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Friday, 15 November, 2024
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मेलघाट टाइगर रिजर्व के चलते उजड़े कई आदिवासी गांव बीस साल बाद भी नहीं हुए आबाद

महाराष्ट्र की सतपुड़ा पहाड़ी के आदिवासी बहुल मेलघाट अंचल में आज से बीस साल पहले कई गांवों के लिए पुनर्वास योजना बनाई गई थी.

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अमरावती: महाराष्ट्र की सतपुड़ा पहाड़ी के आदिवासी बहुल मेलघाट अंचल में आज से बीस साल पहले कई गांवों के लिए पुनर्वास योजना बनाई गई थी. ऐसा इसलिए कि मेलघाट टाइगर रिजर्व एरिया के लिए कई गांवों को विस्थापित किया जाना था. बताया गया कि इससे मनुष्यों और बाघों के बीच संघर्ष कम होगा. साथ ही बाघों के संरक्षण के लिए एक रहवास क्षेत्र आरक्षित होगा.
अमरावती जिले के तहत आने वाले मेलघाट में तब 33 आदिवासी बहुल गांवों के लिए पुनर्वास की रूपरेखा तैयार की गई थी. आश्चर्य है कि इनमें से 18 गांवों का पुनर्वास करने के लिए राज्य सरकार को बीस साल का समय लगा. जबकि, इन दो दशकों में 15 गांवों का पुनर्वास नहीं हुआ है.
हर साल बढ़ती मंहगाई को देखते हुए जाहिर है कि उसी अनुपात से पुनर्वास की लागत राशि भी बढ़ती जाएगी. ऐसी स्थिति में प्रश्न है कि यदि बाकी गांवों के पुनर्वास में पंद्रह साल का समय और लगा तो परियोजना का बजट खर्च कहां से आएगा? बता दें कि इन गांवों के पुनर्वास के लिए प्रति परिवार महज दस लाख रुपए की राशि आबंटित है. ऐसे में विस्थापित होने वाले गांवों के लोगों की चिंता है कि अगले 15 साल के हिसाब से 15 गांवों के पुनर्वास को देखते हुए उनके लिए दस लाख रुपए की राशि से कुछ भी नहीं.


तीन गांवों का हुआ पुनर्वास

इस बारे में मेलघाट पहाड़ी क्षेत्र में बच्चों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता संजय इंग्ले बताते हैं कि टाइगर रिजर्व एरिया के तहत सबसे पहले वर्ष 2001 में तीन गांवों का पुनर्वास किया गया था. ये गांव थे- बोरी, कोहा और कुंड. इन्हें तब अकोला जिले में राजूर और गिरवापुर क्षेत्र में बसाया गया था.
वे बताते हैं, ‘बाकी गांवों को बसाने के लिए पुर्नवास परियोजना का कार्य बहुत मंद गति से चलता रहा. ऐसे में आप कह सकते हैं कि इन बीस वर्षों में जिन 18 गांवों के लोगों का विस्थापन हुआ है उन्हें भी परियोजना में देरी होने के कारण बहुत मामूली मुआवजा मिला. यदि 2001 में ही उन्हें दस लाख रुपए की राशि दी जाती तो भी यह एक हद तक ठीक थी. पर, साल-दर-साल जिस तेजी से मंहगाई बढ़ती जा रही है उस लिहाज से मुआवजा की राहत राशि का मूल्य बहुत अधिक घट गया है.’
ढाकना गांव के रहवासी शालीग्राम बेलसरे बताते हैं कि इन बीस सालों में कई बच्चे 18 साल से अधिक उम्र के हो गए हैं. बीस साल पहले जब सर्वेक्षण हुआ था तब वे छोटे थे और माता-पिता के साथ रहते थे. इसलिए तब वे एक परिवार के सदस्य थे. लेकिन, समय के साथ स्थितियां बदली हैं और कई नए घर और परिवार बने हैं.
शालिग्राम कहते हैं, ‘अब कई लड़कों की शादियां हो गई हैं, उनके अपने बच्चे हैं, अलग घर-परिवार है, लेकिन जब पूरे गांव उजाड़े जाएंगे तो क्या उन्हें मुआवजा मिलेगा? या फिर पिता को ही मुआवजा दिया जाएगा? यदि ऐसा हुआ तो नए परिवारों को फूटी कौड़ी नहीं मिलेगी. नई जगह पर उनका क्या होगा!’

पुनर्वास के कार्यों को लेकर भी लोग हैं असंतुष्ट 

इसके अलावा पुनर्वास के कार्यों को लेकर भी लोग असंतुष्ट हैं. इस बारे में ढाकना की ही रहवासी शांता भिलावेकर बताती हैं कि जिन अठारह गांवों की बसाहट नई जगहों पर हुई हैं वहां बुनियादी सुविधाएं अब तक नहीं मिली हैं. करीब सात-आठ गांव ऐसे हैं जहां आज भी बसाहट से जुड़े काम पूरे नहीं हुए हैं. एक पीढ़ी गुजर गई है, लेकिन पुनर्वास से जुड़े काम कब पूरे होंगे तो इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है.
शांता कहती हैं, ‘इतने लंबे समय बाद भी लोग नई जगह बस नहीं सके हैं. हमें भी एक न एक दिन अपना गांव और अपनी जमीन छोड़नी पड़ेगी. मगर, हम कब तक बसेंगे. लगता तो ऐसा है कि अपने जीते जी ठीक तरह से बस ही नहीं पाएंगे! और दस लाख इतनी मामूली रकम है कि जो लोग गांवों से उजाड़े गए थे, जिन्हें नई जगहों पर ले जाया गया था, उनके पास यह रकम अब बची भी नहीं है. नए सिरे से घर और गृहस्थी जमाने में पैसा तेजी से फुर हो जाता है. फिर मंहगाई भी तो बहुत बढ़ी है. मुआवजे की रकम से नई जगह घर ही कैसे बनेगा, यह भी सोचने वाली बात है. सरकार को पैसा बढ़ाना ही चाहिए.’
शालिग्राम और शांता की तरह यहां के पंद्रह गांवों में कई लोग सरकार की पुनर्वास परियोजना को लेकर आशंकित हैं. उनकी आशंकाएं गलत भी कैसे कही जा सकती हैं जब पुनर्वास को लेकर सरकारी कामकाज के अनुभव इस हद तक कड़वे हों. इसलिए, इस बारे में संजय इंग्ले मानते हैं कि सरकार को अपनी पुर्नवास से जुड़े बिंदुओं पर फिर से समीक्षा करनी पड़ेगी, नए सिरे से सर्वेक्षण करने पड़ेंगे और गांव वालों के साथ संवाद करके उन्हें भरोसे में लेना पड़ेगा. बीस साल बाद मुआवजा की राशि दस लाख से बढ़ाकर कितनी की जानी चाहिए, तो इसे लेकर भी जल्दी निर्णय लिया जाए.
इस बारे में शालिग्राम कहते हैं, ‘बीस साल पहले मंहगाई कम थी. अब खाने की हर चीज के दाम के लिए हमारे पास पैसे नहीं होते. क्योंकि, मंहगाई के हिसाब से मजूरी नहीं बढ़ी. समय के साथ नए खर्चे भी बढ़ रहे हैं. जैसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई. सच दस लाख रुपए देकर हमारा गांव छुड़ा देना बहुत नुकसान का सौदा होगा!’
वहीं, शांता एक दूसरी समस्या बताती हैं. वे कहती हैं, ‘अपनी जगह पर रहकर हमारा खर्च कम आता है. हम यहां हमेशा से रह रहे हैं तो साग-सब्जी वगैरह के लिए पैसा नहीं देना पड़ता है. पर, नई जगह ऐसा थोड़ी ही है. वहां हमें मजूरी मिलेगी या नहीं, मिलेगी तो कहां और क्या काम कराएंगे तो यह भी नहीं पता है. यहां हमारा सिर्फ घर नहीं है, खेत और जंगल भी हैं. इनसे भी हमारा गुजारा हो जाता है. नई जगह सब चीजें ज्यों की त्यों थोड़ी मिलेगी. बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. वे मुआवजा का पैसा तो दे रहे हैं, पर हमारी मेहनत भी तो जाएगी. मेहनत और समय कोई नहीं देख रहा है.’
(शिरीष खरे वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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