कोलकाता : एक गर्म और उमस भरी ज़मीन से दूसरी तक- छह दिन केरल में गुज़ारने के बाद मैं मंगलवार दोपहर पश्चिम बंगाल के कोलकाता पहुंची.
दो राज्यों से आगामी चुनावों पर ख़बरें करते हुए मुझे अहसास हुआ कि दोनों प्रांत समान रूप से आकर्षक हैं और दोनों ही अपनी क्षेत्रीय चुनौतियों तथा जटिलताओं में उलझे हुए हैं.
किसी तरह एक राज्य की राजनीतिक बारीकियों को समझने के बाद, एकदम से दूसरे राज्य में पहुंचकर इसी काम को करना आसान नहीं होता. इसलिए, ज़ाहिर है कि बंगाल दर्शन का मेरा पहला दिन आसान नहीं रहने वाला था.
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही मैं सीधे काम पर लग जाती हूं, ये जानते हुए कि मेरे पास सीमित समय है, जिसमें मुझे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से बात करनी है.
मैंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की कि ज़्यादा से ज़्यादा अलग तरह की पॉकेट्स कवर कर सकूं: सेंट्रल कोलकाता की उर्दू/हिंदी भाषी आबादी से लेकर शेख़ पारा के बंगाली मुसलमानों और कोलकाता की विभिन्न यूनिवर्सिटियों के युवा छात्रों तक, सूबे की सियासत पर जिनके विचार थोड़ा हटकर थे.
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पहचान का सवाल
चुनाव कवर करने के दौरान मुझे समझ में आने लगा है कि आप एक लमहे के लिए भी पहले से ये सोचकर नहीं जा सकते कि ‘जवाब’ क्या होगा. राजनीति जटिल होती है और लोग भी- इसलिए जब आप दोनों को मिलाते हैं तो ज़िंदगी अचानक कई गुना दिलचस्प हो जाती है.
मुझे कुछ बहुत दिलचस्प युवा पुरुष और महिलाएं मिलीं, जिन्होंने बहुत सफाई और आसानी के साथ अपने विचार व्यक्त किए, कि वो किस तरह की राजनीति में विश्वास रखते हैं. ये सब लोग 20 साल से ऊपर के हैं, जिन्होंने सिर्फ ‘युवा और दुराग्रही’ स्टीरियोटाइप छवि पर पूरा उतरने के लिए अपने विचार ज़ाहिर नहीं किए, बल्कि वो वास्तव में उनके और उनकी पहचान के सामने पेश मुश्किल सवालों से जूझ रहे थे.
एक आदमी जो मुझे मिला उसने कहा कि उसे अपनी बंगाली मुस्लिम की पहचान को स्वीकार करने और उसे गले लगाने में बहुत समय लगा- अब वो एक की परछाईं दूसरे पर नहीं पड़ने देता. बिहार में जन्मी लेकिन कोलकाता में पलकर बड़ी हुई एक और महिला ने कहा कि उसे मालूम है कि वो बंगाली नहीं है, लेकिन वो अपने आपको सौ फीसद, राज्य की संस्कृति से जोड़कर देखती है.
एक और शख़्स जो ऑटो रिक्शा चलाने वाला एक युवक है, कहता है कि उसके पास अपनी पहचान के सवालों से जूझने का समय नहीं है- ज़िंदगी वैसे ही बहुत कठिन है.
उसके बाद, बेशक मैंने कई बड़ी उम्र के लोगों से मिलकर बात की, ये जानने के लिए कि जो अनुभव उन्होंने जिए हैं, उनके सामने युवाओं का आदर्शवाद कहां ठहरता है. देखकर ख़ुशी हुई कि ज़्यादातर बुज़ुर्ग- जो 70 से ज़्यादा उम्र के थे- युवाओं को या सियासत के उनके महत्वाकांक्षी अंदाज़ को ख़ारिज नहीं करते.
शेख़ पारा में एक व्यक्ति ने मुझसे कहा, ‘हम तो बूढ़े और रिटायर्ड लोग हैं, अब हम बस चाय पीते हैं और अपना टाइम गुज़ारते हैं. हमारे विचार अब मायने नहीं रखते, उनके रखते हैं’.
‘करो या मरो’
केरल के विपरीत पश्चिम बंगाल में राजनीतिक रेखाएं, ज़्यादा स्पष्ट रूप से खिंची हुई हैं. जो लोग जीवन भर तृणमूल कांग्रेस या वाम दलों के प्रति समर्पित रहे हैं, उनके लिए अपनी आस्था बदलना आसान नहीं है और वो ऐसा तभी करते हैं, जब उसके पीछे कोई मज़बूत ताक़त काम कर रही हो. बेशक, इस बार खेल में कुछ नए प्रतियोगी आ गए हैं- राज्य में बीजेपी का धुआंधार प्रचार किसी की निगाह से छिपा नहीं है.
यहां लोगों से बात करते हुए मुझे अहसास हुआ कि यहां चुनावी राजनीति में कितनी कड़वाहट आ चुकी है. जैसा कि बहुत से लोगों ने मुझसे कहा, ‘ये चुनाव करो या मरो का सवाल बन गया है’.
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