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Monday, 25 November, 2024
होममत-विमतभारतीय राजनीति में कांग्रेस एक नई 'वोट कटुआ' पार्टी है

भारतीय राजनीति में कांग्रेस एक नई ‘वोट कटुआ’ पार्टी है

कांग्रेस अब अंदरूनी तौर पर बहुत से गुटों में बट गई है और गांधी परिवार के खिलाफ काफी नाराज़गी है. और अब अलग-अलग सूबों में उनकी चुनावी रणनीति का कोई सिर-पैर नहीं है.

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हट जाएं असदुद्दीन ओवैसी. शहर में आ गया है एक और ‘वोट कटुआ’. और वो है भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस- वो पार्टी जो खुद को ‘भारत के विचार’ का रक्षक बताती है. पश्चिम बंगाल में आगामी चुनाव के लिए कांग्रेस का वाम मोर्चे और नवगठित इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन सबसे ताज़ा मिसाल है कि इसे ओवैसी की एआईएमआईएम पर बीजेपी-विरोधी वोट खाने का आरोप क्यों नहीं लगाना चाहिए.

किसी समय पर एक महागठबंधन हुआ करता था. और एक समय वो था जब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ऐसी लीडर लगती थीं, जो 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के खिलाफ सबको साथ लेकर चलीं थीं. चुनाव पूर्व का वो फोटोग्राफ, जिसमें गठबंधन के सभी नेता मंच पर मौजूद थे और ममता बनर्जी राहुल गांधी तथा मायावती के बीच में खड़ीं थीं, एक बड़ी मिसाल थी कि कैसे उन्होंने इस गठबंधन में केंद्रीय भूमिका निभाई थी.

लेकिन वो 2019 था. उसके बाद से स्थिति बहुत बदल चुकी है.


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कांग्रेस के मतभेद

विडंबना ये है कि कांग्रेस अब एक ऐसी पार्टी बन गई है, जो बीजेपी को सबसे अधिक फायदा पहुंचा रही है और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के पैर काटने के लिए अब्बास सिद्दीक़ी की इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) के साथ मिल गई है जिसकी धर्मनिर्पेक्षता पर सवाल खड़े किए जाते हैं.

ये बात बिल्कुल साफ है कि कांग्रेस, एक ऐसे चुनाव में अपना नाम बचाए रखने की पूरी कोशिश कर रही है, जो उसके लिए पहले ही खोया हुआ लगता है. लेकिन इस प्रक्रिया में ये सबसे ज़्यादा नुकसान टीएमसी को पहुंचा रही है, जो न केवल हैरत में डालता है बल्कि दुर्भाग्यपूर्ण भी है क्योंकि वो हमेशा दावा करती है कि वो ‘भारत के विचार को बचा रही है’, जिसकी राहुल गांधी ने जुलाई 2019 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते समय बात की थी.

केवल अपने आपको ‘अमराई बिकल्पा’ कह देने भर से, वो संदेश नहीं बदल जाता जो आप भेज रहे हैं. पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अस्त-व्यस्त पड़ा है और जी-23 नेता सोनिया गांधी को पत्र लिखकर एक स्थाई और सक्षम नेतृत्व का अनुरोध कर रहे हैं. फिर गुलाम नबी आज़ाद की लच्छेदार बातों ने कि किस तरह मोदी अपनी ‘असलियत’ को नहीं छिपाते और ‘दूसरे लोगों की तरह किसी बबल में नहीं रहते’, दिखा दिया कि कांग्रेस अब अंदरूनी तौर पर बहुत से गुटों में बट गई है और गांधी परिवार के खिलाफ काफी नाराज़गी है. और अब अलग-अलग सूबों में उनकी चुनावी रणनीति का कोई सिर-पैर नहीं है और ये अंधेरे में तीर मारने से ज़्यादा कुछ नहीं है.

बंगाल प्रचार में विघ्न

कांग्रेस का बार-बार वाम मोर्चे के साथ मिलकर आना, सिर्फ वही साबित कर रहा है, जो बहुत लोग काफी समय से कहते आ रहे हैं. और वो ये कि पार्टी का मुख्य नेतृत्व, अब वामपंथियों की सलाह पर चल रहा है और अब कांग्रेस पार्टी में कुछ भी मध्यमार्गी नहीं है. ये बात स्पष्ट है कि वाम की ओर झुकाव, कांग्रेस के लिए काम नहीं कर रहा है. और अब अब्बास सिद्दीक़ी की आईएसएफ के साथ इसका गठबंधन- जो बंगाल की मशहूर दरगाह फुरफुरा शरीफ के मुस्लिम धर्मगुरू है, जिनका बीरभूम, बर्धमान, हुगली, 24 साउथ परगना, 24 नॉर्थ परगना और हावड़ा में काफी प्रभाव है- बीजेपी को ही फायदा पहुंचाएगा.

सिद्दीक़ी की ध्रुवीकरण क्षमता के बावजूद, सच्चाई ये है कि मुस्लिम वोटों को टीएमसी से खींचने के लिए कांग्रेस का उनकी आईएसएफ के साथ गठबंधन, बंगाल में सिर्फ धर्म की पिच को बढ़ा रहा है. चुनावों का ध्रुवीकरण करने के लिए बीजेपी ने हर हथकंडे का इस्तेमाल किया है- एनआरसी-सीएए का राग अलापने से लेकर, ‘अवैध’ बांग्लादेशी अप्रवासियों तक, जिन्हें अमित शाह ने एक बार ‘दीमक’ तक कह दिया था. लेकिन टीएमसी के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, दृढ़ता के साथ कल्याण योजनाओं को आगे बढ़ाकर विकास के प्रचार में लगे रहे.

और इस रणनीति ने टीएमसी के लिए काम किया क्योंकि बीजेपी बीच में ही गोलपोस्ट को बदलती नज़र आई, जब वो हिंदू-मुस्लिम एजेंडा से हटकर ‘पिशी भाइपो सरकार’- एक परिवार चालित पार्टी के ताने पर आ गई, जिसे पार्टी ने कांग्रेस को बदनाम करने के लिए कारगर ढंग से इस्तेमाल किया है.


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कांग्रेस बस अपने ही काम नहीं देख सकती

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस इस बात से बेखबर है कि ऐसे चुनावी गठबंधनों के क्या खतरे होते हैं, वो एक बड़ी लड़ाई को कैसे प्रभावित करते हैं. एक लंबे समय तक वो असदुद्दीन अवौसी पर सेक्युलर– या बीजेपी विरोधी- वोट खाने का आरोप लगाती रही है, चाहे वो बंगाल हो या बिहार. कांग्रेस को ऐसा लगता है कि कोई भी पार्टी, खासकर जिसका नेता कोई मुसलमान हो, जो उसके साथ गठबंधन में नहीं है, वो दरअसल बीजेपी की मदद कर रही है. बल्कि 2020 के बिहार चुनावों में तो उसने ओवैसी पर अल्पसंख्यकों के रिवर्स रेडिकलाइज़ेशन तक का आरोप लगा दिया.

दिलचस्प बात ये है कि ये पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ही थे जिन्होंने दूसरी पार्टियों को ओवैसी की, ‘वोट कटवा’ तरकीबों से चेताया था. लेकिन अब उनकी पार्टी बिल्कुल यही काम कर रही है. ओवैसी की एआईएमआईएम और सिद्दीक़ी की आईएसएफ को एक गठबंधन बनाना था लेकिन इसमें कांग्रेस ने ओवैसी को पछाड़ दिया. न केवल ये, बल्कि आईएसएफ के इच्छा जताने के बावजूद, उसने एआईएमआईएम को साथ लेने से इनकार कर दिया. कांग्रेस दिखाना चाहती थी कि ओवैसी को बढ़ने से रोकने के लिए, वो किसी भी हद तक जा सकती है- जो इस मामले में बंगाल में अपनी मौजूदगी दर्ज करना चाहते हैं. और यहां पर कांग्रेस जानबूझकर अपनी आंखें पूरी तरह मूंद लेती है कि इसकी हरकतें बीजेपी को फायदा पहुंचा सकती हैं.

बंगाल चुनाव इस बार सिर्फ हार-जीत के लिए नहीं हैं. अहम बात ये है कि क्या बीजेपी, जिसके पास 2016 की विधानसभा में केवल तीन सीटें थीं, आखिरकार खुद को मज़बूती के साथ स्थापित कर सकती है. अगर बीजेपी 92-108 सीटें जीत लेती है, जैसा कि सी-वोटर एग्ज़िट पोल ने पूर्वानुमान लगाया है, तो पश्चिम बंगाल में आने वाले सालों में न केवल बीजेपी सरकार बन सकती है, बल्कि वो राज्य सभा में बहुमत हासिल करने की दिशा में भी आगे बढ़ सकती है. और हम सब जानते हैं कि उसका मतलब क्या है.

(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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