म्यांमार में शांतिपूर्ण लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सेना की हिंसा का स्तर बढ़ने के साथ ही स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है. दक्षिण-पूर्व एशिया में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कार्यालय के अनुसार, म्यांमार में 1 फरवरी को तख्तापलट की घटना के बाद से प्रदर्शनकारियों पर सुरक्षाबलों की गोलीबारी में 500 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जबकि इस दौरान करीब 2,600 लोगों को हिरासत में लिया गया है. ये स्पष्ट दिख रहा है कि इस बार म्यांमार की सेना आम नागरिकों को डराकर काबू में करने की अपनी क्षमता का शायद ठीक से आकलन नहीं कर पाई.
अपने ही नागरिकों के खिलाफ बेहिसाब हिंसा की सेना की नीति अतीत में कारगर रही थी, चाहे प्रदर्शनकारी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता और आम नागरिक रहे हों या धर्मनिष्ठ बौद्ध देश में सम्मान का पात्र माने जाने वाले बौद्ध भिक्षु.
तख्तापलट हुए अब दो महीने हो गए हैं लेकिन राजधानी नेपीडो सहित कई शहरों में बड़े पैमाने पर जनप्रदर्शनों का सिलसिला जारी है. सुरक्षा बलों की बर्बर हिंसा के खिलाफ भारी आक्रोश और गुस्से का माहौल है और जनता दमन के आगे घुटने नहीं टेकने के लिए दृढ़ संकल्प दिखती है.
इसके अलावा शासन, एजेंसियों और अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए म्यांमार की सेना जिन वर्गों पर निर्भर रही है, वे भी अब बड़ी संख्या में विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं. इस कारण कई इलाकों में शासन कार्य बाधित हुआ है. पहले से ही महामारी की मार से पस्त अर्थव्यवस्था पर इसका बहुत गंभीर असर पड़ा है. यदि राजनीतिक अस्थिरता जारी रहती है, या संकट और गहराता है, तो अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिर सकती है.
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जातीय समूहों की एकजुटता
इस बार के घटनाक्रम और अतीत के समान उदाहरणों के बीच एक और महत्वपूर्ण अंतर है. म्यांमार में राजनीति तीन पैरों पर केंद्रित है— सेना, बहुसंख्यक बर्मी समुदाय और करीब 17 जातीय समूह, जिनमें से कई अच्छी तरह से हथियारबंद हैं. यदि इनमें से दो पैर एक साथ आते हैं, तो तीसरा भारी दबाव में आ जाता है.
1990 के दशक की शुरुआत में, जब सेना ने चुनाव परिणामों को पलट दिया— उस समय भी नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी (एनएलडी) जीती थी— तो वह युद्ध विराम या हथियार डालने की एवज में शांति के समझौतों तथा अधिक स्वायत्तता की पेशकश कर विभिन्न जातीय समूहों को बेअसर करने में कामयाब रही थी. इन समझौतों को कराने में चीन ने म्यांमार की सेना का साथ दिया था, जिसके चीन-म्यांमार सीमा इलाके में सक्रिय वा और कोकंग जैसे जातीय समूहों के साथ मजबूत संबंध रहे हैं.
इस बार कई जातीय समूह एनएलडी और आंग सान सू ची के नेतृत्व के बारे में अपने संदेहों को परे रखते हुए सेना के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में भागीदारी कर रहे हैं. जातीय समूहों के सशस्त्र दस्तों और म्यांमार सेना के बीच संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही हैं. ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इन हथियारबंद जातीय दस्तों में कम से कम 1,00,000 तक लड़ाके शामिल होंगे. यदि देश की दो राजनीतिक शक्तियां परस्पर करीब आती हैं, तो सेना भारी दबाव में आ जाएगी.
बेशक, चीन के साथ अपने करीबी संबंधों के कारण वा और कोकंग जैसे जातीय समूहों ने अभी तक सतर्कतापूर्ण चुप्पी साध रखी है. लेकिन अन्य समूह न केवल सेना की आलोचना कर रहे हैं बल्कि वे अपने नियंत्रण वाले इलाकों में बर्मी मूल के कार्यकर्ताओं को पनाह भी दे रहे हैं. म्यांमार-थाइलैंड सीमा के साथ लगे इलाकों में करेन नेशनल यूनियन के खिलाफ हवाई हमलों से सेना की हताशा जाहिर होती और ये अन्य जातीय समूहों के लिए चेतावनी भी हैं.
वर्तमान में दो विपक्षी समूह सक्रिय हैं: मुख्यता एनएलडी के निर्वाचित सदस्यों वाली संसदीय प्रतिनिधित्व समिति (सीआरपी) और मुख्यतया जातीय समूहों की भागीदारी वाली राष्ट्रीयताओं की जनरल स्ट्राइक कमेटी (जीएससीएन).
सीआरपी जहां नवनिर्वाचित संसद के गठन और सू ची की रिहाई के लिए दबाव बना रही है, वहीं जीएससीएन का कहीं अधिक महत्वाकांक्षी राजनीतिक एजेंडा है. जीएससीएन वर्तमान में लागू 2008 के सेना प्रेरित संविधान को निरस्त कराना चाहती है और वह म्यांमार के विभिन्न जातीय समूहों को अधिक स्थानीय स्वायत्तता देने वाली एक नई संघीय व्यवस्था की पक्षधर है. वैसे, सीआरपी भी एक संघीय, लोकतांत्रिक, असैनिक राजनीतिक प्रणाली की आवश्यकता पर जोर दे रही है.
इस तरह की मांगें सेना के हितों के आड़े आती हैं. अतीत में जहां सेना शक्तिशाली जातीय समूहों द्वारा स्वायत्तता की मांग के मद्देनज़र बहुसंख्यक बर्मी लोगों की राष्ट्रीय एकता संबंधी चिंता का फायदा उठाया करती थी, इस बार ये दोनों प्रमुख राजनीतिक ताकतें अपने खिलाफ हो रही अंधाधुंध हिंसा के कारण परस्पर करीब आती दिख रही हैं.
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कितना असरदार है बाहरी दबाव?
1991 में सत्ता पर नियंत्रण के बाद से चीन और प्रमुख आसियान देशों के मौन समर्थन के कारण म्यांमार सेना बाहरी दबावों से अपेक्षाकृत बची रही है. 1990 के दशक के उत्तरार्ध में भारत ने भी सैन्य सरकार से संबंध जोड़ने का फैसला कर लिया था. जब तक म्यांमार की पूर्व (भारत), पश्चिम (थाईलैंड) और उत्तर (चीन) की सीमाएं खुली रहती हैं और पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बावजूद व्यापार जारी रहता है, सेना बाहरी दबावों की अनदेखी करते रह सकती है. अभी तक यही स्थिति है. लेकिन अब चीन, सिंगापुर, इंडोनेशिया और थाईलैंड के म्यांमार में विकसित अहम आर्थिक हितों पर दीर्घकालीन अशांति और बढ़ती हिंसा का असर पड़ने लगा है.
विशेष रूप से चीनी परियोजनाएं प्रदर्शनकारियों के हमलों का निशाना बन रही हैं, जिसके कारण चीन को सैन्य सरकार से अपनी परिसंपत्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग करनी पड़ी है. चीन विरोधी जनभावनाएं बढ़ रही हैं और इसे महत्वाकांक्षी चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता. चीन की ‘मलक्का दुविधा‘ के समाधान में म्यांमार की महत्वपूर्ण भूमिका है, जो उसे बंगाल की खाड़ी तक सीधी पहुंच सुलभ करा सकता है.
क्या चीन मौजूदा राजनीतिक संकट को हल करने में अधिक सक्रिय भूमिका निभाएगा? इसकी संभावना नहीं है क्योंकि चीन के इरादों को लेकर सेना के भीतर भी बहुत गहरा संदेह है. इस संदेह को सीमावर्ती इलाकों में सक्रिय कतिपय अहम जातीय समूहों के साथ चीन के संबंधों से बल मिलता है. क्या भारत की कोई भूमिका हो सकती है? म्यांमार में बढ़ती हिंसा पर चिंता व्यक्त करने और लोकतांत्रिक परिवर्तन के लिए समर्थन जाहिर करने वाले भारत का रवैया सतर्कतापूर्ण और ‘देखो और इंतजार करो’ वाला दिखता है.
भारत के पक्ष में एक और बात है. एक ओर जहां उसने म्यांमार के सैन्य नेताओं के साथ अच्छे संबंध बना रखे हैं, वहीं उसने एक हद तक एनएलडी का भी विश्वास अर्जित कर रखा है. भारत ने लोकतांत्रिक शासन के कलपुर्जों को कारगर बनाए रखने में एनएलडी की सहायता की और उसके क्षमता निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. आसियान देशों और शायद जापान के साथ मिलकर इस सद्भावना का इस्तेमाल प्रभावी साबित हो सकता है. शायद सेना अपने कदम वापस खींचने पर विचार करने के लिए तैयार हो और ऐसे प्रयासों से उसके लिए संकट खत्म करने का रास्ता निकल सकता है.
(श्याम सरन विदेश सचिव और म्यांमार में भारतीय राजदूत (1997-2001) रहे हैं. वह सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में वरिष्ठ अध्येता हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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