मुफ्त की एक कीमत होती है जो समय पर ना चुकाई जाए तो उसका ब्याज सांसें चुकाती हैं. इसी तरह प्रकृति शोषण आधारित इमारतों का एक सीटूसी यानी कास्ट टू कंट्री होता जो पीढ़ियों को चुकाना होता है. बानगी देखिए हलांकि नारों में डूबा समाज इस उदाहरण को एक व्हाट्स्एप जोक से ज्यादा अहमियत नहीं देता– सुप्रीम कोर्ट की एक आकलन कमेटी ने एक पेड़ की सालाना कीमत 74,500 रुपए तय की, सालाना इसलिए क्योंकि एक पेड़ द्वारा जीवनभर दी जाने वाली सेवाओं की कीमत तय करना हमारी क्षमता के बाहर है, कमेटी ने कहा कि हर साल पेड़ की कीमत में 74,500 रुपए जुड़ जाएंगे. इस 74500 रुपए में ऑक्सीजन की कीमत 45 हजार रुपए सालाना है और उर्वरक की कीमत 20 हजार है, बाकी बची हुई कीमत लकड़ी की है. अब इस कीमत को करीब 20 लाख से गुणा कर लीजिए, यह 20 लाख उन पेड़ों की संख्या है जो पिछले दो महीनों में जंगलों में लगी आग की भेंट चढ़ चुके हैं.
वास्तव में वनलाइनर के चौंकाने वाले दौर की चमक धमक से सुप्रीम कोर्ट भी प्रभावित है, इसलिए उसने इस तरह की कमेटी का गठन किया जबकि सब जानते हैं कि सत्ता, व्यवस्था और समाज इस आइने में अपना चेहरा नहीं देखते. दरअसल, पश्चिम बंगाल में पांच रेलवे ओवर ब्रिज को बनाने के लिए 300 पेड़ काटने की जरूरत थी, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा पेड़ों के मूल्यांकन के लिए कमेटी बनाई गई थी. और जैसा कि तय है- पेड़ भी कटेंगे, ओवर ब्रिज भी बनेंगे और कोई भी संबंधित पक्ष इस मूल्यांकन को मानने को तैयार नहीं हैं.
यह भी पढ़ें : भारत के कई राज्यों में जंगल जल रहे हैं लेकिन जिम्मेदार संस्थाओं को ‘दैवीय चमत्कार’ का इंतजार
इसी तरह बांध जैसी इमारत बनाते समय ईंट और गारे के मूल्य के आधार पर परियोजना मूल्य निकाला जाता है, कुछ कीमत पर्यावरणीय विस्थापन के नाम पर भी जोड़ी जाती है लेकिन इसमें बेशकीमती जड़ी-बुटियों, विशाल पेड़ों, जलीय जीवन की गणना नहीं की जाती, क्योंकि सब जानते हैं ऐसी कोई भी कोशिश इस धारणा को धरती पर ला देगी कि पनबिजली सस्ती होती है. गंगा में रहने वाली मछलियां और वह वायरस भी जो गंगा के पानी को सड़ने नहीं देता, हमारी आपकी तरह ही ऑक्सीजन पर ही निर्भर करता है और जब गंगा को बिजली बनाने के लिए टनल में डालते हैं तो उस पानी में रहने वालों की हालात ऐसी ही होती है जैसे किसी छोटे बच्चे को अंधेरी कालकोठरी में डाल दिया गया हो.
अब एक नजर अर्थ डे के अंतरराष्ट्रीय उवाच पर डाल लीजिए. ‘Restore our Earth’ थीम पर बात करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत 2030 तक अपने ऊर्जा उत्पादन का 40 फीसद नॉन फोसिल यानी सौर, वायु, हाइड्रो जैसी स्वच्छ उर्जा से प्राप्त करेगा. पर्यावरण के बारे में आंकड़ों में बात करने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इसका ऑडिट आसान नहीं होता और लक्ष्य पाने की समय सीमा दशकों में तय की जाती है. भविष्य की बात करते हुए यह भी नहीं बताना पड़ता कि कोयले को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने वाली कितनी इकाइयों को अपनी क्षमता बढ़ाने की अनुमति दे दी या फिर ऋषिगंगा, चमोली जैसी तमाम घटनाओं के बाद भी हाइड्रोपॉवर पर सरकार की निर्भरता बढ़ती जा रही है. सरकार इस पर बात भी करने को तैयार नहीं कि हाइड्रो पॉवर सही मायने में ग्रीन एनर्जी है ही नहीं.
‘Restore our Earth’ का पूरा वर्चुअल कार्यक्रम उस मोबाइल एप की तरह था जो बताता है कि आप जितनी देर अपना फोन नहीं छुएंगें उतनी ही देर तक आपके स्क्रीन पर पेड़ आकार लेता जाएगा और आप जैसे ही स्क्रीन टच करते हैं वह पेड़ गायब हो जाता है, फिर आप यह चेक करते हैं कि आपने कितने बड़े पेड़ का योगदान दिया है. कल को यह सुविधा भी दी जा सकती है कि आपके स्क्रीन ट्री के आधार पर ही आपको ऑक्सीजन क्रेडिट दिया जाएगा यानी जब कभी आपको स्वास्थ्य कारणों से ऑक्सीजन की जरूरत होगी, कंपनी आपको सप्लाई करेगी. जमीनी हकीकत से बेहद दूर इस कार्यक्रम में ‘back to basics’ नारा दिया गया.
जब तक नदी की रेत को नकदी फसल के तौर पर नहीं देखा गया था तब तक रेत का चुगान होता था यानी नदी के परंपरागत ज्ञान को जानने वाले रेत को बिना मशीनों के निकालते थे, इस तरह कि, नदी का बहाव क्षेत्र डिस्टर्ब ना हो लेकिन जैसे ही नदी को विकास की नजर लगी रेत की लूट मच गई. बैक टू बेसिक का मतलब खनन से दोबारा चुगान की ओर लौटना है, लेकिन सत्ता और उसे पोषने वाले कॉरपोरेट का बैक टू बेसिक थोड़ा अलग है.
इस बैक टू बेसिक को समझने में हाल ही में हुई एक कॉरपोरेट एक्टिविटी मदद करती है. हां, आप इसे आपदा में अवसर की तरह देखतें है तो यह आपका भोलापन है. स्टरलाइट वेदांता ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसे तमिलनाडु के तूतुकुड़ी में बंद कारखाने को दोबारा खोलने की अनुमति दी जाए ताकि वो वहां बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन उत्पादन कर सके और कोरोना के मरीजो तक ऑक्सीजन पहुंचा कर राष्ट्रसेवा कर सके. यह कारखाना दो साल पहले इसलिए बंद हो गया था क्योंकि कोर्ट ने उसे पर्यावरणीय नियमों के घोर उल्लंघन का दोषी पाया था. 2018 में पर्यावरणीय चिंताओं को लेकर इस कंपनी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलियां चलाईं जिसमें 18 लोगों की मौत हो गई थी. न्यायालय ने मेडिकल इमरजेंसी को देखते हुए जीवनरक्षा को प्राथमिकता दी है और वेदांता की राष्ट्रभक्ति पर भरोसा कर उसे कारखाना शुरू करने की अनुमति दे दी.
अब एक पेड़ की कीमत, बैक टू बेसिक और वेदांता की राष्ट्रभक्ति के परिप्रेक्ष्य में जंगल काटने के नियमों पर भी एक नजर डाल लीजिए- जिन जंगलों को काटा जाना होता है वहां पेड़ उसी को माना जाता है जो चार फीट तक तीस सेमी चौड़ा हो, इससे कमजोर को पेड़ ना मानकर बल्ली माना जाता है. लेकिन जब सरकार यह बताती है कि देश में वन क्षेत्र कितना बढ़ गया तो वह सारा इलाका गिन लिया जाता है जहां बड़े पैमाने पर पौधरोपण किया गया है. इस तथ्य को कोई मतलब नहीं रह जाता है कि ओडिसा के क्योंझर में जिन साल के वृक्षों को काटा गया है या जो पेड़ पिछले दिनों जल गए, उन्हे परिपक्व होने में 130 साल लगते हैं. साल के जंगल टाई और डाई प्रक्रिया से आकार लेते हैं. यानी उगते है, मरते हैं फिर उगते हैं. 10 हजार पेड़ मिलकर भी एक पीपल के पेड़ के बराबर ऑक्सीजन पैदा नहीं कर सकते.
प्रकृति के साथ की जा रही इस मनमानी डील की सीटूसी कभी तो निकालनी पड़ेगी, हम नहीं तो हमारे आसपास खेल रहे बच्चों को यह कीमत चुकानी ही पड़ेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें : ‘कैच द रेन’ की बजाए ‘कैच द रिवर’ कहना सही होगा, केन-बेतवा नदियों के भविष्य पर गहराया संकट