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Friday, 15 November, 2024
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महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगी पाबंदी का आरएसएस पर क्या प्रभाव पड़ा

1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध ने संगठन के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

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नई दिल्ली: 30 जनवरी 1948 को नई दिल्ली में महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई थी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर उस दिन चेन्नई में थे और उन्होंने सभी शाखाओं के लिए निर्देश जारी किए थे.

इस निर्देश में कहा गया, ‘सम्मानीय महात्माजी के असमय निधन पर दुख जताने के लिए शाखाएं 13 दिनों की अवधि तक शोक संवेदना व्यक्त करेंगी और सभी दैनिक कार्यक्रमों को बंद रखा जाएगा.’

वह 31 जनवरी को हवाई जहाज से नागपुर के लिए रवाना हुए.

दिल्ली में प्रांत संघचालक लाला हंसराज गुप्ता और प्रांत प्रचारक वसंतराव ओक बिड़ला भवन पहुंचे और कांग्रेस के कई नेताओं से मिलकर अपनी शोक संवेदनाएं व्यक्त कीं.

लेकिन कांग्रेस के एक वर्ग, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बढ़ते प्रभाव से असहज महसूस कर रहा था, को यह संगठन को खत्म करने का एक अच्छा अवसर नजर आया.

तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अमृतसर में घोषणा की, ‘राष्ट्रपिता की हत्या के लिए आरएसएस जिम्मेदार है.’

गुरूजी, जिस संबोधन से गोलवलकर लोकप्रिय थे, को 2 फरवरी को गिरफ्तार कर लिया गया और 4 फरवरी को केंद्र सरकार की अधिसूचना के माध्यम से आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

नागपुर में गिरफ्तार किए जाने के दौरान सरसंघचालक ने कहा, ‘संदेह के बादल जल्द छंट जाएंगे और हम इससे बेदाग बाहर आएंगे. तब तक बहुत सारे अत्याचार होंगे लेकिन हमें धैर्य के साथ यह सब सहन करना चाहिए. मेरा दृढ़ विश्वास है कि संघ स्वयंसेवक इस अग्निपरीक्षा में सफलता हासिल करेंगे.’

उन्हें नागपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया था.

उस समय केंद्रीय प्रांत के गृहमंत्री रहे द्वारिका प्रसाद मिश्र ने अपनी आत्मकथा लिविंग इन एन इरा में लिखा है, ‘इस बात से इनकार करना मुश्किल है कि महात्मा गांधी की हत्या ने निर्लज्ज राजनेताओं को अपने प्रतिद्वंद्वियों को बदनाम करने और यदि संभव हो तो उन्हें पटखनी देने का अवसर प्रदान कर दिया था.’ (मूल अंग्रेजी संस्करण में पृष्ठ संख्या 59)

आरएसएस पर प्रतिबंध अंततः 11 जुलाई 1949 की आधी रात को हटा लिया गया. गुरूजी को 13 जुलाई 1949 को बैतूल जेल से रिहा किया गया. वह वहां से सीधे नागपुर पहुंचे.

प्रतिबंध के दौरान सरकार ने आरएसएस मुख्यालय डॉ. हेडगेवार भवन पर कब्जा कर लिया था. इसे 17 जुलाई 1949 को फिर से आरएसएस को सौंपा गया.

अगले दिन मोहिते ग्राउंड में आरएसएस की शाखा शुरू हुई. इस अवसर पर स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए गुरूजी ने कहा, ‘हमारा काम आज फिर से शुरू हो रहा है. नींद से जागने वाला व्यक्ति तरो-ताजा और ऊर्जावान महसूस करता है. हमें भी उसी उत्साह के साथ अपना काम शुरू करना होगा.’


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आरएसएस और राजनीति

प्रतिबंध हटते ही आजाद भारत में आरएसएस की भूमिका को लेकर संगठन के भीतर मंथन का दौर शुरू हो गया.

संगठन पदाधिकारियों का एक तबका चाहता था कि आरएसएस को एक राजनीतिक दल में बदला जाए और चुनावी राजनीति में हिस्सा लिया जाए. जबकि दूसरा तबका चाहता था कि आरएसएस सक्रिय राजनीति से दूर रहे.

तब गुरूजी ने एक बीच का रास्ता निकाला.

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी तब तक पंडित नेहरू की नीतियों के विरोध में उनकी कैबिनेट से इस्तीफा दे चुके थे. वह एक नई राजनीतिक पार्टी गठित करने पर विचार कर रहे थे.

मुखर्जी ने 1951 की शुरुआत में नागपुर के संघचालक बाबासाहेब घटाते घर पर गुरूजी, बालासाहेब देवरस और भाऊराव देवरस से मुलाकात की. विचार-विमर्श के बाद भारतीय जनसंघ की शुरुआत का निर्णय लिया गया.

आरएसएस ने अपने कुछ प्रचारकों को राष्ट्रवादी पार्टी स्थापित करने में मदद करने के काम में लगाया, जबकि यह स्पष्ट कर दिया कि आरएसएस सीधे तौर पर किसी भी राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं होगा.

इस सबके लिए दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख जैसे प्रचारक मुखर्जी के साथ भारतीय जनसंघ से जुड़ गए.

वाजपेयी बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने. नवगठित संगठन के काम में लगाए गए लालकृष्ण आडवाणी, सुंदर सिंह भंडारी जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तमाम पदाधिकारियों ने मौजूदा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

भाजपा 1977 में जनता पार्टी में विलय के बाद भारतीय जनसंघ का नया अवतार बनी. हालांकि, जनता पार्टी टूट गई और 1980 में भाजपा की स्थापना हुई.

आरएसएस आज भी अपने इस रुख पर कायम है कि सक्रिय राजनीति से दूर रहेगा और केवल एक वैचारिक गुरू की भूमिका निभाएगा. जब भी भाजपा को जरूरत पड़ती है, तब इसके कुछ प्रचारकों को पार्टी के काम में लगा दिया जाता है.

समन्वय का यह खाका 1950 के दशक की शुरुआत में ही विकसित हुआ था.

संवाद कौशल

आरएसएस पर प्रतिबंध का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव यह था कि इसने महसूस किया कि व्यापक स्तर पर मीडिया प्लेटफॉर्म बनाने में मदद करनी चाहिए जहां इसकी आवाज भी सुनी जाती हो.

पाबंदी के दौरान आरएसएस को इसके विरोधियों ने बुरी तरह बदनाम कर दिया था और ऐसे मंच बहुत ही कम थे जहां संघ के पक्ष को प्रकाशित किया जाता हो.

प्रतिबंध हटने के बाद आरएसएस ने अपने स्वयंसेवकों को अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में अखबार, पाक्षिक पत्र-पत्रिकाएं और अन्य मैगजीन निकालने के लिए प्रोत्साहित किया.

अपने साप्ताहिक पांचजन्य और ऑर्गनाइजर को मजबूत करने के अलावा इसने अगले कुछ सालों में कई अन्य समाचारपत्र शुरू करने के किए प्रोत्साहन दिया जैसे तरुण भारत, स्वदेश आदि.

आज आरएसएस से वैचारिक संगठनों की तरफ से दर्जनों प्रकाशन निकाले जा रहे हैं जो संगठन के वैचारिक दृष्टिकोण को देश के लगभग हर चौक-चौराहे तक पहुंचाने में मदद करते हैं.

सत्याग्रह की कला

प्रतिबंध का तीसरा प्रभाव था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सत्याग्रह की प्रभावशीलता को समझा, अहिंसा के जिस रास्ते को सबसे पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी ने अपनाया था. आजादी के बाद पहला सत्याग्रह शुरू करते हुए 77,000 से अधिक आरएसएस स्वयंसेवकों ने प्रतिबंध के खिलाफ अपनी गिरफ्तारी दी थी.

इसने सरकार को प्रतिबंध हटाने के लिए बाध्य करने में अहम भूमिका निभाई. आरएसएस ने आपातकाल (1975-1977) के दौरान फिर सत्याग्रह का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जब इसे दूसरी बार प्रतिबंधित किया गया था.

विस्तार और सुदृढ़ीकरण

चौथा प्रभाव यह था कि आरएसएस ने अपनी पहुंच बढ़ाने और संगठन को सुदृढ़ करने के लिए एक बड़ा प्रयास किया. 1952 में आरएसएस ने अपने स्वयंसेवकों को स्वदेशी शिक्षा का एक मॉडल स्थापित करके शिक्षा के क्षेत्र में कदम रखने के लिए प्रेरित किया.

इस मुद्दे पर गुरुजी की प्रोफेसर राजेंद्र सिंह, नानाजी देशमुख, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और भाऊराव देवरस के साथ विस्तृत चर्चा हुई.

नतीजतन, गोरखपुर में नानाजी देशमुख के नेतृत्व में पहला सरस्वती शिशु मंदिर अस्तित्व में आया.

इसके सभी शिक्षक स्नातक थे और अपने प्रचारक जीवन से सेवानिवृत्त हो चुके थे. गुरूजी ने भवन की आधारशिला रखी. आज, देश में सबसे ज्यादा स्कूल इस अभियान के तहत चल रहे हैं जिसमें लाखों छात्र शिक्षा लेते हैं.

1952 में आरएसएस ने गौरक्षा आंदोलन भी शुरू किया. अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (आरएसएस का सर्वोच्च नीति निर्णायक निकाय) ने देशभर में गोहत्या पर प्रतिबंध के लिए सितंबर 1952 में नागपुर में एक प्रस्ताव पारित किया.

बड़े पैमाने पर देशव्यापी अभियान शुरू हुआ. गुरूजी ने एक बयान में कहा, ‘हस्ताक्षर अभियान का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रपति के समक्ष करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर वाली एक विशाल अपील पेश करना है. यह प्रखर देशभक्ति वाला कार्य है. मेरा निवेदन है कि इस देश के प्रत्येक नागरिक को धर्म, संप्रदाय, जाति, पार्टी आदि की भावनाओं से ऊपर उठकर इस पवित्र कार्य में हिस्सा लेना चाहिए.’

उन्होंने राजनीतिक नेताओं, संपादकों और धर्मगुरुओं को व्यक्तिगत रूप से पत्र लिखे. हस्ताक्षर अभियान को औपचारिक रूप से मुंबई में सरकार्यवाहजी भैयाजी दानी और गुरूजी ने शुरू किया था.

आरएसएस स्वयंसेवकों ने 94,459 गांवों और कस्बों से हस्ताक्षर जुटाए. इस पर कुल 1,79,89,332 लोगों ने हस्ताक्षर किए थे.

8 दिसंबर 1952 को गुरूजी ने इस हस्ताक्षरित अपील के साथ राष्ट्रपति से मुलाकात की और देशभर में गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने का आग्रह किया.

गौरक्षा अभियान का मुख्य असर यह हुआ कि इसने आरएसएस को एक संगठन के तौर पर मजबूती से स्थापित किया और लोगों के बीच उसकी पहुंच भी खासी बढ़ गई.

अब देश में कहीं भी कोई आपदा या विपदा आने पर आरएसएस पूरी सक्रियता के साथ राहत और पुनर्वास के कार्यों में शामिल होता है.

इसके लिए बाकायदा सेवा विभाग की स्थापना की गई है. आरएसएस और उससे प्रभावित संगठनों की तरफ से इस समय ‘सेवा विभाग’ के मार्गदर्शन में देशभर में लगभग दो लाख सामाजिक कल्याण परियोजनाएं चलाई जा रही हैं.

(उपरोक्त जानकारी श्री गुरूजी समग्र (खंड 1 से 12), ‘द सैफ्रन सर्ज: अनटोल्ड स्टोरी ऑफ आरएसएस लीडरशिप’ और आरएसएस ऑर्काइव से ली गई है.)

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र के रिसर्च डायरेक्टर है. उन्होंने आरएसएस पर दो किताबें लिखी हैं.)


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