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Saturday, 20 April, 2024
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मौलिक अधिकारों का अगर हनन होता हो, तब अदालतों को ज़मानत देने से UAPA नहीं रोकता: SC

सुप्रीम कोर्ट ने केए नजीब को मिली ज़मानत को बरकरार रखा, जो केरल यूएपीए मामले में अभियुक्त है, जिसमें एक प्रोफेसर की हथेली काट दी गई थी और जो विचाराधीन कैदी के तौर पर जेल में 5 साल से अधिक गुज़ार चुका है.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को फैसला दिया कि विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) 1967, संवैधानिक अदालतों को संविधान के तहत मौलिक अधिकारों के हनन के आधार पर, ज़मानत देने से नहीं रोकता, और इस तरह उसने यूएपीए के आरोपित एक अभियुक्त को दी गई ज़मानत को बरकरार रखा.

तीन जजों वाली एक खंडपीठ ने जिसमें न्यायमूर्ति एनवी रमना, सूर्यकांत और अनिरुद्ध बोस शामिल थे, कहा कि अभियुक्त को जेल में 5 साल से अधिक हो गए हैं और 276 गवाहों से अभी जिरह होनी बाकी है. फिर उसने त्वरित मुकदमे के संवैधानिक अधिकार पर बल देते हुए अभियुक्त को दी गई ज़मानत की पुष्टि कर दी.

सामान्य आपराधिक मामलों में, ज़मानत को एक नियम माना जाता है जबकि मुकदमे से पहले जेल को अपवाद माना जाता है. लेकिन, यूएपीए का अनुच्छेद 43डी(5) कहता है कि यूएपीए की धारा 5 और 6 (आतंकवाद और आतंकी संगठन से संबंध) के तहत आरोपित व्यक्ति को, ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा, अगर केस डायरी और पुलिस रिपोर्ट को देखने के बाद अदालत को ‘लगता है कि ऐसा विश्वास करने के पीछे उचित कारण है कि अभियुक्त पर लगाए गए आरोप पृथम दृष्टया सही हैं’.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर बल दिया कि हालांकि अनुच्छेद 43डी(5) में प्रतिबंध दिए गए हैं लेकिन इससे ‘संविधान के (मौलिक अधिकारों) के तीसरे हिस्से के आधार पर संवैधानिक अदालतों की ज़मानत देने की क्षमता खत्म नहीं हो जाती’.

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कानूनी कार्यवाही के बिल्कुल शुरू की अवस्था में अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि यूएपीए के तहत वो ज़मानत न देने के नियम का पालन करेंगी. लेकिन उसने आगे कहा कि ‘ऐसे प्रावधानों की कठोरता, उस समय नर्म पड़ जाएगी, जहां ये संभावना न हो कि मुकदमा, एक उचित समय के अंदर पूरा हो जाएगा और जेल में पहले ही इतना समय बिताया जा चुका है कि वो निर्धारित सज़ा की अवधि के एक बड़े हिस्से से ज़्यादा हो चुका है’.

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इसलिए अदालत ने, केए नजीब को दी गई ज़मानत को बरकरार रखा, जो अप्रैल 2015 से अप्रसिद्ध केरल मामले में जेल में रहा था, जिसमें एक प्रोफेसर की हथेली काट दी गई थी.

ये मामला 2010 का है, जब पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) कार्यकर्ताओं ने, प्रोफेसर टीजे जोज़फ की हथेली काट दी थी, जिन्होंने थोडुपुज़ुहा के न्यूमेन कॉलेज के बी.कॉम छात्रों के लिए आंतरिक परीक्षा के एक पर्चे में मुस्लिम समुदाय पर एक आपत्तिजनक सवाल रख दिया था. पीएफआई के कई सदस्यों पर मुकदमा चला और 30 अप्रैल 2015 को उन्हें सज़ा सुना दी गई लेकिन नजीब की गिरफ्तारी ही 10 अप्रैल 2015 को हुई इसलिए उस पर मुकदमा अलग से चलाया गया.

सुप्रीम कोर्ट उस अपील की सुनवाई कर रहा था जिसमें जुलाई 2019 में केरल हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत नजीब को ज़मानत दे दी गई थी.


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नजीब ने अपनी हरकतों की ‘भारी क़ीमत’ चुकाई

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, नजीब ने 2015 से 2019 के बीच छह बार विशेष एनआईए कोर्ट और हाई कोर्ट में गुहार लगाई थी. उसे आखिरकार 2019 में जाकर ज़मानत मिली, जब हाई कोर्ट ने कहा कि मुकदमा अभी तक शुरू नहीं हुआ है और नजीब काफी समय तक हिरासत में रह चुका है. लेकिन एनआईए ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी.

अब कोर्ट ने कहा है कि 13 सह-अभियुक्तों को, जो इस केस में दोषी करार दिए गए, उन्हें अधिकतम 8 साल की सज़ा सुनाई गई और नजीब पहले ही पांच साल पांच महीने, न्यायिक हिरासत में गुज़ार चुका है.

फिर कोर्ट ने कहा कि ‘इसलिए जायज़ रूप से अपेक्षा की जा सकती है कि अगर प्रतिवादी दोषी पाया गया, तो उसे भी लगभग उतनी ही सज़ा मिलेगी. इतनी सज़ा का दो-तिहाई समय पहले ही पूरा हो चुका है और ऐसा लगता है कि प्रतिवादी, न्याय से भागने की अपनी हरकत की, पहले ही एक भारी कीमत अदा कर चुका है’.

अदालत ने ये भी कहा कि हालांकि आरोप गंभीर थे लेकिन ‘ऐसा लगता है कि हिरासत में बिताए गए समय की लंबी अवधि और निकट भविष्य में मुकदमा पूरा न होने की संभावना को देखते हुए हाई कोर्ट के पास ज़मानत देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था’.

ये केस बहुत से दूसरे यूएपीए अभियुक्तों के लिए एक नज़ीर बन सकता है जिनमें वो लोग भी शामिल हैं, जो भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में 2018 से हिरासत में हैं.

भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार तेलुगु कवि और लेखक वरवर राव की पत्नी ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाते हुए आरोप लगाया था कि उनको लगातार हिरासत में रखना, क्रूरता और अमानवीय व्यवहार है, जो संविधान की धारा 21 (जीने और निजी स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करता है. कोर्ट ने तब हाई कोर्ट से उनकी ज़मानत अर्ज़ी पर जल्द सुनवाई के लिए कहा था.


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ज़हूर वताली फैसला

केरल हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए एनआईए ने ज़हूर वताली फैसले का भी सहारा लिया और तर्क दिया था कि अदालतों का दायित्व है कि ऐसे मामलों में ज़मानत न दें, जिनमें संदिग्ध पहली नज़र में दोषी नज़र आता है.

दिल्ली हाई कोर्ट ने 2018 में ज़हूर अहमद वताली के खिलाफ एनआईए का केस सुनते हुए यूएपीए के इसी प्रावधान के तहत, उसे ज़मानत दे दी थी. अपना आदेश सुनाते हुए कोर्ट ने कहा था कि हालांकि एजेंसी के पास वताली के खिलाफ काफी सामग्री है लेकिन मुकदमे के दौरान उसमें से काफी कुछ वास्तव में इस्तेमाल नहीं की जा सकेगी.

लेकिन अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के रुख को ‘अनुचित’ करार दिया. उसने कहा कि बेल की स्टेज पर, कोर्ट को किसी अभियुक्त के खिलाफ सबूतों को आंकने की ज़रूरत नहीं है, उसे सिर्फ जांच द्वारा मुहैया कराई गई सामग्री को, समग्रता से देखने की ज़रूरत है कि क्या पहली नज़र में कोई केस बनता है. इसकी वजह से यूएपीए के तहत, ज़मानत हासिल करना बेहद मुश्किल हो गया है.

लेकिन, नजीब के मामले में शीर्ष अदालत ने कहा कि ज़हूर वताली केस की वास्तविक स्थिति अलग थी और वो सुनवाई किए जा रहे मामले से अलग था.

कोर्ट ने व्याख्या करते हुए कहा कि उस मामले में हाई कोर्ट का फैसला पलट दिया गया था और ज़मानत रद्द कर दी गई थी, चूंकि हाई कोर्ट ने ज़मानत पर सुनवाई में ही एक ‘मिनी-ट्रायल’ कर लिया था.

कोर्ट ने आगे कहा, ‘उस मामले में, हाई कोर्ट ने रिकॉर्ड पर रखे गए तमाम सबूतों का फिर से आंकलन करते हुए विशेष अदालत के उस निष्कर्ष को पलट दिया था जिसमें पृथम दृष्टया दोष सिद्धि और ज़मानत खारिज करने का मामला बनता था…अनुच्छेद 43डी(5) के तहत, ये न केवल एक पृथम दृष्टया मूल्यांकन के, वैधानिक आदेश से कहीं आगे था बल्कि समयपूर्व भी था और संभावित रूप से मुकदमे को ही पूर्वाग्रही कर सकता था.’

लेकिन, हाई कोर्ट के आदेश को बनाए रखते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मामले में हाई कोर्ट के कारणों को संविधान की धारा 21 से जोड़कर देखा जा सकता है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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