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Friday, 15 November, 2024
होममत-विमतअनुच्छेद-370 की सफलता से अंधी हो गई है BJP, अब उसे असलियत का सामना करना पड़ रहा है

अनुच्छेद-370 की सफलता से अंधी हो गई है BJP, अब उसे असलियत का सामना करना पड़ रहा है

राजनैतिक और चुनावी तौर पर काफी मजबूत स्थिति में होने के बावजूद भाजपा अपने तथाकथित साहसिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पा रही है, क्योंकि ये जन-हितैषी नहीं है.

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अगर भारतीय जनता पार्टी का कोई थीम सॉन्ग होता तो बहुत संभव था कि यह ब्रिटनी स्पीयर्स का ‘उप्स !…आई डिड इट अगेन ’ ही होता. भाजपा सार्वजनिक आलोचना या फिर किसी आसन्न चुनाव के मद्देनज़र अपने नीतिगत फैसलों को इतनी बार वापस ले चुकी है कि अब यह शर्मिंदगी का सबब बनने लगा है. इस बार यह पांच राज्यों के चुनाव थे जिन्होंने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को सुबह 7.54 बजे यह एहसास कराया कि उन्होंने कुछ चूक कर दी है— एक फैसला उनकी ‘नज़र में’ आए बिना ही ले लिया गया है.

अगर आपको ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह की सरकार दोनों सदनों में अपना बहुमत होने के कारण कोई भी कदम, खासकर अनुच्छेद 370 पर फैसले के बाद उठा सकती है तो एक बार फिर इस पर गौर करें.


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सामान्य कार्यप्रणाली

31 मार्च को वित्त मंत्रालय की वेबसाइट ने आर्थिक मामलों के विभाग की तरफ से जारी एक ‘ऑफिस मेमोरेंडम’ को अपलोड किया, जिसमें तमाम छोटी बचत योजनाओं पर ब्याज दरों में 40 से 110 बेसिस प्वाइंट की अच्छी-खासी कटौती किए जाने की सूचना दी गई थी. निर्मला सीतारमण ने अगली सुबह इस फैसले को यह कहते हुए पलट दिया कि इसे भूलवश जारी कर दिया गया था. हालांकि, शीर्ष नौकरशाहों ने पुष्टि की है कि ऐसे फैसले ‘ओवरसाइट’ नहीं हो सकते हैं क्योंकि इस तरह के निर्णय लेने की प्रक्रिया काफी चाक-चौबंद है.

एक वरिष्ठ अधिकारी की द इंडियन एक्सप्रेस से हुई बातचीत के मुताबिक, ‘छोटी बचत पर त्रैमासिक ब्याज दरें निर्धारित करने संबंधी फाइल उपनिदेशक से निदेशक, बजट के पास से लेकर संयुक्त सचिव या अतिरिक्त सचिव बजट और आर्थिक मामलों के विभाग के सचिव के पास तक जाती है. इस तरह ये दरें बजट डिवीजन के भीतर, आमतौर पर वित्त मंत्री की पूर्व जानकारी के साथ, तय की जाती हैं.’ जाहिर है, इस संबंध में पहले जारी फैसले ने मध्यम वर्ग को परेशान कर दिया था और इससे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए स्थितियां प्रतिकूल हो सकती थीं.

लेकिन यह पहला मौका नहीं है जब भाजपा ने ऐसा कुछ किया है. पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली की तरफ से लागू माल एवं सेवा कर (जीएसटी) में भी बाद में कई बार रोलबैक हुआ— टैक्स स्लैब से लेकर कर योग्य आइटम तक.

ऐसा ही एक आइटम था सैनिटरी पैड, जिसे ‘लग्जरी आइटम’ मानकर 12 फीसदी टैक्स लगाया गया था. इसने देशभर की महिलाओं को नाराज़ कर दिया, जिसके बाद शायद सरकार को एहसास हुआ कि अगर एक आवश्यक वस्तु सैनिटरी पैड पर टैक्स लगाया जाता रहा तो उसका ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ अभियान पर ही ये भारी पड़ जाएगा. देश में लड़कियों के बीच में स्कूल छोड़ने की प्रमुख वजहों में से एक मेंसट्र्युेशन भी है. इसके तुरंत बाद, अंतरिम वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने घोषणा की कि सैनिटरी पैड को टैक्स फ्री किया जाएगा. अंतत:, 178 वस्तुओं को 28 फीसदी के उच्चतम टैक्स स्लैब से बाहर किया गया और इसकी जरूरत समझने में मोदी सरकार को चार महीने का समय लगा.


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फिर एनआरसी-सीएए की बारी

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की प्रक्रिया पहली बार असम में शुरू की गई थी और गृह मंत्री अमित शाह की तरफ से इसे चुनावी बनाए जाने के बावजूद भाजपा इसको देशव्यापी स्तर पर विस्तारित नहीं कर पाई और इसका मुख्य कारण था नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) लागू होने के बाद दिसंबर 2019 में देशभर में इसके खिलाफ प्रदर्शन शुरू होना.

राजनैतिक और चुनावी तौर पर काफी मजबूत स्थिति में होने के बावजूद भाजपा अपने तथाकथित साहसिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पा रही है, क्योंकि ये जन-हितैषी नहीं है. और समस्या यह है कि उसने अपने ‘साहसिक’ फैसलों पर जन भावनाओं के आकलन करने के लिए जो मानक चुना वह है— कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करना. इस निर्णय पर पूरा देश खुशी से झूम उठा था क्योंकि भारत के लोग— उनमें से बहुसंख्यक ऐसा चाहते थे. भाजपा ने इस जनभावना से यह पुष्ट होने का भ्रम पाल लिया कि लोग उसके किसी भी फैसले पर भाजपा समर्थक रुख अपनाएंगे. यह स्पष्ट रूप से एक गलतफहमी थी.


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रियलिटी चेक

सार्वजनिक तौर पर परामर्श के बिना भाजपा की तरफ से लाए गए तीन कृषि कानूनों पर तीखी प्रतिक्रिया इसका एक प्रमुख उदाहरण है. भाजपा चाहे जितना यह तर्क देती रहे कि इस आंदोलन के पीछे ‘भारत-विरोधी’ तत्वों का हाथ है, लेकिन सच यही है कि किसान इन कृषि कानूनों से खुश नहीं हैं क्योंकि यह उन्हें उनके भविष्य को लेकर आशंकित करता है. यही हाल एनआरसी का है.

दस्तावेजों के अभाव और व्यापक अशिक्षा के कारण लोगों में डर है कि अपनी नागरिकता साबित कैसे करेंगे. हालांकि, दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा वाले तमाम लोग यह दावा करते हैं कि केवल मुसलमान ही एनआरसी को लेकर असुरक्षित महसूस कर रहे हैं लेकिन असम में एनआरसी की अंतिम सूची से बाहर हुए 19 लाख लोगों में से 12 लाख हिंदू थे. इसलिए, नागरिकता साबित करने के बाबत एक आम धारणा नोटबंदी के दौरान लोगों के अनुभव के जैसी ही होनी चाहिए— कई किलोमीटर लंबी कतारों में खड़े रहना, इसे लेकर आशंकित होना कि उनके पास जो दस्तावेज हैं क्या वह उनकी नागरिकता साबित करने के लिए पर्याप्त होंगे.

यदि भाजपा को अब भी ये भान नहीं हो पाया है कि उसकी नीतियां जन-हितैषी प्रतीत नहीं होती हैं तो उसे इस पर आत्म विवेचना करनी चाहिए कि क्यों उसके खुद के मंत्रालय महीनों से वित्त मंत्रालय से आग्रह कर रहे हैं कि पीएसयू के निजीकरण की दिशा में नहीं बढ़ना चाहिए.

सरकार रणनीतिक क्षेत्रों में ‘एकदम न्यूनतम भागीदारी’ के पक्ष में हैं जबकि गैर-रणनीतिक क्षेत्रों को पूर्ण निजीकरण, विलय या फिर उन्हें बंद कर दिए जाने के लिए चिह्नित किया गया है. सबसे बड़ी चिंता तो रक्षा विनिर्माण को लेकर है क्योंकि हमेशा सरकारी स्वामित्व में रहे एक रणनीतिक क्षेत्र को लेकर अब नियंत्रण मुक्त करने और/अथवा निजीकरण का रास्ता अपनाया जा रहा है. सरकार का कहना है कि इससे घरेलू उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा लेकिन खुद रक्षा मंत्रालय ने गुणवत्ता मानकों को लेकर चिंता जताई है और बताया है कि कैसे यह निजीकरण राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में नहीं होगा.

कहा जाता है कि सीखने से हासिल अनुभव ज्ञान बढ़ाता है और व्यवहार में बदलाव लाता है. अब समय आ गया है कि मोदी सरकार अपने ‘साहसिक नीतिगत कदमों’ के बारे में फिर से विचार करना शुरू करे.

(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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