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Tuesday, 19 November, 2024
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RSS के स्वयंसेवकों ने कैसे दो बार ‘दरबार साहिब’ को बचाया

संघ और सिखों का आरएसएस के आरंभ से ही आपस में अटूट और करीबी संबंध रहा है. स्वयंसेवकों ने विभाजन के समय बड़ी संख्या में हिंदुओं के साथ सिखों को भी सुरक्षित पाकिस्तान से भारत पहुंचाया और उनके पुनर्वास में भी मदद की.

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सिखों की सर्वोच्च संस्थाओं में अग्रणी शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया. यह विडंबना ही है कि संघ के खिलाफ ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें उन पर अन्य धर्मों में हस्तक्षेप का आरोप लगाया गया जबकि संघ के स्वयंसेवकों ने दो बार सिखों के पवित्र धार्मिक स्थल ‘दरबार साहिब ‘ की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी.

वास्तव में संघ और सिखों का आरएसएस के आरंभ से ही आपस में अटूट और करीबी संबंध रहा है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि स्वयंसेवकों ने विभाजन के समय बड़ी संख्या में हिंदुओं के साथ सिखों को भी सुरक्षित पाकिस्तान से भारत पहुंचाया और उनके पुनर्वास में भी मदद की.

1984 में सिख विरोधी दंगों के दौरान संघ के स्वयंसेवकों ने सिखों को सुरक्षा प्रदान की. पंजाब में आतंकवाद के दौर में संघ की मोगा स्थित शाखा पर आतंकी हमले में 21 स्वयंसेवकों का बलिदान हुआ.

सिखों और संघ के संदर्भ में अमृतसर में घटी उस ऐतिहासिक घटना का जिक्र विस्तार से जरूरी है जब संघ के स्वयंसेवक पवित्र ‘दरबार साहिब’ की रक्षा के लिए ‘मुस्लिम गुंडों और दंगाईयों’ के सामने अभेद्य दीवार बन कर खड़े हो गए.

माणिकचंद्र वाजपेयी और श्रीधर पराडकर ने अपनी पुस्तक ‘ज्योति जला निज प्राण की ‘ में 1947 में हुई इस घटना का विस्तृत वर्णन किया है.

उन्होंने लिखा, ‘6 मार्च की भयावनी रात अमृतसर के शेरांवाला गेट से सशक्त व संगठित मुसलमानों का समूह हरी वर्दीधारी नेशनल गार्ड्स के नेतृत्व में चौक फव्वारा की ओर बढ़ रहा था….आज उनका निशाना था प्रसिद्ध कृष्णा कपड़ा मार्केट तथा पावन दरबार साहब. ज्योंही हमलावर चौक फव्वारा पहुंचे उन पर चारों ओर से लाठियों, तलवारों, भालों, छुरों व बमों के प्रहार शुरू हो गए. हमलावरों ने देखा कि उन पर निक्करधारी स्वयंसेवक प्रहार कर रहे हैं. संघ के पिछले शौर्य प्रदर्शन से उनके उपर स्वयंसेवकों का आतंक था ही, अत: वे भागने लगे. इस प्रकार हिंदू वीरों ने संघ के नेतृत्व में मोर्चे को जीतकर कृष्णा मार्किट को ही नहीं वरन दरबार साहब पर आसन्न संकट को भी टाल दिया.’

एक बार पिटने के बाद दंगाईयों ने 9 मार्च को पुन: दरबार साहिब पर हमले की योजना बनाई. इसमें उनकी स्थानीय पुलिस से भी सांठगांठ थी क्योंकि उस समय अमृतसर के पुलिस बल में कोई इक्का-दुक्का ही हिंदू था. कमोबेश पूरा पुलिस बल मुस्लिम लीग की कठपुतली की तरह काम कर रहा था.


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वाजपेयी व पराडकर ने 9 मार्च की घटना का भी विस्तृत ब्यौरा दिया है. उनके अनुसार, ‘9 मार्च 1947 को कर्फ्यू के बावजूद मुस्लिम नेशनल गार्ड के नेतृत्व में हरी वर्दी व लौहटोपधारी जत्थे तीन ओर से दरबार साहब की ओर बढ़ने लगे. एक बड़ा जत्था लीग के शक्तिशाली दुर्ग कटरा कर्म सिंह की ओर से बढ़ रहा था, दूसरा जिहादी नारे लगाते हुए नमक मंडी की ओर से और तीसरा शेरांवाली दरवाजे की ओर से. सभी जत्थे शस्त्रधारी थे.’

‘उधर दरबार साहिब में सेवादारों के अतिरिक्त उस दिन परिसर में 100 के करीब निहत्थे यात्री भी फंसे हुए थे. कर्फ्यू के कारण बाहर जाना संभव नहीं था. गांव की ओर से सूचना पाकर आने वाले सिख जत्थों को सशस्त्र पुलिस बाहर रोक रही थी. लीग के साथ सांठगांठ कर उसने यह पक्की चौकसी कर रखी थी. दरबार साहब से पंजाब रिलीफ कमेटी के कार्यालय में फोन पर फोन आ रहे थे. उन्हें सूचना दी जा रही थी कि मुसलमानों के जत्थे दरबार साहिब की ओर बढ़ रहे हैं. पवित्र स्वर्ण मंदिर को खतरा पैदा हो गया है. ‘आप स्वयंसेवक सहायता को नहीं आएंगे क्या?’ संघ के कार्यालय प्रमुख दुर्गादास खन्ना बराबर उन्हें आश्वस्त कर रहे थे कि आप निश्चिंत रहें स्वयंसेवक पहुंच गए हैं तथा हर गली कूचे में उन्होंने मोर्चे जमा लिया है. पवित्र दरबार साहब को किसी भी कीमत पर आंच नहीं आने दी जाएगी. मुसलमानों को इस बार भी अच्छा मजा चखा दिया जाएगा.’

मुस्लिम जत्थे आगे बढ़ रहे थे परंतु स्वयंसेवक भी बेखबर व शांत नहीं थे. उनके नेतृत्व में मोर्चाबंदी कर ली गई थी. तरुण स्वयंसेवकों व अन्य जवानों को जिधर से भी हमलावर निकलें, उधर ही पत्थरों व सोडा वाटर की बोतलों की तेज बौछार करने को कहा गया था.

बाल स्वयंसेवकों को छतों पर उबलते तेल से भरे कड़ाहों पर तैनात किया गया था. घरों के नीचे गलियों में आते ही उन्हें हमलावरों पर गर्म तेल डालने को कहा गया था. हिंदू जनता के पास जो लाइसेंसी हथियार थे उन्हें भी पुलिस ने कर्फ्यू लगने के साथ ही जमा कर लिया था पर स्वयंसेवक निश्चिंत थे.

हमलावरों का नेतृत्व करने वाली पुलिस जवान भी इस भीषण प्रहार को नहीं सह पा रहे थे. उन्होंने फव्वारा चौक क्षेत्र में मार्ग से विचलित होकर मैदान छोड़ दिया, पर नमक मंडी की ओर से वे आगे बढ़ रहे थे. यहां भी वे छतों से मिसाइलों के समान आ रहे पत्थरों के सामने बहुत देर तक टिक न सके. खौलते तेल के कारण कई हमलावर अपनी आंखे खो बैठे व कई बुरी तरह झुलस कर या तो वहीं गिर पड़े या सिर पर पैर रख कर भाग खड़े हुए. अब नौजवानों ने उन पर प्रत्याक्रमण करना शुरू कर दिया.

‘उधर 6 मार्च को जो स्वयंसेवक दरबार साहब की रक्षा के लिए तैनात किए गए थे इस बार भी वही मोर्चा संभाले थे. उनकी वहां उपस्थिति से दरबार साहिब में फंसे यात्रियों का मनोबल ऊंचा उठा हुआ था. अब क्या था आक्रमणकारी सर पर पैर रखकर भाग रहे थे और हिंदू नौजवान उनका पीछा कर रहे थे. सारा शहर ‘हर हर महादेव ‘ और ‘सत श्री अकाल, जो बोले सो निहाल ‘ के नारों से गूंज रहा था.’

7 मार्च से 10 मार्च तक चले संघर्ष में पुलिस प्रशासन के सहयोग के बावजूद मुसलमानों की भारी क्षति हुई. इस प्रकार दूसरी बार दरबार साहब पर आया संकट स्वयंसेवकों ने पुन: टाल दिया.

(लेखक दिल्ली स्थित विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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