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Thursday, 21 November, 2024
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J&K हाई कोर्ट ने कहा-कारगिल के कांग्रेस पार्षद ने ‘सैन्य बलों का अपमान’ किया लेकिन राष्ट्रद्रोह नहीं किया

एलएएचडीसी-के पार्षद जाकिर हुसैन को भारतीय सेना के खिलाफ टिप्पणियों के लिए पिछले साल जून में राष्ट्रद्रोह और आईपीसी की अन्य धाराओं के तहत आरोपी बनाया गया था.

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नई दिल्ली: जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद-कारगिल (एलएएचडीसी-के) में पार्षद जाकिर हुसैन के खिलाफ राष्ट्रद्रोह के आरोपों को खारिज कर दिया है और उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को ‘कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग’ करार दिया है.

हुसैन को गलवान घाटी में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ हुई झड़पों, जिसमें 20 भारतीय जवान शहीद हुए थे, के बाद भारतीय सेना पर विवादित टिप्पणियां करने के कारण पिछले साल जून में राष्ट्रद्रोह और अन्य धाराओं में आरोपी बनाया था.

19 जून 2020 को दर्ज की गई एफआईआर में आईपीसी की धाराएं 153ए (धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न वर्गों के बीच वैमनस्य फैलाना, और जानबूझकर सौहार्द बिगाड़ने वाले कृत्यों को अंजाम देना), 153बी (राष्ट्रीय अखंडता के प्रति पूर्वाग्रह वाला आरोप या बयान देना), 505 (2) (विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता, घृणा या वैमनस्य फैलाने वाला बयान देना) और 120बी (आपराधिक साजिश) भी लगाई गई थीं.

जस्टिस संजीव कुमार ने गुरुवार को सुनाए अपने फैसले में कहा कि भले ही हुसैन की टिप्पणियां ‘भारतीय बलों का अपमान करने वाली’ थी और इससे ‘सरकार की अवमानना’ हुई है लेकिन फिर भी इसे राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. जब तक किसी बातचीत के पीछे किसी अपराध या सार्वजनिक शांति भंग करने की प्रवृत्ति या इरादा न हो तो तब तक ऐसे कृत्य को राष्ट्रद्रोह नहीं माना जाएगा इसलिए धारा 124बी या फिर आईपीसी की धारा 153ए या 153बी लगाने का औचित्य नहीं है.’

अदालत ने कहा कि टिप्पणियों पर ‘देश के सभी नागरिकों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी की मूलभूत गारंटी के जरिये बचाव हासिल है.’

इसके बाद कोर्ट ने हुसैन की याचिका स्वीकार करते हुए उनके खिलाफ कार्यवाही को रद्द कर दिया.


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‘टिप्पणी अशोभनीय लेकिन राष्ट्रद्रोह नहीं’

पिछले वर्ष 18 जून को कारगिल पुलिस को जानकारी मिली थी कि गलवान घाटी में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़पों के बाद उस घटना को लेकर कुछ ‘आपत्तिजनक बातचीत, देश की सशस्त्र सेनाओं के लिए अशोभनीय टिप्पणियों’ वाली एक ऑडियो क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल हुई है.

पुलिस ने उस समय एक प्राथमिकी दर्ज की और पार्षद हुसैन और ऑडियो क्लिप में उनके साथ बातचीत करने वाले शख्स निसार अहमद खान को गिरफ्तार कर लिया. पिछले साल 17 सितंबर को जांच पूरी होने पर कारगिल के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष एक अंतिम रिपोर्ट दायर की गई थी. दोनों आरोपियों को हाई कोर्ट ने 24 सितंबर 2020 को जमानत दे दी थी.

हुसैन ने जहां ये दावा किया था कि इस बातचीत में ऐसा कुछ नहीं है जिससे उन पर राष्ट्रद्रोह या ऐसी किसी धारा में केस चलाया जा सके जो उन पर लगाई गई हैं, वहीं लद्दाख संघ प्रशासन का आरोप था कि ‘ऑडियो क्लिप हाल में चीनी सैनिकों का बहादुरी से जमकर मुकाबला करने वाले भारतीय सैनिकों के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई हैं.’

कोर्ट ने केदार नाथ सिंह मामले और बलवंत सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि आईपीसी की धारा 124ए, 153ए, 153बी और 505 (2) के तहत किसी भी कृत्य को अपराध करार देने के लिए ‘किसी सार्वजनिक गड़बड़ी वाले अपराध या सार्वजनिक शांति भंग करने की प्रवृत्ति या इरादा होना जरूरी है.’

साथ ही यह भी कहा कि भले ही यह बातचीत ‘अशोभनीय और द्वेषपूर्ण’ थी लेकिन हुसैन पर लागू की गई किसी भी धारा के तहत इसे अपराध नहीं कहा जा सकता है.

‘एफआईआर दर्ज करने के लिए मंजूरी जरूरी नहीं’

हुसैन ने इस आधार पर भी कार्यवाही को चुनौती दी थी कि उनके खिलाफ अभियोजन शुरू करने से पहले सरकार से इस पर कोई मंजूरी नहीं ली गई थी. उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 196 का हवाला दिया जिसके तहत कोर्ट द्वारा राष्ट्रद्रोह या 153ए जैसी विशिष्ट धाराओं में संज्ञान लिए जाने से पहले केंद्र या राज्य सरकार की तरफ से आवश्यक अनुमति लिए जाने का प्रावधान है.

इस मामले में पुलिस ने ऐसी किसी मंजूरी के बिना ही मजिस्ट्रेट के सामने अंतिम रिपोर्ट दायर कर दी थी.

कोर्ट ने गुरुवार के अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि सीआरपीसी की धारा 196 के तहत मंजूरी लेने का प्रावधान पुलिस को किसी संज्ञेय अपराध के बारे में सूचना मिलने पर एफआईआर दर्ज करने से नहीं रोकता है. (संज्ञेय अपराध वह है जहां पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तारी कर सकती है ताकि मामले की जांच कर सके.)

धारा 196 कहती है कि अदालत द्वारा सीआरपीसी अपराध पर संज्ञान लेते के चरण में लागू होगी. इसमें कहा गया है कि ‘अदालत इस तरह के अपराधों पर संज्ञान लेने से इनकार कर देगी..यदि इस पर केंद्र सरकार या राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट की तरफ से कोई पूर्व मंजूरी नहीं ली गई होगी.’

हाई कोर्ट ने कहा कि यदि उचित प्राधिकारी से पूर्व मंजूरी लिए बिना न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने अंतिम रिपोर्ट पेश की जाती है, तो अदालत को इसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए लेकिन इसे पुलिस को लौटा देना चाहिए.

कोर्ट ने आगे कहा, ‘मजिस्ट्रेट यदि पुलिस रिपोर्ट को सीआरपीसी की धारा 196 के अनुरूप नहीं पाता है तो वह चालान को बरकरार नहीं रखेगा और मामले में आगे नहीं बढ़ेगा, बल्कि अभियोजन पक्ष को लौटा देगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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