाड’ में जान फूंकने में जरा भी देर नहीं की और आपसी सहयोग का आधार विस्तृत किया. अफगानिस्तान से अमेरिकी की वापसी भारत-अमेरिका संबंध में से पाकिस्तान को पहलू को कमजोर करेगी.
अब भारत-चीन संबंध के संदर्भ में राजनीतिक गणित को मजबूत करने की जरूरत है. चीन के मामले में हमारी पहल को एक चीज प्रभावित कर सकती है, वह है लद्दाख में फौजी टक्कर के बाद हासिल राजनीतिक आत्मविश्वास. भारत उत्तरी सीमा पर अपनी तैयारे में कोई कोताही नहीं कर सकता, भले ही सैन्य तैयारियां पर कोविड महामारी के आर्थिक नतीजों का असर लंबे समय तक महसूस किया जाए.
पाकिस्तान भारत को अस्थिर करने के लिए उसे ‘हजार घाव’ देने की अपनी घोषित रणनीति पर अब तक कायम रहा है. अब भारत को चीन-पाकिस्तान की गहरी साठगांठ के लिए तैयार रहना चाहिए, क्योंकि वे भारत के खिलाफ ऐसी रणनीति जारी रखेंगे. इस द्विपक्षीय खेल में चीन के पास भारत से ज्यादा पत्ते हैं. लेकिन वास्तविक दुनिया में महत्वपूर्ण यह भी है कि चीन के दोस्त के मुक़ाबले दुश्मन ज्यादा हैं. भारत के दोस्त ज्यादा है इसलिए विभिन्न दायरों में सदभाव को सहयोग में बदलने का दांव भारत को जरूर खेलना चाहिए. योजना और तैयारी के लिए सहयोग जरूर लेना चाहिए, लेकिन भारत को आपसी रिश्ते को टकराव या जंग में बदलने के लिए तैयार रहना पड़ेगा.
राष्ट्रहित सर्वोपरि
विभिन्न दायरों में चीन-पाकिस्तान की उग्र कार्रवाइयां वैज्ञानिक तथा तकनीकी तरक्की तथा मनुष्य द्वारा उसका बेजा फायदा उठाने के कारण कई तरह के रूप ले सकती हैं. इस साठगांठ को विभिन्न दायरों में अपना काम करने से रोकने के लिए भारत को क्रमिक कार्रवाई और जवाबी कदम उठाना चाहिए. सैन्य चुनौती के अलावा अर्थव्यवस्था के सामरीकरण, साइबर, तकनीकी, अंतरिक्षीय, सूचना क्षेत्र आदि में चुनौतियों की उम्मीद रखनी चाहिए. कम समय के अंदर विनाश या नुकसान के विपरीत, उनकी प्रत्यक्ष व परोक्ष ऑपरेटिंग तकनीक एक समय के अंदर कमजोर कर सकती है. तैयारियां और जवाबी कारवाई ऐसी हों जिनसे चीन का मकसद पूरा न हो. उसका मकसद इस उपमहादेश में भारत को कमजोर करना है.
चीन और पाकिस्तान से भारत का टकराव यूरो-एशिया के महादेश में है, जिसमें रूस भी अहम भूमिका निभाता है. भारत को इस सबसे लगभग अकेले निबटना होगा. रणनीतिक सहयोगियों में साझा हितों के टकराव के कारण सहयोग का स्वरूप सुरक्षा के क्षेत्र में काफी अलग हो सकता है.
नरेंद्र मोदी सरकार ने आंतरिक मामलों में कई दांव खेले हैं. नोटबंदी, अनुच्छेद 370, और कुम्भ मेला इसके कुछ उदाहरण हैं. इन दांवों में विफलता की भरपाई करने के प्रयासों को कोविड महामारी के विनाशकारी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रभावों से बड़ी चुनौती मिलेगी. लेकिन विकास और सुरक्षा से संबंधित चुनौतियों से निबटने की भारत की बुनियादी क्षमता को सोचे-समझे राजनीतिक जोखिम के जरिए मजबूती दी जा सकती है, बशर्ते यह जोखिम संकीर्ण दलगत राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर देशहित में लिया जाए. राजकाज में दांव जरूर खेले जाने चाहिए लेकिन उनका वास्तविक मकसद लोगों की भलाई होना चाहिए.
(ले. जन. प्रकाश मेनन (रिटा) स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम, तक्षशिला संस्थान, बेंगलुरू के निदेशक, और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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