गुवाहाटी: ‘सच्चाई तो सच्चाई है,’ ये कहना था प्रतिबंधित विद्रोही गुट, युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (स्वतंत्र) या उल्फा (आई) के कमांडर-इन-चीफ परेश बरुआ का, जो अपनी ज़िंदगी की यादों के बारे में बात कर रहे थे.
दिप्रिंट के साथ एक अज्ञात नंबर से बात करते हुए, बरुआ ने अपने संस्मरण का नाम नहीं बताया, लेकिन ये ज़रूर कहा कि वो ‘एक महीने से कम, या 20 दिन में प्रकाशित हो जाएंगे’.
उन्होंने आगे कहा, ‘अगर उसमें सच्चाई नहीं है, तो लोग उसे नहीं मानेंगे. अगर वो कोई काल्पनिक जीवनी है, तो कोई उसे नहीं पढ़ना नहीं चाहेगा’. ‘तथ्यों को बयान करने का, मेरे हिस्से का काम पूरा हो चुका है. लेकिन दूसरे काम –जैसे प्रूफ रीडिंग और एडिटिंग- अभी चल रहे हैं’.
बरुआ, जो कभी ऑयल इंडिया के लिए फुटबॉल खेलते थे, और उन्हें उस समय असम का सबसे अच्छा गोलकीपर माना जाता था, 1981 में उल्फा में शामिल हो गए थे.
उल्फा 1970 के दशक के उत्तरार्ध, और 1980 के दशक के पूर्वार्ध में, उसी मंथन से वजूद में आई, जिसने विदेशियों के खिलाफ छह-वर्षीय असम आंदोलन (1979-1985) को जन्म दिया. इसके गठन युवाओं के एक छोटे से समूह ने मिलकर किया था, जो सशस्त्र आंदोलन में विश्वास रखते थे, और जिन्होंने नागा विद्रोहियों का अनुकरण किया था.
भारत से अलग होना उल्फा का घोषित लक्ष्य था, लेकिन वो लगातार अवैध अप्रवास के ख़िलाफ रही है, जो आज तक असम में एक गर्म मुद्दा बना हुआ है. पिछले कुछ सालों में, इसके एजेंडा में बहुत से दूसरे भी जुड़े हैं, जिनमें सशस्त्र सेना (विशेषाधिकार) अधिनियम (एएफएसपीए) भी शामिल है, जो -‘अशांत क्षेत्रों’ में सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए- सैनिकों को बल प्रयोग और गिरफ्तारी के व्यापक अधिकार देता है.
उल्फा पर उत्तरपूर्वी राज्य में हिंसा फैलाने के आरोप लगते रहे हैं, जिनमें फिरौती के लिए व्यवसाइयों का अपहरण, और सरकारी अधिकारियों की हत्या के अलावा, संचार व्यवस्था में बाधा उत्पन्न करने, और आर्थिक लक्ष्यों पर हमले आदि शामिल हैं.
हत्याएं और अवैध गतिविधियां 1990 में बढ़ गईं थीं, लेकिन सेना की तैनाती के बाद उनमें कमी आ गई- हालांकि छिटपुट हमले जारी रहे. 1987-90 के बीच संगठन अपने चरम पर था. नवंबर 1990 में, असम में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, और उल्फा पर ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम,1967, के तहत प्रतिबंध लगा दिया गया.
उल्फा (आई) हाल ही में सुर्ख़ियों में आई, जब दिसंबर में उसने क्विपो ऑयल एंड गैस इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड, जिसका मुख्यालय नई दिल्ली में हैं, के दो अधिकारियों का अपहरण कर लिया, जिन्हें बाद में इस महीने रिहा कर दिया गया.
ये गुट अभी भी, देसी असमी युवाओं को रोज़गार देने के लिए, व्यवसायिक समूहों, कंपनियों, और चाय बाग़ान को, चेतावनियां जारी करता रहता है.
बरुआ ने कहा कि वो ‘पिछले कुछ सालों में उल्फा के बारे में, तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने से परेशान रहे हैं’. उन्होंने कहा कि उनके संस्मरण ऐतिहासिक सच्चाई पर आधारित होंगे. उनका कहना था कि उन्होंने बहुत बेबाकी और सफाई के साथ ‘सच्ची कहानियां’ बताई हैं, और इसी वजह से हो सकता है कि ‘कुछ लोग इसे पसंद न करें’.
उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने इस पर पहले भी विचार किया था. तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता रहा है, और लोगों ने अलग अलग तरह से लिखा है- कुछ लोग बहुत कम जानते हैं, कुछ बहुत ज़्यादा जानते हैं, लेकिन सच्चाई कौन जानता है? मैं किसी हेकड़ी के साथ ये नहीं कह रहा हूं. मैंने सिर्फ तथ्यों को सामने रखने की कोशिश की है’.
उन्होंने बताया कि किताब के लिए, उन्होंने तीन महीने तक अपनी यादों को, रोज़ाना 4-5 घंटे ऑडियो टेप पर रिकॉर्ड किया.
उन्होंने कहा, ‘मैं कोई लेखक नहीं हूं. मैंने अपने संस्मरण रिकॉर्ड किए हैं, जो कोई भी उन्हें फिर से गढ़ने की कोशिश करेगा, वो मेरा ग़लत हवाला नहीं दे सकता’. उन्होंने आगे कहा, ‘अगर ऐसा होता है तो वो एक दुर्भाग्य होगा. सच्चाई सच्चाई ही रहनी चाहिए- ताकि असम के लोगों को पता चल सके, और उल्फा के इतिहास के साथ छेड़-छाड़ न हो’.
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‘क्रांति ख़त्म नहीं हुई है’
उल्फा का गठन 1979 में हुआ था, लेकिन ये ग्रुप 1980 के मध्य तक निष्क्रिय रहा. इसकी गतिविधियां 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद तेज हुईं, जब उन्हें असमी लोगों के संवैधानिक हितों की सुरक्षा के वादों पर, संदेह होना शुरू हो गया .
बरुआ उल्फा के दूसरी लहर के नेताओं का हिस्सा थे, जिसमें अरबिंद राजखोवा (रंजन राजकुमार), अनूप चेतिया (गोलप बरुआ), और नालबाड़ी से कुछ अन्य लोग शामिल थे, जिन्होंने समूह की कमान ऐसे समय संभाली, जब मूल नेतृत्व को या तो पुलिस ने पकड़ लिया, या वो ज़मीन पर आ गए.
विद्रोही समूह ने स्पष्ट रूप से राजनीतिक और सैन्य विंग्स को बांटा हुआ था. बरुआ कमांडर-इन-चीफ के तौर पर सैन्य विंग के मुखिया थे, जबकि राजखोवा राजनीतिक इकाई के प्रमुख थे.
बरुआ के अनुसार, जीवनी में उनके जीवन, उल्फा के गठन और क्रांति, उसके उतार और चढ़ाव, और संगठन की राह में आई बाधाओं का, विस्तार से वर्णन किया जाएगा. उसमें उनके बचपने की भी झलक होगी- किशोरावस्था से पूर्व के उनके दिमाग़ में क्या चलता था, और किन हालात में वो सशस्त्र संघर्ष में शामिल हुए थे.
बरुआ ने कहा, ‘बहुत से उल्फा नेताओं ने, जो अब उससे अलग हो गए हैं, संगठन के बारे में अलग अलग लोगों से बात की है, और इस बीच जो कुछ लिखा गया है, वो विवादास्पद है- उन्हें नहीं मालूम कि उल्फा का गठन कैसे हुआ, अंदर की कहानी, तमाम उतार-चढ़ाव जो किसी भी संगठन, इंसानी जीवन, या देश के सामने पेश आते हैं. हर किसी की राह हमेशा एक समान नहीं होती. मैंने इस सब के बारे में बात की है’.
‘मैंने अपने बचपन के बारे में भी बात की है. मैं कैसा था- क्योंकि वो भी एक अहम विषय है’. उन्होंने आगे कहा, ‘किन परिस्थितियों में आकर मैं क्रांति में शामिल हुआ. बहुत से लोगों ने मेरे बारे में लिखा है. मेरी जन्म तिथि भी ग़लत बताई गई है. मैंने किसी को सही नहीं किया, क्योंकि उस समय में एक मिशन की अगुवाई कर रहा था’.
बरुआ ने दिप्रिंट को बताया कि उनकी जीवनी में, सिर्फ 2010 तक की घटनाओं का ज़िक्र किया गया है. ये उससे दो साल पहले है, जब उल्फा में औपचारिक रूप से दो-फाड़ हो गए- एक के अगुआ अरबिंद राजखोवा थे, जो सरकार से बातचीत के पक्ष में थे, और दूसरे के बरुआ थे, जो बातचीत के खिलाफ थे.
सितंबर 2011 में, राजखोवा की अगुवाई वाले गुट ने, केंद्र और असम सरकार के साथ, ऑपरेशंस को स्थगित करने (एसओओ) के एक त्रिपक्षीय समझौते पर दस्तख़त कर दिए.
विभाजन के बाद बरुआ की अगुवाई वाले गुट ने, 2013 में अपना नाम बदलकर उल्फा (आई) रख लिया.
उन्होंने ये भी कहा, ‘इस जीवनी में मैंने उल्फा (आई) के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है- क्योंकि हमारी क्रांति जारी है, और ये अनिश्चित है. अपनी मौत तक, मैं इसे जारी रखूंगा…उससे पहले भी, हो सकता है कि मैं कुछ कर पाऊं. क्रांति अभी ख़त्म नहीं हुई है. तब तक, कुछ चीज़ें बताई नहीं जा सकतीं’.
ये पूछे जाने पर कि क्या वो मुख्यधारा में वापस लौट सकते हैं, बरुआ ने उसे ख़ारिज कर दिया. उन्होंने कहा, ‘अगर मेरे कुछ सिद्धांत नहीं होते, तो मैं सब कुछ छोड़ने की सोच सकता था. अपनी मौत तक, मैं अपने सिद्धांतों से दूर नहीं जाउंगा…सशस्त्र संघर्ष अहिंसा से अलग होता है. सुभाष चंद्र बोस ने जवाहरलाल नेहरू या महात्मा गांधी बनना पसंद नहीं किया’.
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‘असमी लेखकों ने संकलित किया’
बरुआ ने कहा कि किताब को शुरू में लेखक, पत्रकार, और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता, होमेन बोरगोहायन द्वारा लिखा जाना था, लेकिन बाद में किन्हीं कारणों से ये योजना पूरी नहीं हो सकी.
उन्होंने कहा, ‘मैंने ये ज़िम्मेदारी कुछ युवा लोगों को दी है, जो लिखने में दिलचस्पी रखते हैं. वो नए हैं लेकिन इससे उनकी हौसला अफज़ाई होगी’.
उन्होंने आगे कहा, ‘अंतिम संपादन असम के एक जाने-माने साहित्यकार द्वारा किया जाएगा. ऐसा मानना हास्यास्पद होगा कि हम विद्वतापूर्ण साहित्य से परिचित हैं…हम अपनी रणनीतियां बना सकते हैं, किताबें नहीं लिख सकते’.
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