शीर्ष अदालत पहले ही इस स्थिति को राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल बता चुकी है.
कोरोना महामारी ने पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक अपने विकराल रूप से जनता को बेहाल कर रखा है. कोरोना से संक्रमित हजारों मरीज ऑक्सीजन और दवाओं के अभाव में दम तोड़ चुके हैं. स्थिति इतनी गंभीर है कि कोरोना संक्रमण के कारण जान गंवाने वाले मरीजों के शव तक उनके परिजनों को नहीं मिल पा रहे हैं.
समूचे देश में अस्पतालों में ऑक्सीजन, दवाओं और बिस्तरों का भारी संकट पैदा हो गया है और इस वजह से कोरोना मरीजों की सड़कों और अस्पतालों के बाहर मौत हो रही है. श्मशानों और कब्रिस्तानों में जगह की कमी हो गयी है. श्मशान भूमि के बाहर शवों को लेकर एम्बुलेंस की कतारें नजर आ रही हैं.
ये दृश्य किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक हिला देने के लिये पर्याप्त है. मरीजों के परिजनों के देश के सभी प्रमुख शहरों में ऑक्सीजन की तलाश में गैस के सिलेंडर लिये भटकते देखा जा सकता है.
महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों में कोरोना महामारी के तांडव को देखते हुये यही सवाल मन में उठ रहा है कि अगर यह स्थिति आपातकाल लागू करने के लिये उपयुक्त नहीं है तो फिर किन परिस्थितियों को आपातकाल माना जाये जिनमें मरीजों की पीड़ा का निदान हो सके.
उच्चतम न्यायालय मौजूदा स्थिति को पहले ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपात स्थिति करार दे चुका है जिसमें केन्द्र और राज्य सरकारों से कंधे से कंधा मिलाकर इस विकराल चुनौती का सामना करने की अपेक्षा की जा रही है. न्यायालय ने कोरोना महामारी से निपटने के लिये केन्द्र सरकार से राष्ट्रीय योजना भी मांगी है.
यह भी पढ़ें : क्या ‘लाटसाहब’ के पास जादुई छड़ी है कि घुमाते ही कोरोना से बेहाल दिल्ली की स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हो जाएंगी
कोरोना संक्रमण की बीमारी पर काबू पाने और मरीजों को अस्पतालों में उपचार मिलने में आ रही परेशानियों तथा ऑक्सीजन की समस्या के मद्देनजर पहले ही उच्चतम न्यायालय और कुछ उच्च न्यायालयों ने स्थिति का स्वत: संज्ञान लिया है. उच्च न्यायालय ने तो दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल सरकार की समूची व्यवस्था पर ही सवाल उठाते हुये कहा है कि अगर वह मरीजों को सही तरीके से ऑक्सीजन और दवायें आदि मुहैया नहीं करा सकती है तो फिर क्यों नहीं इसकी जिम्मेदारी केन्द्र को सौंप दी जाय.
न्यायपालिका ने केन्द्र और राज्य सरकारों को कई महत्वपूर्ण निर्देश भी दिये हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि इन निर्देशों के बावजूद स्थिति में संतोषजनक सुधार नहीं हो रहा है.
देश में स्वास्थ्य सेवायें बुरी तरह चरमरा गयी हैं. अस्पतालों में ऑक्सीजन गैस के अभाव में मरीज दम तोड़ रहे हैं तो महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में अक्सर ही कोविड अस्पतालों में अग्निकांड हो रहे हैं जिनमें दम घुटने से मरीजों की जान जा रही है. इसके अलावा, अस्पतालों और घरों में कोरोना संक्रमित लोगों की सांसें टूट रही हैं.
ऐसी स्थिति में यह सवाल उठ रहा है कि क्या देश में कोरोना महामारी से निपटने के लिये आपातकाल लागू करने की स्थिति आ गयी है.
कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने लगभग समूचे भारत में दहशत पैदा कर दी है. महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, ओडीशा, पंजाब, पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, हरियाणा, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश तक सभी राज्य अपने यहां अलग-अलग अवधि के लिये सख्त लॉकडाउन या कर्फ्यू लगा रहे हैं.
देश में लागू लॉकडाउन के दौरान वित्तीय गतिविधियां लगभग ठहर गयी हैं. महानगरों से श्रमिकों का पलायन हो रहा है. कामगारों के इस तरह से पलायन से कोरोनावायरस संक्रमण को दूर-दराज के इलाकों तक फैलने का खतरा बढ़ता जा रहा है.
सरकार ने कोरोना की वैक्सीन लगाने का अभियान शुरू किया है लेकिन पर्याप्त संख्या में वैक्सीन उपलब्ध नहीं होने की वजह से इस अभियान में दिक्कतें आ रही हैं. सरकार अस्पतालों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं करा पा रही है. आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है.
कोरोना वैश्विक महामारी से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने के लिये केन्द्र और राज्य सरकारें युद्ध स्तर पर काम कर रही हैं. सरकार ने नागरिकों से घरों के भीतर ही रहने का अनुरोध किया है और इस पर सख्ती से अमल के लिये उसने जहां कई तरह की पाबंदियां लगायी हैं, वहीं जनता में भरोसा पैदा करने के लिये उसने अनेक राहतों की भी घोषणा की है.
सवाल उठता है कि क्या ऐसी स्थिति में सरकार देश में आर्थिक आपातकाल या स्वास्थ्य आपातकाल लागू कर सकती है? स्वास्थ्य आपातकाल लागू करने के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं है लेकिन जहां तक आर्थिक आपातकाल का सवाल है तो संविधान के अनुच्छेद 360 में इस तरह का प्रावधान है.
संविधान के अनुच्छेद 360 के अंतर्गत देश में आर्थिक आपातकाल लागू किया जा सकता है, लेकिन ऐसा उन्हीं परिस्थितियों में किया जा सकता है जब राष्ट्रपति को लगे कि देश या इसके किसी राज्य में आर्थिक संकट बना हुआ है और इसकी वजह से भारत के वित्तीय स्थायित्व या साख को खतरा है तो वह आर्थिक आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं.
हालांकि, उच्चतम न्यायालय को नहीं लगता कि कोविड-19 महामारी से उत्पन्न स्थिति की आड़ में आर्थिक मंदी के नाम पर देश में आपातकाल लगाया जा सकता है.
न्यायालय ने अक्टूबर, 2020 में स्पष्ट रूप से कहा था, ‘भारत सरकार ने आपदा प्रबंधन कानून, 2005 के प्रावधानों के तहत कदम उठाये हैं. हालांकि, इसने (कोविड) देश या इसके भूभाग के किसी हिस्से की सुरक्षा को इस तरह से प्रभावित नहीं किया है, जिससे देश की शांति और अखंडता को खतरा हो.’
न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय ख्ंडपीठ ने एक अक्टूबर, 2020 को Gujarat Mazdoor Sabha & Anr Versus The State of Gujarat मामले में दो टूक शब्दों में कहा था कि कोविड-19 की वजह से आर्थिक मंदी ‘आंतरिक अशांति’ के दायरे में नहीं आती, जिससे देश की सुरक्षा को खतरा हो. शीर्ष अदालत ने कहा था कि महामारी की वजह से उत्पन्न आर्थिक संकट ने निश्चित ही शासन के समक्ष अभूतपूर्व चुनौतियां खड़ी कर दीं हैं, जिनका राज्य सरकार को केन्द्र के साथ तालमेल करके समाधान खोजना होगा.
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा था कि जब तक आर्थिक संकट इतना गंभीर नहीं हो कि इससे भारत की सार्वजनिक व्यवस्था और देश या इसके भूभाग के किसी हिस्से की सुरक्षा को खतरा हो तब तक ऐसे अधिकारों का सहारा नहीं लिया जा सकता, जिनका इस्तेमाल कानून के तहत ‘बमुश्किल’ किया जाना हो.
न्यायालय ने ये टिप्पणियां गुजरात सरकार की उन अधिसूचनाओं को निरस्त करते हुये की थीं जिनमें कोविड-19 महामारी के दौरान फैक्ट्री कानून की धारा पांच के तहत सार्वजनिक आपात स्थिति से संबंधित थीं और इसके अंतर्गत ही फैक्ट्रियों को श्रमिकों के प्रति कतिपय दायित्व का पालन नहीं करने की छूट दी गयी थी.
शीर्ष अदालत का कहना है कि 1978 के 44वें संविधान संशोधन के बाद संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू करने के अधिकार को काफी सीमित कर दिया गया है. इसी संशोधन में ‘आंतरिक गड़बड़ी’ के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द शामिल किये गये थे.
न्यायालय ने अपने फैसले में इस तथ्य का जिक्र किया था कि देश में राष्ट्रपति ने तीन बार संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत अधिकारों का इस्तेमाल करके आपातकाल लागू किया था. पहली बार 1962 में भारतीय सीमा में चीन के आक्रमण के दौरान ऐसा हुआ था जिसे 1968 में वापस लिया था. यही नहीं, 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के समय भी भारत पर विदेशी हमला होने के आधार पर आपातकाल लगाया गया था. इसके बाद राष्ट्रपति ने 25 जून, 1975 को देश में आंतरिक अशांति की वजह से भारत की सुरक्षा को उत्पन्न गंभीर खतरे के मद्देनजर आपातकाल लागू किया गया था जिसे मार्च, 1977 में हटाया गया था.
बहरहाल, अब देखना यह है कि क्या उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की फटकार और उसके निर्देशों के बाद केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के रवैये बदलेंगे या फिर केन्द्र सरकार कोरोना महामारी को राष्ट्रीय आपदा घोषित करके आपातकाल लागू करने या इसी तरह का कोई अन्य कदम उठायेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें : क्या हत्या, आत्महत्या और बलात्कार के मामलों में अपनी ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघ रहा है मीडिया