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Wednesday, 20 November, 2024
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महामारी के बीच सेना के शीर्ष डॉक्टर को हटाना सही नहीं, क्यों DGAFMS को सशस्त्र बलों के अधीन होना चाहिए

डीएमए और सीडीएस के गठन के साथ सशस्त्र बल सेवा महानिदेशालय को तुरंत ही सशस्त्र बलों के आधीन कर देना चाहिए.

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महामारी की दूसरी प्रचंड लहर के बीच भारत के सैन्य प्रतिष्ठान खासकर सशस्त्र बलों की चिकित्सा बिरादरी में दिल्ली के आर्मी बेस अस्पताल के कमांडेंट मेजर जनरल वासु वर्धन को हटाए जाने को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. इस घटनाक्रम ने भारत के सिविल-सैन्य रिश्तों में दरार को ऐसे समय उजागर किया है, जब वायरस से लड़ने के लिए देश को एक एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है.

मेजर जनरल वर्धन के सेना के रिसर्च एंड रेफरल अस्पताल में एक ‘सेकंड ऑफिसर’ के तौर पर हुए तबादले ने हैरानी पैदा कर दी क्योंकि वो रिटायरमेंट की कगार पर थे और उनकी सिर्फ अगस्त तक सेवा बाकी थी. वर्धन, जिन्हें सैन्य चिकित्सा बिरादरी में एक बहुत सक्षम अधिकारी माना जाता है, एक पल्मोनॉलजिस्ट हैं- ऐसी चिकित्सा विधा के विशेषज्ञ, जो भारत में कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई की अगुवाई कर रहे हैं.

ऐसे समय, जब कोविड के भारी बोझ से निपटने में अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए सशस्त्र बल सेवानिवृत्त सैन्य डॉक्टरों को वापस बुला रहे हैं, सेना ने वर्धन के तबादले को ‘नियमित’ करार दिया है. लेकिन सेना के लोग इसपर यकीन नहीं कर रहे. वो जानते हैं कि ये बदलाव कहीं से भी नियमित नहीं है.

इस मुद्दे पर अपने दूसरे बयान में सेना ने कहा कि मेजर जनरल वर्धन का तबादला ‘एचआर प्रबंधन प्लान’ के तहत किया गया, हालांकि प्रशासन को देखने के अलावा डॉक्टर वर्धन मरीज़ों का इलाज भी कर रहे थे. ऐसे कदम को उचित ठहराने के लिए इतनी सफाई दी गई, जो निश्चित रूप से अनियमित लगती है. ये देखते हुए कि वो तीन महीने में रिटायर हो रहे हैं, सेना ने कहा कि उनके डिप्टी, ब्रिगेडियर संदीप तरेजा भी अस्पताल से कहीं और भेजे जाएंगे क्योंकि उन्हें मेजर जनरल की रैंक पर पदोन्नत कर दिया गया है.

सेना ने कहा, ‘ये उस प्रतिष्ठान के हित में नहीं होगा, जो कोविड मरीज़ों का इलाज कर रहा है’. बयान में आगे कहा गया कि एक अन्य अधिकारी, मेजर जनरल एसके सिंह को बेस अस्पताल का कमांडेंट नियुक्त किया गया है, ‘ताकि इस चुनौती भरे समय में अस्पताल में शीर्ष स्तर पर पर्याप्त ओवरलैप और निरंतरता बनी रहे’.

उनका तबादला क्यों किया गया, इसे लेकर बहुत सारी अटकलें लगाई जा रही हैं जिनमें से कुछ तो बिल्कुल अविश्वसनीय हैं. मैं ऐसे आरोपों/ स्पष्टीकरणों में नहीं जाउंगा क्योंकि ये सब महज़ अटकलें और अफवाहें हैं.

वर्धन के तबादले के पीछे कुछ भी कारण रहे हों, दो चीज़ें निश्चित हैं- ये कदम कहीं से भी नियमित नहीं है और ये किसी ‘एचआर प्रबंधन प्लान’ का हिस्सा नहीं था.


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एक समस्यात्मक प्रशासनिक पदानुक्रम

आमतौर पर ये माना जाता होगा कि सेना की मेडिकल कोर वर्दीधारी कर्मियों को रिपोर्ट करती होगी लेकिन सच्चाई ये है कि सशस्त्र बल सेवा महानिदेशालय (डीजीएएफएमएस) रक्षा विभाग को रिपोर्ट करता है, जिसका प्रमुख रक्षा सचिव होता है. विडंबना ही है कि जो मेडिकल विंग, सशस्त्र बलों के स्वास्थ्य का ध्यान रखती है, वो सिविलियन प्रशासन को रिपोर्ट करती है.

भारत में अब चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) के सचिव के पद शुरू हो गए हैं, इसलिए डीजीएएफएमएस का पद, जो तीन-स्टार प्राप्त अधिकारी होता है, उसे सिविलियन ढांचे से हटाकर सशस्त्र बलों के प्रशासन के आधीन कर देना चाहिए.

ये डॉ बीसी रॉय कमिटी थी, जिसने 1947 में सिफारिश की थी कि तीनों चिकित्सा सेवाओं और उनसे संबंधित तीनों सेवाओं के चिकित्सा अनुसंधान का एकीकरण कर दिया जाना चाहिए. कमिटी ने सुझाव दिया था कि तीनों सेवाओं की तीन चिकित्सा शाखाएं होनी चाहिए और तीनों चिकित्सा सेवाओं का एक सुप्रीम कंट्रोलर होना चाहिए- सशस्त्र बल चिकित्सा सेवा महानिदेशक (डीजीएएफएमएस)- जो सेना की चिकित्सा ज़रूरतों के मामले में राष्ट्रपति अथवा रक्षा मंत्री का सलाहकार होना चाहिए.

एक तरह से अपने आप में ये पहला ट्राई सर्विस कमांड था जिसे रक्षा मंत्रालय के तहत रखा जाना था, चूंकि ये किसी एक सेवा प्रमुख के आधीन नहीं आ सकता था.


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DGAFMS को सेना के आधीन लाएं

डीएमए और सीडीएस के गठन के साथ ही डीजीएएफएमएस को तुरंत ही सशस्त्र बलों के आधीन कर दिया जाना चाहिए था. जब रक्षा सचिव और नव-गठित डीएमए के बीच कार्यों का बंटवारा किया गया, तो मेडिकल कोर को उससे बाहर रखा गया. सिविलियन नौकरशाही ने सशस्त्र बलों की मेडिकल विंग पर अपना नियंत्रण बरकरार रखा, भले ही उन्होंने रोज़मर्रा के सभी मामले डीएमए को सौंप दिए. सेना को अपत्ति जताते हुए चिकित्सा सेवाओं के हस्तांतरण की भी मांग करनी चाहिए थी.

राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार ले. जन. प्रकाश मेनन (रिटा.) ने दिप्रिंट के लिए लिखे अपने कॉलम में कहा है: ‘ये एक खुला हुआ रहस्य है कि संरचनात्मक निकटता की वजह से समय के साथ-साथ उच्च सैन्य-चिकित्सा बिरादरी ने रक्षा मंत्रालय के सिविलियन सत्ता केंद्रों के साथ पारस्परिक और मधुर संबंध बना लिए हैं. ऐसा माना जाता है कि सिविलियंस को दिल्ली के प्रीमियर रिसर्च एंड रेफरल (आर एंड आर) अस्पताल में चिकित्सा सेवा मुहैया कराई जाती है, जो ज़्यादातर अनाधिकृत होती है. इसके एवज़ में तैनातियों, पदोन्नतियों और समयपूर्व सेवानिवृत्ति की मंज़ूरी का खयाल रखा जाता है.’

अगर डीजीएएफएमएस को सशस्त्र बलों के आधीन लाया गया, तो इसका विरोध होगा. एएफएमएस निदेशालय में बहुत से लोग, उन्हें डीएमए/ सीडीएस के आधीन लाए जाने पर आपत्ति जताएंगे. आपत्ति का एक आधार, जैसा कि अब रिटायर हो चुके एक सैन्य चिकित्सा अधिकारी ने मुझे बताया, ये है कि इस नई व्यवस्था में डीजीएएफएमएस स्वतंत्र नहीं बन पाएगा. मेरी समझ में नहीं आ रहा कि यहां, ‘स्वतंत्रता’ से क्या मुराद है, चूंकि डीजीएएफएमएस अभी भी रक्षा सचिव को रिपोर्ट करता है. यहां मैं जान बूझकर रक्षा मंत्री नहीं कह रहा हूं क्योंकि सीडीएस और सेवा प्रमुख भी उन्हीं को रिपोर्ट करते हैं और वो सर्वप्रमुख हैं. इसलिए, चाहे वो रक्षा सचिव हो या सीडीएस, अंतिम फैसला रक्षा मंत्री का ही होता है.

डीजीएएफएमएस में यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में एक और दलील ये दी जाती है कि अगर रिपोर्टिंग बॉस को बदलकर सचिव डीएमए/ सीडीएस कर दिया जाता है, तो पदानुक्रम के मामले में ये एक अवनति होगी क्योंकि रक्षा सचिव हैसियत में डीएमए सचिव से ऊपर होता है.

हां, इसमें कोई शक नहीं कि नए वरीयता क्रम में अगर ये लागू हो जाता है, तो इससे अलग समस्याएं होंग, लेकिन मेरे तर्क का मुख्य आधार ये है कि एक ऐसा विभाग जिसके ऊपर लड़ाई के मैदान और शांति के समय सैनिक के स्वास्थ्य का ज़िम्मा होता है, उसे सेना के ही आधीन होना चाहिए. चिकित्सा मामलों में नीति निर्धारण से लेकर तैनातियों और पदोन्नतियों तक प्रशासनिक नियंत्रण डीएमए/ सीडीएस के पास होना चाहिए.

सैन्य हलकों में ऐसी बहुत सी कहानियां हैं, जिनमें चिकित्सा अधिकारियों की तैनातियां, तबादले और तरक्की, ‘अच्छे संबंधों’ से प्रभावित होती है, जैसा कि ले. जन. प्रकाश मेनन (रिटा.) बताते हैं.

मैं ये नहीं कह रहा हूं कि सेना के तहत सब कुछ अच्छा होता है. सेना की अपनी समस्याएं हैं लेकिन अपने मेडिकल कोर का नियंत्रण उनके अपने हाथ में होना चाहिए.


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मेजर जनरल वर्धन का तबादला क्यों सही नहीं है

मेजर जनरल वर्धन के तबादले पर सवाल क्यों उठ रहे हैं, उसके पीछे भी कई कारण हैं.

अगर ये मान भी लिया जाए कि अधिकारी में आपात स्थिति में कथित रूप से प्रशासनिक कुशलता का अभाव है, तब भी उनके अचानक तबादले को उचित नहीं ठहराया जा सकता, खासकर जब उनके रिटायर होने में सिर्फ कुछ महीने शेष थे और लखनऊ में उनकी मां के कोविड ग्रस्त होने और अंत में गुज़र जाने के बाद भी वो लगातार अपने काम में लगे हुए थे.

एलएसी गतिरोध एक मिसाल है कि सेना किस तरह पहले से तैयारी करके सुनिश्चित करती है कि व्यक्ति के अचानक बदलने से कोई व्यवधान पैदा न हो. जब पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ बातचीत की अगुवाई कर रहे 14 कोर कमांडर हरिंदर सिंह को आईएमए भेजा जाना था, तब ले. जन. पीजीके मेनन को पहले से वहां भेज दिया गया और पूरी तरह कमान संभालने से पहले उन्होंने भारत-चीन कोर कमांडर स्तर की कम से कम दो बैठकों में हिस्सा लिया. बेस अस्पताल के मामले में भी कुछ इसी तरह का बंदोबस्त किया जा सकता था.

मेजर जनरल वर्धन के तबादले पर ध्यान न जाता, अगर इस समय कोविड न चल रहा होता. लेकिन यह समय महत्वपूर्ण है और इसलिए सैन्य हलकों में इसपर सवाल उठाए जा रहे हैं.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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