केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ से राज्य की कानून व्यवस्था पर एक रिपोर्ट तलब की है, जहां विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस की जीत के बाद हिंसा के मामले सामने आए. पहले उसने राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी थी लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला.
भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के कई घरों और दुकानों पर कथित रूप से हमले किए गए, यहां तक कि शपथ ग्रहण के फौरन बाद राज्यपाल ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सलाह दी कि बंगाल में चुनाव के बाद फैली हिंसा के मुद्दे पर तुरंत ध्यान दें.
कायदे से, राज्य का कार्यभार लेने के बाद ममता बनर्जी को पहला काम ये करना चाहिए था कि तत्काल अतीत को भूलकर ज़्यादा बड़े विरोधी कोविड-19 महामारी के खिलाफ लड़ने में लग जातीं. लेकिन उनका पहला फैसला, जैसा कि राज्यपाल धनखड़ ने दावा किया, ये आदेश जारी करना था कि हिंसा के बारे में राज्यपाल को कोई रिपोर्ट नहीं भेजी जाएगी. इससे साफ संकेत मिलता है कि वो केंद्र के साथ एक टकराव का रुख इख्तियार कर रही हैं. और एक कटुतापूर्ण चुनाव के बाद, जो भारत की राजनीति का एक दुर्भाग्यपूर्ण मानक बन गया है, बीजेपी को भी इसकी अपेक्षा करनी चाहिए थी.
बीजेपी के बहुत से उम्मीदवार, जिन्होंने ये चुनाव लड़ा, नए चेहरे थे और ‘बंगाल की विशेष राजनीतिक संस्कृति’ में पूरी तरह रचे बसे नहीं थे. इसलिए ये उनका नौसिखियापन ही था कि वो चुनावों के बाद पश्चिम बंगाल में शांतिपूर्ण स्थिति की अपेक्षा कर रहे थे. उनमें से बहुत से लोग फौरन ही अपने घरों के सुरक्षित माहौल में दिल्ली या कहीं और लौट आए हैं. उनमें से कुछ सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और उन्होंने उन जगहों पर चल रही हिंसा की निंदा की है, जो करीब एक सप्ताह पहले तक उनके चुनाव क्षेत्र थे.
उन्हें वहीं रुककर अपने मतदाताओं और समर्थकों को उनकी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करना चाहिए था. अभी भी बहुत देर नहीं हुई है कि ये ‘पैराशूट नेता’ जल्दी से अपने चुनाव क्षेत्रों में जाएं और अपने लोगों के बीच रहें. लेकिन उनमें बहुत से लोग पश्चिम बंगाल से बाहर धरना देकर सुर्खियों में रहने से संतुष्ट दिखाई पड़ते हैं.
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बंगाल में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति
पश्चिम बंगाल का इतिहास रहा है कि वहां की राजनीति में सत्ता के मामलात, बाहुबल और हिंसा से तय किए जाते हैं. बंटवारे से पहले के दंगे, नोआखली घटना और आज़ादी के बाद की हिंसा, बंगाल के अतीत के दामन पर लगे कुछ दाग हैं. वाम मोर्चे के तीन दशकों से अधिक के लिए बंगाल पर कब्जा करने से पहले, जिसकी शुरूआत 1977 विधानसभा चुनावों से हुई, कांग्रेस पार्टी कम्युनिस्टों के हाथों व्यापक हिंसा का शिकार बनी.
1960 के दशक के उत्तरार्ध और 70 के दशक के पूर्वार्ध में ज़मीदार वर्ग, कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ संगठित हमलों के कारण तब के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने भी राजधानी कोलकाता (तब कलकत्ता) को छोड़ दिया और इस तरह सियासी ज़मीन मार्क्सवादियों के हवाले कर दी. कांग्रेस केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह दे दी. पार्टी न तो पलटकर खुद लड़ी और न ही अपने कार्यकर्ताओं के बचाव में आई. नतीजा ये हुआ कि कम्युनिस्टों को बंगाल में पूरी आज़ादी मिल गई और उन्होंने वहां अगले 34 वर्षों तक लगातार राज किया.
उसके बाद जो हुआ वो इतिहास का दोहराव था, बस पार्टियों की स्थिति बदल गई. इस बार बारी थी ममता बनर्जी की अगुवाई में तृणमूल कांग्रेस के सड़कों पर उतरने का और उसने कम्युनिस्टों के साथ वही किया, जो उन्होंने कांग्रेस के साथ किया था.
नंदीग्राम पूरी तरह से युद्ध का मैदान बन गया. वहां पर एक केमिकल हब स्थापित करने के खिलाफ आंदोलन के दौरान, नंदीग्राम हिंसक झड़पों का केंद्र बन गया. 2008 में सत्तारूढ़ सीपीएम को शिकस्त मिली और टीएमसी को अपनी एक पहली चुनावी जीत हासिल हुई. ममता बनर्जी जो नंदीग्राम की राजनीति के केंद्र में थीं और जिन्होंने सड़कों पर संघर्ष की अगुवाई की- 2011 में सत्ता में आ गईं. विडंबना ये है कि इस बार उसी नंदीग्राम ने उन्हें खारिज कर दिया और शुभेंदु अधिकारी को चुन लिया, जो पिछले साल तक टीएमसी के विधायक थे.
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केरल जैसा नहीं है पश्चिम बंगाल
बंगाल में हिंसा- सीपीएम और आरएसएस कैडर के बीच उन हिंसक झड़पों और बदले के प्रतिशोध में की गई हत्याओं की याद दिलाती है, जो कुछ साल पहले तक केरल में देखी गईं थीं. 1970 के दशक में बड़ी संख्या में सीपीएम कैडर आरएसएस की तरफ खिंचने शुरू हो गए थे. सीपीएम को डर था कि बड़ी संख्या में कैडर के जाने से केरल में बीजेपी का जनाधार मज़बूत हो सकता है. जम कर लड़ाई, बमों से हमले और जवाबी हत्याएं, रोज़ की घटनाएं बन गईं. विडंबना ये है कि नासमझी में की गई हिंसा के पीछे की विचारधारा से सीपीएम या बीजेपी को कोई राजनीतिक लाभ नहीं पहुंचा.
केरल की स्थिति के विपरीत, पश्चिम बंगाल की हिंसा का कोई वैचारिक आधार नज़र नहीं आता. कम्युनिस्ट पार्टी या बीजेपी की तरह टीएमसी किसी मज़बूत राजनीतिक सिद्धांत में विश्वास नहीं रखती. ये कांग्रेस के विकल्प के रूप में शुरू हुई, जिसने भारी हिंसा के सामने अपनी राजनीतिक ज़मीन, सीपीएम के लिए खाली कर दी. ममता बनर्जी, जिन्होंने सीपीएम को बाहर किया, वो अब रणनीतिक रूप से हिंसा का इस्तेमाल करते हुए भाजपा को ज़रा सी भी राजनीतिक ज़मीन नहीं देना चाहेंगी.
हालांकि इस बार शायद ये रणनीति उनके लिए काम नहीं करेगी क्योंकि जिन तरकीबों पर वो गौर कर रही होंगी, बीजेपी भी उन सब में उतनी ही पारंगत है. एक कैडर-आधारित पार्टी होने के नाते, जिसके साथ संबद्ध संगठनों का एक मज़बूत आधार है और जिसके पास नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई नेता है, उस स्थिति में बीजेपी राजनीतिक प्रबंधन में कहीं ज़्यादा बेहतर है. इसके अलावा, जो पार्टी 2016 के विधानसभा चुनाव में तीन सीटों से पांच वर्ष में (2021) 77 सीटों तक पहुंच गई, उसके लिए अब टीएमसी को उखाड़ फेंकना सिर्फ समय की बात है. ये काम चुनौती भरा ज़रूर है लेकिन असंभव नहीं है.
सभी राजनीतिक पार्टियों, विशेषकर टीएमसी को अपने कैडर को नियंत्रित करना होगा और पश्चिम बंगाल में चल रही हिंसा को तत्काल थामना होगा.
सीमावर्त्ती राज्य होने के नाते पश्चिम बंगाल को बहुत सी दूसरी उपलब्धियां हासिल करनी हैं, ना कि अपने आपको गरीब सूबों की सूची में जोड़ देना है. ममता बनर्जी को केंद्र सरकार के प्रति अपना रवैया बदलना होगा और केंद्र को भी पश्चिम बंगाल के साथ यही करना होगा ताकि सहकारी संघवाद की भावना बनी रहे.
(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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