मौजूदा भारतीय जनता पार्टी व मोदी सरकार की कश्मीर नीति की नींव रखने वालों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और संभवत: न्यूनतम चर्चित नाम है पंडित प्रेमनाथ डोगरा का. मोदी सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 में संशोधन कर अनुच्छेद 35ए को जब हटाया तो उन ऐतिहासिक क्षणों को संभव बनाने की नींव दशकों पहले रखने वालों में पंडित डोगरा अग्रणी थे.
पंडित डोगरा के राजनीतिक कद का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आकस्मिक निधन के बाद उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित किया गया और वह इस पद पर लगभग एक वर्ष तक रहे.
1947 से 1963 तक जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 लगाने तथा नेहरू व शेख अब्दुल्ला की कश्मीर नीतियों को लेकर जो भी आंदोलन चला उसकी कमान प्रजा परिषद पार्टी के हाथ में थी. इस पार्टी के संस्थापक सदस्यों में प्रेमनाथ डोगरा भी थे.
नवंबर 1947 में जिस समय प्रजा परिषद पार्टी की स्थापना हुई उस समय वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विभाग संघचालक थे. इसी कारण से उन्होंने इस नवगठित संगठन का अध्यक्ष पद लेने से इंकार कर दिया. हरि वजीर को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया, हंसराज पंगोत्रा को महासचिव व ठाकुर सहदेव सिंह को सचिव बनाया गया. पर प्रजा परिषद पार्टी की नींव रख उन्होंने शेख अब्दुल्ला और नेहरू की कश्मीर नीतियों को चुनौती दी और बाद में 1950 के दशक में इस पार्टी की कमान भी संभाली. पंडित डोगरा कई बार इस आंदोलन के कारण जेल भी गए.
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आरंभिक वर्ष
पंडित प्रेमनाथ डोगरा का जन्म 23 अक्टूबर, 1884 को जम्मू शहर से लगभग 22 किलोमीटर दूर समायलपुर गांव में हुआ. उनके पिता जम्मू रियासत में महाराजा रणवीर सिंह की सरकार में उच्च अधिकारी थे.
पंडित डोगरा का बचपन लाहौर में बीता जहां उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की. पढ़ाई में अच्छा होने के साथ ही वह एक बेहतरीन एथलीट व फुटबॉल खिलाड़ी भी थे. कुछ समय सरकारी नौकरी करने के बाद वह सार्वजनिक जीवन में आ गए.
कश्मीर का आंदोलन और प्रेमनाथ डोगरा
1947 में विभाजन के बाद कश्मीर के बिगड़ते हालातों के मद्देनज़र उन्होंने प्रजा परिषद पार्टी की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 23 जून, 1953 को डॉ. मुखर्जी की श्रीनगर में जब रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हुई, उस समय पंडित डोगरा भी श्रीनगर जेल में कैद थे. पंडित डोगरा और डॉ. मुखर्जी को प्रजा परिषद के उस आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए जेल में डाला गया था जिसका नारा था, ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान ‘ नहीं चलेंगे.
प्रेमनाथ डोगरा का मकसद भारत के संविधान में निहित नागरिक और मौलिक अधिकारों को जम्मू-कश्मीर में लागू करवाना था. इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से कई बार अनुरोध किया. इस संदर्भ में उन्होंने भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को 19 जून, 1952 को एक ज्ञापन भेजा जिसकी पहली पंक्ति में उन्होंने लिखा, ‘जम्मू-कश्मीर के लोगों का भविष्य, विशेष तौर पर भारत के साथ उनका संबंध, राज्य के लोगों के लिए महत्वपूर्ण और सर्वोपरि मुद्दा है. जम्मू के लोग इस बात को लेकर उत्सुक हैं कि अब उनका राज्य निश्चित एवं स्थाई तौर पर भारत का अभिन्न अंग बन जाए और वे इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं.’
मई 1952 में डॉ. मुखर्जी से पंडित डोगरा की ऐतिहासिक भेंट दिल्ली के वेस्टर्न कोर्ट में हुई. उन्होंने डॉ. मुखर्जी को जम्मू-कश्मीर की व्यथा कथा सुनाई. उस समय पंडित डोगरा की आयु लगभग 70 साल थी. डॉ. मुखर्जी ने पंडित डोगरा को आश्वस्त किया कि वह स्वयं जम्मू-कश्मीर आकर इस आंदोलन में हिस्सा लेंगे. इस के लगभग 13 महीने बाद डॉ. मुखर्जी का देहांत इसी आंदोलन में हिस्सा लेने के दौरान श्रीनगर में हुआ. लेकिन तब तक भारतीय जनसंघ की मदद से यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी बन चुका था.
1957 में पंडित डोगरा पहली बार जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए चुने गए, इसके बाद 1972 तक वह लगातार बिना हारे विधायक रहे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर उपाख्य ‘गुरूजी’ जब भी जम्मू जाते थे तो पंडित डोगरा के यहां अवश्य रुकते थे.
पंडित डोगरा का निधन जम्मू में 21 मार्च, 1972 को हुआ. बलराज मधोक, केदारनाथ साहनी, विजय कुमार मल्होत्रा, चमनलाल गुप्ता जैसे कई वरिष्ठ नेताओं ने उनके साथ बतौर सहयोगी काम किया.
(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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