नई दिल्ली: बुद्धवार को लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, कि डॉक्टर और नर्सें ‘भगवान का अवतार’ हैं, जिन्होंने भारत को कोविड-19 से बचाया है. लेकिन सच्चाई ये है कि देश मेडिकल प्रोफेशनल्स, ख़ासकर डॉक्टरों और नर्सों की, भारी कमी से जूझ रहा है.
भारत में हर एलोपैथिक डॉक्टर, कम से कम 1,511 लोगों की सेवा करता है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के हर 1,000 लोगों पर, एक डॉक्टर के मानक से बहुत ज़्यादा है. प्रशिक्षित नर्सों की कमी और भी भयानक है, जिसमें नर्स-आबादी अनुपात 1:670 है, जबकि डब्लूएचओ का मानक 1:300 है.
ये आंकड़े 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं, जिसने कोविड-19 के परिदृश्य में, इस क्षेत्र में अपनी तरह का पहला सर्वेक्षण किया था. पैनल ने भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था में, काफी समय से चली आ रही कमियों को लेकर, कुछ भयावह आंकड़े सामने रखे हैं, और स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत करने की अहमियत पर ज़ोर देने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय पर तुलनाएं की हैं.
वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में, जो पिछले साल सरकार को दी गई थी, लेकिन जिसे पिछले हफ्ते ही सार्वजनिक किया गया, पहली बार एक पूरा अध्याय स्वास्थ्य को समर्पित किया गया है. उसमें कहा गया है, ‘2018 में, भारत में कुल 11.54 लाख पंजीकृत एलोपैथिक मेडिकल डॉक्टर्स, 29.66 लाख नर्सें, और 11.25 लाख फार्मासिस्ट्स थे’.
एक एलोपैथिक डॉक्टर पर आबादी के आकार में काफी अंतर है, जो गोवा में 380 से लेकर नागालैण्ड में 17,060 तक है. नर्सों के मामले में भी यही है-केरल में ये संख्या सबसे अच्छी है, जहां एक प्रशिक्षित नर्स पर 111 लोग हैं, जबकि झारखंड सबसे पीछे हैं, जहां ये संख्या 4,019 है.
रिपोर्ट में कहा गया, ‘बड़े राज्यों में, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थिति बहुत ख़राब है. प्रमुख सूबों में बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश, सरकारी डॉक्टर और आबादी के अनुपात में, दूसरों से बहुत पीछे हैं. नर्सों की सबसे ज़्यादा कमी बिहार, झारखंड, सिक्किम, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में है’.
आयोग ने कहा, ‘सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में, स्वास्थ्य श्रमबल की सभी श्रेणियों में कर्मियों की काफी कमी है. सभी राज्यों के मेडिकल कॉलेजों की सीटों में भी काफी अंतर है. देश भर में एमबीबीएस की कुल सीटों में से दो-तिहाई, सिर्फ सात राज्यों में केंद्रित हैं (तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात)’.
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बिस्तर-आबादी का ख़राब अनुपात
वित्त आयोग की रिपोर्ट में कहा गया, कि अस्पताल बिस्तर और आबादी का ख़राब अनुपात, स्वास्थ्य प्रणाली की अतिसंवेदनशीलता को दर्शाता है.
उसमें कहा गया, ‘एक अनुमान के मुताबिक़ भारत के अस्पतालों में कुल 18,99,228 बिस्तर हैं (जिनमें 60 प्रतिशत से अधिक निजी क्षेत्र में हैं), जो मोटे तौर से 1,000 की आबादी पर 1.4 बिस्तर बैठते हैं. ये बहुत से तुलनाकारी देशों से कम है: चीन की बिस्तर सघनता 1,000 की आबादी पर चार से अधिक है; श्रीलंका, युनाइटेड किंग्डम और अमेरिका में प्रति 1,000 आबादी पर तीन बिस्तर हैं; और थाईलैण्ड तथा ब्राज़ील में हर 1,000 की आबादी पर, अस्पतालों में दो से अधिक बिस्तर हैं’.
रिपोर्ट में कहा गया, ‘भारत के अंदर, अस्पताल के बिस्तरों की सघनता विशेष रूप से बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पूर्ववर्त्ती राज्य जम्मू-कश्मीर, झारखंड, मणिपुर, मध्यप्रदेश और असम में कम है. गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, और तेलंगाना के, सरकारी अस्पतालों में बिस्तर अपेक्षाकृत कम हैं, लेकिन इसकी भरपाई निजी बिस्तरों की उपलब्धता से हो जाती है’.
लेकिन, आयोग ने स्पष्ट किया कि अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या, अपने आप में स्वास्थ्य प्रणाली की पूरी तस्वीर पेश नहीं करते. मसलन, भारत में एक त्रि-स्तरीय प्रणाली है, जिसका अर्थ है उप-केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र मिलकर, स्वास्थ्य प्रणाली का पहला पायदान होते हैं. आयोग ने पाया कि केंद्रों की संख्या, उनकी ज़रूरत से काफी कम थी, जो उप-केंद्रों में 23 प्रतिशत से लेकर, पीएचसीज़ में 28 प्रतिशत, और सीएचसीज़ में 37 प्रतिशत तक थी. आयोग ने कहा कि बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बेहद कमी है.
आयोग ने कहा, ‘कोविड-19 महामारी ने भारत के स्वास्थ्य में व्याप्त कई कमियों को उजागर किया. कम निवेश, स्वास्थ्य इनफ्रास्ट्रक्चर और स्वास्थ्य परिणामों में सूबों के बीच भारी अंतर, डॉक्टरों, चिकित्सा-सहायकों, तथा अस्पतालों की आपूर्ति की समस्याएं, और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, उप-केंद्रों, और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों जैसे स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों की अपर्याप्त संख्या, कुछ ढांचागत चुनौतियां हैं, जो हमारे सामने हैं. परिणामस्वरूप, हम पाते हैं कि स्वास्थ्य पर लगभग 70 प्रतिशत ख़र्च, जेब से किया जाता है, जो दुनिया में सबसे अधिक है’.
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राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों ने अच्छा किया है
15 वें वित्त आयोग ने स्वीकार किया, कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों की, मलेरिया और टीबी जैसी बीमारियों से निपटने में भूमिका रही है, और सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम (यूआईपी) ने भी, पोलियो, खसरा, डायरिया आदि के बच्चों के टीके लगवाने में काफी उन्नति की है. यूआईपी, जिसमें 11 टीके शामिल हैं, का लक्ष्य देश की सभी माताओं और बच्चों को टीके लगाना है.
उसने ये भी कहा कि पिछले कुछ सालों में, माताओं और शिशुओं की मृत्यु दर में आई कमी से, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य में काफी प्रगति हुई है, और इसके साथ ही जन्म-दर में ख़ासी कमी आई है, हालांकि संस्थागत जन्मों की संख्या में निरंतर इज़ाफा हुआ है.
रिपोर्ट में कहा गया, ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों ने, स्वास्थ्य की गंभीर चिंताओं से निपटने में, एक अहम रोल अदा किया है. 2018 में, भारत में प्रति एक लाख की आबादी पर, मलेरिया से होने वाली मृत्यु दर, घटकर 0.02 मौतों पर आ गई, जो 2001 में 0.10 मौतें थी, और देश ने 2015 तक ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) को, रोकने और कम करने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) हासिल कर लिया है. सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम (यूआईपी) के ज़रिए, टीकाकरण कवरेज का लक्ष्य प्राप्त करने में भी काफी सफलता मिली है, जो वैक्सीन से रुकने वाली छह बीमारियों से सुरक्षा प्रदान करता है’.
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