बोर्ड परीक्षाएं स्कूल के छात्रों और अभिभावकों के लिए समान रूप से तनावपूर्ण होती हैं. विशेष रूप से मैकाले के भारत में, जहां बोर्ड परीक्षा के अंकों को युवाओं के जीवन में एक निर्णायक कारक माना जाता है. ऐसे में कल्पना कीजिए विकलांग छात्रों के तनाव और पीड़ा की — चाहे वो व्हीलचेयर इस्तेमाल करते हों, या ऑटिस्टिक, स्पास्टिक या अन्य तरह की शारीरिक समस्याओं से पीड़ित हों. कोविड-19 महामारी के इस दौर में अब जबकि संक्रमितों की संख्या एक बार फिर तेजी से बढ़ रही है, परीक्षा केंद्र जा कर कक्षा 10 और 12 की बोर्ड परीक्षा देने के दबाव को आसान नहीं कहा जा सकता. सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित और व्हीलचेयर पर चलने वाले मेरे बेटे और ऑटिज्म और एडीएचडी जैसी सीखने और बौद्धिक क्षमता से जुड़ी नि:शक्तता वाले उसके सहपाठियों जैसे छात्रों के लिए इस तरह की परीक्षाएं देना एक बड़ी चुनौती है.
अगले कुछ महीनों में, इन विशेष छात्रों को भारत के विभिन्न शहरों के दूर-दराज स्थित परीक्षा केंद्रों तक पहुंचाना होगा, जहां उनके लिए सुगम्यता की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती है. उन्हें फेस मास्क पहनना होगा और संभवत:उनके लिए स्क्राइब (लिखने वाले सहायक) उपलब्ध नहीं होंगे, क्योंकि परीक्षा केंद्र जाकर स्क्राइब की जिम्मेदारी निभाने को लेकर उनमें डर का भाव होगा. विकलांग छात्रों को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ रहा है और निर्णय लेने वाले अधिकारियों को इस स्थिति पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए.
एनआईओएस की जिम्मेदारी
21वीं सदी की अभूतपूर्व महामारी के इस दौर में हमें नवाचार अपनाने और छात्रों की विभिन्न ज़रूरतों पर विचार करने की आवश्यकता है. जिम्मेदार अधिकारियों को छात्र समुदाय के वंचित और कमजोर वर्गों की मदद के लिए विशेष पहल करनी चाहिए.
राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान (एनआईओएस) केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्थापित शैक्षणिक बोर्ड है. यह दुनिया की सबसे बड़ी मुक्त शिक्षा प्रणालियों में से एक है, जिसमें देशभर के लगभग 30 लाख छात्रों ने नामांकन करा रखा है. इसका नेक उद्देश्य आर्थिक अभाव वाले और विशेष जरूरतों वाले बच्चों की स्कूली शिक्षा सुनिश्चित करना है.
अक्सर अपने फैसलों में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) का अनुकरण करने वाला एनआईओएस, सीबीएसई का परीक्षा कार्यक्रम जारी होने के बाद, जून से निर्धारित बोर्ड परीक्षाओं में शामिल हो रहे विकलांग छात्रों की मदद कर सकता था. हालांकि, इस बार जहां सीबीएसई ने अपने पाठ्यक्रम को कम कर दिया है, एनआईओएस बोर्ड ने ऐसा नहीं किया.
इसलिए ये जरूरी है कि महामारी के दौरान विकलांग छात्रों को परीक्षा में बैठने के लिए मजबूर करने के बजाय उत्तीर्ण कर दिया जाए. यह विशेष जरूरतों वाले उन छात्रों की मदद के लिए एक गुहार है जो कि स्क्राइब/रीडर की सहायता से सीनियर सेकेंडरी बोर्ड परीक्षाओं में बैठने वाले हैं.
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जोखिम और कठिनाइयां
अपनी नि:शक्ताओं के कारण, छात्रों को परीक्षा के दौरान अपने स्क्राइब के पास बैठना होगा. भाषा और बोलने से जुड़ी समस्याओं वाले छात्रों को सुनने और उनका जवाब अंकित करने के लिए स्क्राइब को ऐसे छात्रों के बिल्कुल करीब बैठना होगा. ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग रखना संभव नहीं होगा, परिणामस्वरूप स्पेशल छात्रों और स्क्राइब दोनों के लिए अनावश्यक जोखिम की स्थिति बनेगी.
परीक्षा केंद्रों में जाने की अनिवार्यता का मतलब है ऑटिस्टिक छात्रों को परीक्षा के दौरान लगातार तीन घंटे तक मास्क लगाए रखना. ऐसे अधिकांश छात्र गंभीर संवेदी समस्याओं से पीड़ित होते हैं. मास्क उनकी घबराहट तथा क्लस्ट्रोफोबिया और संवेदी कठिनाइयों को बढ़ाएगा, जो परीक्षा के दबाव में पहले से ही ऊंचे स्तर पर हैं.
विकास संबंधी समस्याओं से पीड़ित अनेक स्पेशल छात्रों में कोमोरबिडिटी (अन्य बीमारियां) का भी मसला है, और इस कारण वे आमतौर पर पूर्ण स्वस्थ लोगों की तुलना में आसानी से संक्रमण की चपेट में आ सकते हैं.
महामारी के खतरों के मद्देनज़र स्क्राइब के अभिभावकों का भी अपने बच्चों को स्पेशल छात्रों की मदद के लिए परीक्षा केंद्र भेजने को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है.
जैसा कि हमारी याचिका में कहा गया है, कोविड संक्रमण की नई लहर को देखते हुए, हम शिक्षा मंत्री सहित शीर्ष अधिकारियों से अनुरोध करते हैं कि कृपया विकलांग छात्रों को परीक्षा के बगैर प्रोमोट करने में सहयोग करें. उन्हें उनके ट्यूटर मार्क्ड असाइनमेंट (टीएमए) और प्रैक्टिकल बोर्ड परीक्षा के अंकों के आधार पर उत्तीर्ण किया जा सकता है, जैसा कि 2020 में किया जा चुका है.
ऐसा करने से विकलांगता कानून प्रावधानों के तहत इन छात्रों के संरक्षण के साथ-साथ कोविड-19 के कारण बने स्वास्थ्य संकट का सामना करने में भी उनकी मदद हो सकेगी.
अधिकारियों की भूमिका
एनआईओएस बोर्ड कमजोर छात्रों की मदद करने के अपने उद्देश्य से प्रेरित है और हम उससे इस अभूतपूर्व दौर में सहानूभूति का भाव दिखाने का अनुरोध करते हैं. हमारे जैसे कई अभिभावक अपने बच्चों को विशेष शिक्षण बोर्डों के माध्यम से पढ़ाने का जतन इसलिए करते हैं, क्योंकि स्कूली शिक्षा के बाद के अधिकांश कौशल-आधारित कार्यक्रमों में विकलांग युवाओं से स्कूली शिक्षा का प्रमाण पत्र मांगा जाता है.
महामारी के इस दौर में, मेरे बेटे और उसके जैसे अनेकों अन्य छात्रों ने अतिरिक्त प्रयास करते हुए ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लिया, जहां उन्होंने नियमित कक्षा के भौतिक और विजुअल प्रक्रियाओं के बगैर कराई जाने वाली पढ़ाई को चुनौतीपूर्ण पाया. पार्थ को नौ साल की उम्र के बाद से चार बार मांसपेशियों की सर्जरी से गुजरना पड़ा है जो कि कठिन और पीड़ादायक अनुभव था. विशेष जरूरतों वाले बच्चों को भी अन्य छात्रों के समान ही निर्बाध शिक्षा और अवसरों का अधिकार है.
वैश्विक स्वास्थ्य संकट के मद्देनज़र विकलांग छात्रों को उत्तीर्ण घोषित करने के बजाय उन्हें अलग-अलग केंद्रों में अपर्याप्त या बिना किसी नि:शक्तता अनुकूल सुविधा के परीक्षा देने के लिए बाध्य करना, एक ऐसा असह्य बोझ है जो स्कूली जीवन के अंतिम कुछ हफ्तों में उन्हें बेहद अप्रिय अनुभव देगा.
यह मेरे जैसे अभिभावकों के लिए मानसिक और शारीरिक दोनों ही तरह से पस्त करने वाली जद्दोजहद है. यही कारण है कि हमने महामारी के दौरान विकलांग छात्रों को परीक्षा देने के लिए बाध्य करने के बजाय, उन्हें प्रोमोट करने के आग्रह के साथchange.org पर ऑनलाइन पेटिशन शुरू की है.
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(लेखिका दिल्ली में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं, ये उनके निजी विचार हैं.)
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