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Wednesday, 20 November, 2024
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अमेरिका की चीन पर रणनीति को लेकर ‘अनाम लेखक’ के पेपर में भारत के लिए अहम संदेश छिपा है

पेपर अमेरिका और चीन के बीच तेजी से घटते अंतर के बारे में चेतावनी देता है. मतलब कि भारत को तुरंत फैसला करना है कि अगर साउथ चाइना सी या ताइवान में युद्ध हुआ तो किसी का पक्ष लेना चाहेगा या नहीं.

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इन दिनों हॉलीवुड मार्का नाटकों की कोई कमी नहीं है. ऐसा ही एक नाटक हाल में तब हुआ जब चीन पर ‘द लॉन्गर टेलीग्राम’ नाम का एक बेनाम नीति दस्तावेज़ अमेरिका के रिटायर्ड अफसरशाही के अंदर से निकला. इसमें 1946 में तत्कालीन अमेरिकी उप-राजदूत जॉर्ज केन्नन के 8,000 शब्दों के एक तार संदेश का हवाला दिया गया है, जो चार से ज्यादा दशकों तक सोवियत संघ को अपनी सीमा में रखने की नीति का आधार बना था.

अगर इस पर पूरी तरह अमल किया जाता तो यह उतने लंबे समय तक कायम रहता. ऐसा नहीं भी हो सकता है. इसके कुछ पहलू उन लोगों के गले में अटके रह सकते हैं जिन्हें ‘सोवियत खतरे’ ने गड़प लिया. 1947 में फॉरेन अफेयर्स में गुमनाम रूप से केनन का पत्र प्रकाशित हुआ और एक सनसनी मचा दी. इसे अटलांटिक परिषद ने प्रकाशित किया है, और कम से कम इस दशक के लिए चीन के प्रति अमेरिका की नीति को तय करने में एक केंद्रीय भूमिका निभा सकती है. लेकिन यह और भी दिलचस्प होता जा रहा है. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने व्हाइट हाउस में पहुंचने के पहले ही सप्ताह में इसके कुछ महत्वपूर्ण उपदेशों को अमल में ला दिया है. इसके अलावा, यह दस्तावेज़ भारत के बारे में भी कुछ कहता है या नहीं कहता है, जबकि हमारे अपने कुशल विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने चीन के लिए अपनी सीमित ‘रणनीति’ घोषित कर दी. एक, वृहद ग्रंथ है; दूसरा, एक कूटनीतिक ख़्वाहिश है.

रेत पर लकीर

पहली बात तो यह है कि बिगड़े रिश्ते को ठीक करने के लिए जयशंकर के प्रस्ताव को वास्तव में रणनीति नहीं कहा जा सकता है (हालांकि नरेंद्र मोदी की सरकार को इसकी बहुत दरकार है), बल्कि बीजिंग को दिया गया एक संदेश माना जा सकता है.

इसकी ये मांगें हैं—(1). सभी पुराने समझौतों का पूरी तरह पालन किया जाए, (2) एलएसी की स्थिति को एकतरफा बदलने की कोशिश ‘पूरी तरह अस्वीकार्य’ होगी, जैसा कि देप्सांग में हुआ दिखता है, (3) सीमा पर शांति संबंध को आगे बढ़ाने का आधार होता है, (4) ‘बहुध्रुवीय एशिया’ को मान्यता दी जाए, जिसमें भारत को भी एक ध्रुव माना जाए, (5) इस बात को स्वीकार किया जाए कि एक दूसरे के हितों आदि के प्रति संवेदनशीलता एकतरफा नहीं हो सकती, (6) इस बात को मान्य किया जाए कि हरेक को अपनी आकांक्षाएं पूरी करने का अधिकार है और इसकी ‘उपेक्षा नहीं की जा सकती’, (7) ‘असहमतियों और मतभेदों का संतुलन किया जाए और (8) ‘सभ्य देशों’ की तरह दोनों देशों को दूरदर्शी रवैया अपनाना चाहिए.

यह इस पर निर्भर होगा कि यह कितना ‘लंबा’ है. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग वास्तव में बहुत लंबे समय तक पद पर बने रहने वाले हैं, भाजपा उतने समय तक शायद सत्ता में न रह पाए. यानी, विदेश मंत्री ने यह स्पष्ट किया है कि हालांकि हमारे रिश्ते ‘बहुत तनावपूर्ण’ नहीं हैं इसलिए उन्हें वापस पटरी पर लाया जा सकता है. अब इस सबका आकलन इस बेनाम रणनीति के उपदेशों के आलोक में कीजिए.


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‘द लॉन्गर टेलीग्राम’ का जायजा

पहली बात यह है कि इस दस्तावेज़ के लेखक को चीन के बारे में बहुत जानकारी नहीं है. लेखक एक पूर्व वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी है और अमेरिकी कमजोरियों को बताने में उसे कोई डर नहीं है. अब इस बात पर गौर कीजिए—‘अमेरिका की मुख्य दिलचस्पी अक्सर इस बात में रही है कि किसी घोषणा को अमेरिका की घरेलू राजनीति में किस तरह लिया जाएगा, बजाय इसके कि वह चीन के राजनीतिक सोच को बदलने में कितनी असरदार होगी और और उसके नीतिगत आचरण को किस तरह प्रभावित करेगी.’ यह बात जानी-पहचानी लगती है न?

इसके बाद कार्रवाई संबंधी रणनीति की स्पष्ट मांग की गई है, जो उन लोगों की पसंद है जिसकी मांग वे दिल्ली में वर्षों से करते रहे हैं. किसी दस्तावेज़ को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ नाम दे देने से ही वह वैसा नहीं हो जाता. यह हम 2017 की अहम ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ के मामले में देख चुके हैं, जिसमें चीन को पहली बार एक खतरे के रूप में प्रस्तुत किया गया था, और जिस रणनीति को भीतर से ही कमजोर किया गया था. यह रणनीति इस तरह डिजाइन की गई है कि इसे पूरी तरह लंबे समय तक लागू की जानी चाहिए, या फिर एकदम लागू नहीं की जाए. आधी-अधूरी नहीं चलेगी.

सबसे अहम बात यह है कि यह दस्तावेज़ चेतावनी देता है कि समय न गंवाया जाए. इस रणनीति को तुरंत, छह महीने के अंदर लागू किया जाए. वजह यह कि अमेरिका और चीन के बीच फर्क 2020 वाले दशक में कम होने वाला है और इसके चलते गंभीर टकराव की स्थिति बन सकती है. इसका अर्थ यह हुआ कि भारत को तुरंत फैसला करना है कि अगर साउथ चाइना सी या ताइवान में युद्ध हुआ तो किसी का पक्ष लेना चाहेगा या नहीं.

… और, किया क्या जाना चाहिए

मुख्य सुझाव यह है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) को अलग-थलग करने की कोशिश भी न की जाए, जो कि डोनाल्ड ट्रंप की सरकार ने की रणनीति जैसी थी. इसकी वजह यह है कि लगभग हर कोई और जिनपिंग के 9.1 करोड़ करीबी लोग सीसीपी के सदस्य हैं और अलग-थलग करने की कोशिश उन्हें बांटने की जगह और ज्यादा एकजुट कर देगी. मुख्य सुझाव यह है कि जिनपिंग को पार्टी से तोड़ा जाए, बजाय इसके कि पार्टी को चीनी सत्ता तंत्र से अलग किया जाए. यह वैसा ही होगा जैसे पाकिस्तान में सेना अध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा का कार्यकाल बढ़ाए जाने के साथ उन्हें अगर ‘आजीवन राष्ट्रपति’ भी बना दिया जाए और वे ‘भ्रष्टाचार’ से खुल कर लड़ें जबकि उनका परिवार और उनकी मंडली बेहिसाब दौलत बना ले तो लोगों में असंतोष भड़केगा.

जिनपिंग के विरोधी कई हैं और इन्हें लगता है कि वे ज्यादा ही तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और अमेरिका तथा दुनिया के बड़े हिस्से से उतावलेपन में पंगा ले रहे हैं. वे हैरान हैं कि दुनिया को किस तरह चीन की छवि के मुताबिक बदलने की कोशिश हो रही है. सब ठीक ठाक नहीं है, और आशंका यह है कि अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है, बेरोजगारी बेहिसाब बढ़ सकती है, और युद्ध में नाकामी का अपमान झेलना पड़ सकता है. यह राजनीतिक उथल-पुथल ला सकता है. यह सवाल कायम है कि उसे झटका देने वालों में भारत शामिल होगा या नहीं, भले ही वह ‘यथास्थिति की वापसी’ के लिए ही क्यों न हो.


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भारत, अमेरिका और ‘सहयोगी’ रणनीति

इसके बाद हम कार्रवाई के पहलू पर आते हैं. दस्तावेज़ चीन को परास्त करने के लिए अभूततपूर्व ‘सहयोगी रणनीति’ के तहत धीरे-धीरे कदम बढ़ाने की बात करता है. इस सहयोगी जमात में भारत को शामिल नहीं बताया गया है, उसे नाइजीरिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया के साथ ‘अन्य महत्वपूर्ण’ देशों की सूची में रखा गया है. भारत को इससे बहुत खुशी नहीं होगी, लेकिन उसे सैन्य या आर्थिक रूप से इतना मजबूत नहीं माना गया है कि वह चीन को रोक सके. यह ‘टीपीपी’ (ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप) को पुनर्जीवित करके किया जा सकता है ताकि चीन को ‘दुनिया के लिए अपरिहार्य अर्थव्यवस्था’ के मौजूदा दर्जे से नीचे गिराया जा सके.

लेकिन भारत की भी अपनी भूमिका है. उसे ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका की सदस्यता वाले सम्पूर्ण ‘क्वाड’ (चौकोणीय सुरक्षा संवाद) के प्रति झिझक को तोड़ने के लिए राजी किया जाना चाहिए. इस दर्जे पर खुश होने से पहले यह समझ लेना चाहिए कि यह ‘रणनीतिक होड़’ के तहत हासिल हुआ है, जिसे इस तरह परिभाषित किया गया है कि इस रणनीति के मुताबिक, ‘दांव पर लगे अपने-अपने हित महत्वपूर्ण तो हैं मगर वे अस्तित्व के लिए या निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण नहीं हैं’. ऐसे मामलों में सैन्यबल के प्रयोग की बात नहीं की गई है, क्योंकि इसके साथ ‘सहयोगी के हित’ भी जुड़े होंगे. दूसरे शब्दों में, ‘क्वाड’ का इस्तेमाल चीन को डराने भर के लिए ही किया जा सकता है. जब जयशंकर को यह कहना पड़े कि भारत को एशिया के एक ‘ध्रुव’ के रूप में मान्यता दी जाए, तो इससे जाहिर है कि आपको अपने दम पर रहना है.

हद पार न करें

और भी बुरी बातें हैं. दस्तावेज़ में ‘हदें’ तय करने की बात की गई है, जो ठीक भी है. मसलन जापान या ताइवान की संप्रभु क्षेत्रों पर हमला करने से परहेज करने की बात, जिसका जवाब उपलब्ध ताकत और प्रतिरोध के औजारों से दिया जाएगा. दस्तावेज़ कहता है कि इन मामलों में अस्पष्टता के कारण ही चीन ने धीरे-धीरे अपना दांव बढ़ाया. ‘चीनी नेता ताकत का सम्मान करते हैं, कमजोरी से नफरत करते हैं. उन्हें अपनी बात पर टीके रहना पसंद है, वे ऊहापोह से नफरत करते हैं. चीन रणनीतिक शून्यता में विश्वास नहीं करता.’ क्या देप्सांग और लद्दाख के दूसरे हिस्सों को शून्यता के रूप में देखा गया? उम्मीद की जा रही है कि जापान और भारत के प्रति चीन आक्रामक रुख रखेगा, लेकिन भारत जैसे अहम रणनीतिक सहयोगी के खिलाफ ‘बड़े पैमाने पर आर्थिक या सैन्य आक्रामकता’ का सैन्य मुक़ाबला करने की बजाय मजबूत कूटनीतिक मुक़ाबला किया जाएगा. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि आप किसी संधि के सहभागी नहीं हैं. लेकिन, अगर यह निश्चित भूल नहीं है, तो दस्तावेज़ इसी श्रेणी में ‘संधि के कुछ सहभागियों’ की बात करता है. अमेरिका के ऐसे 47 साथी हैं— यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया उनमें सबसे ऊपर हैं. बाकी बस जुड़े रह सकते हैं.

आगे, दस्तावेज़ में कठोर वास्तविकता दर्ज है. यह सुझाव देता है कि अमेरिका रूस से सुलह कर ले, ‘चाहे उसे यह पसंद हो या नहीं’. चीन अपनी पश्चिमी सीमा की खुशी से अनदेखी करता है, तो पूरब में अपनी सेना का जमावड़ा कर सकता है. भारत अमेरिकी नीति निर्माताओं को वर्षों से इस बात को समझाने की नाकाम कोशिश कर रहा है.

ऐसा लगता है कि अमेरिका ने अब सुनना शुरू किया है, हालांकि भारत को नहीं. राष्ट्रपति बाइडेन ने रूसी राष्ट्रपति को जो संदेश दिया है वह सारा का सारा मधुर नहीं है लेकिन इसमें हथियारों पर रोक लगाने की संधि और ‘रणनीतिक स्थिरता’ पर सहमति जताई गई है. इस बेनाम रणनीति का साफ संकेत जापान के प्रधानमंत्री सुगो को बाइडेन ने जो संदेश दिया उससे मिलता है. बाइडेन ने न केवल जापान (सेंकाकु द्वीपों समेत) की सुरक्षा के प्रति ‘अटूट प्रतिबद्धता’ जताई बल्कि अमेरिका की ओर से ‘प्रतिरोधक सुरक्षा’ देने की भी पुष्टि की. इसे बेहतर हद माना जा सकता है.

भारत के लिए, यह रणनीति उस पृष्ठभूमि को रेखांकित करती है जिसके मद्देनजर हमारी रणनीतिक ‘प्रस्तावों’ का आकलन किया जाना चाहिए.

पहली बात यह कि इस दशक में जिनपिंग और उनकी मंडली चीन को अमेरिका की बराबरी में लाने की पुरजोर कोशिश करेगी. वह एक ऐसी ताकत बन जाएगी, जो किसी सीमा विवाद को विवादित या किसी शंका में नहीं रहने देगी. न ही वह आपको एशिया में एक ‘ध्रुव’ के रूप में देखने वाला है. दूसरी बात यह कि यह ताकत कुछ टकरावों की आहट देती है. यह भारत के लिए अच्छा होगा या नहीं, यह तुरंत गंभीरता से विचार करने का मामला है. तीसरे, यह तो हमेशा की तरह साफ है कि दुनिया के इस भाग में ‘संतुलनकारी’ शक्ति के रूप में अमेरिका की भूमिका की अपनी सीमाएं हैं. इससे यह सवाल खड़ा होता है कि चीन का रथ जब आगे बढ़ता जा रहा है, और अहम निवेश समझौते के बाद अब यूरोप को भी अपने पक्ष में ले रहा है तब उसके साथ सीमित स्तर पर जुड़ा जाए या नहीं.

भारत के लिए, चीन अभी भी ‘निर्णायक बातों का सबसे बड़ा स्रोत’ बना हुआ है. वास्तव में, अगर मौजूदा सीमा विवादों का सदभावनापूर्ण निपटारा हो गया तो यह ‘दीर्घकालिक सोच’ का मामला हो सकता है. समस्या यह है कि चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजीयन ने सीमा विवाद को द्विपक्षीय संबंधों से जोड़ने से साफ माना कर दिया. यह बयान साफ तौर पर जयशंकर की ‘अमान्य’ कसौटी के दायरे में आता है, जो स्वाभाविक भी है. साथ जुड़ने की जगह यह समय शायद इस एहसास के साथ हल्का झटका देने का है कि आपके पीछे बहादुर भारतीय सेना के सिवा कोई नहीं है. लेकिन यह तो हम हमेशा से जानते हैं, तमाम अमेरिकी रणनीतियों के बावजूद.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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