नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश, गुजरात, और बिहार ने सबसे अच्छे तरीक़े से कोविड-19 को फैलने से रोका. केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश ने सबसे ज़्यादा जीवन बचाए हैं. कोविड मामलों को फैलने से रोकने, और ज़िंदगियां बचाने में सबसे कम काम महाराष्ट्र ने किया है. महामारी के दौरान भारतीय प्रांतों के सापेक्षिक प्रदर्शन पर, ये निष्कर्ष 2021 के आर्थिक सर्वेक्षण के हैं.
शुरू में ही घोषित, भारत के कड़े लॉकडाउन का मज़बूती से समर्थन करते हुए, देश के आर्थिक स्वास्थ्य के वार्षिक दस्तावेज़ में, जिसे शुक्रवार को संसद के पटल पर रखा गया, महामारी को संभालने में भारत की सफलता, और वी-शेप आर्थिक रिकवरी, दोनों का श्रेय इसी फैसले को दिया गया.
सर्वेक्षण में कहा गया, ‘भारत ने समझ लिया कि जीडीपी विकास दर तो महामारी के अस्थाई झटके से उबर जाएगी, लेकिन खोई हुई इंसानी ज़िंदगियां वापस नहीं लाई जा सकतीं. भारत की प्रतिक्रिया महामारी विज्ञान और आर्थिक रिसर्च पर आधारित थी, ख़ासकर स्पेनिश फ्लू के बारे में, जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया था, कि जल्दी से एक गहन लॉकडाउन की घोषणा करके, जीवन बचाए जा सकते हैं, और मध्यम से दीर्घकाल में आर्थिक रिकवरी कि ज़रिए, जीविकाओं को सुरक्षित रखा जा सकता है.
सर्वेक्षण में आगे कहा गया, ‘इस रणनीति को हैंसन एंड सार्जेंट (2001) में, नोबल पुरस्कार जीतने वाली रिसर्च से भी प्रेरणा मिली, जिसमें सबसे ख़राब स्थिति में जहां अनिश्चितता बहुत होती है, घाटों को कम करने वाली नीति पर, फोकस करने की सिफारिश की गई है. एक अभूतपूर्व महामारी और उससे उपजी अनिश्चितता के सामने, इतनी सारी इंसानी ज़िंदगियों का नुक़सान, एक सबसे ख़राब परिदृश्य था. इस रणनीति को महामारी के प्रति भारत की कमज़ोरियों के अनुकूल भी बनाया गया’.
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NCDs अभी भी सबसे ज़्यादा घातक
दिलचस्प ये है कि सर्वेक्षण में, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में कोविड के आंकड़ों पर नज़र डाली गई है, जहां स्वास्थ्य ख़र्च का रिकॉर्ड बेहतर है, और ये निष्कर्ष निकाला गया है, कि बेहतर स्वास्थ्य ढांचा कोई गारंटी नहीं है, कि वो मुल्क कोविड जैसी विनाशकारी महामारी से, बेहतर ढंग से निपट सकता है.
सर्वे में कहा गया है कि कोविड भले ही एक संक्रामक रोग है, और इसने भारत की स्वास्थ्य प्रणाली की मुस्तैदी का इम्तिहान लिया है, लेकिन ‘दुनिया भर में 71 प्रतिशत, और भारत में क़रीब 65 प्रतिशत मौतें, ग़ैर-संक्रामक बीमारियों के कारण होती हैं’.
उसमें ये भी कहा गया: ‘चूंकि अगला स्वास्थ्य संकट संभवत: कोविड-19 से बहुत अलग हो सकता है, इसलिए हमारा फोकस हेल्थकेयर सिस्टम को सामान्य रूप से बनाने पर होना चाहिए, न कि ऐसा जो सिर्फ संक्रामक बीमारियों पर केंद्रित हो’.
सर्वेक्षण में स्वास्थ्य के ख़राब निष्कर्षों, पहुंच की कमी, और जेब से ज़्यादा ऊंचे ख़र्च को, भारत की स्वास्थ्य प्रणाली की, निरंतर समस्याओं के रूप में चिन्हित किया गया. इसमें ये भी कहा गया कि अधिक संपन्न राज्य, अपनी जीडीपी का कम हिस्सा स्वास्थ्य पर ख़र्च करते हैं, लेकिन अकसर उनके हाथ मानव संसाधनों की कमी से भी बंधे होते हैं.
सर्वेक्षण में कहा गया, ‘हालांकि भारत में, स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधनों का कुल घनत्व, 23 की निचली दहलीज पर ही है, लेकिन पूरे प्रांत में फैले स्वास्थ सेवा कर्मियों का वितरण असंतुलित ही है. इसके अलावा उनका कौशल मिश्रण (डॉक्टर/नर्स-मिडवाइफ अनुपात) भी कहीं तक पर्याप्त नहीं है.
उसमें आगे कहा गया, ‘स्वास्थ्य कर्मियों और कौशल मिश्रण में राज्यवार अंतर से पता चलता है, कि जहां केरल और जम्मू-कश्मीर में डॉक्टरों का घनत्व ज़्यादा है, वहीं पंजाब, हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में, नर्सों और मिडवाइफों की एक बड़ी संख्या है, लेकिन डॉक्टरों का घनत्व बहुत कम है. आंध्र प्रदेश, दिल्ली और तमिलनाडु में डॉक्टरों, नर्सों और मिडवाइफों का, एक बेहतर संतुलन नज़र आता है’.
सर्वे में ये भी कहा गया कि अनियमित निजी उद्यम का, काफी नकारात्मक असर पैदा हो सकता है.
PM-JAY ने बीमा कवर बढ़ाया
हालांकि प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना (पीएम-जे), अपने 50 करोड़ लक्षित लाभार्थियों में से अभी तक, केवल 13.5 करोड़ पंजीकरण ही कर पाई है, लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है, कि इसने देश में स्वास्थ्य बीमा कवरेज पर काफी प्रभाव डाला है.
सर्वेक्षण में कहा गया, ‘तमाम राज्यों पर नज़र डालें, तो जिन सूबों में पीएम-जे को लागू किया गया, वहां स्वास्थ्य बीमा वाले घरों का अनुपात 54 प्रतिशत बढ़ गया, जबकि स्कीम को लागू न करने वाले सूबों में, ये 10 प्रतिशत कम हो गया. इसी तरह बिहार, असम और सिक्किम में स्वास्थ्य बीमा रखने वाले घरों का अनुपात, 2015-16 से 2019-20 के बीच 89 प्रतिशत बढ़ गया, जबकि इसी अवधि में पश्चिम बंगाल में, ये 12 प्रतिशत कम हो गया’.
सर्वेक्षण में कहा गया, ‘जिन सूबों ने पीएम-जे को नहीं अपनाया, वहां 2015-16 से 2019-20 के बीच, शिशु मृत्यु दर में 12 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई, जबकि इसे लागू करने वाले राज्यों में, ये गिरावट 20 प्रतिशत थी’.
बिहार उन राज्यों में है जहां बहुत कम पंजीकरण ने, अब नेशनल हेल्थ अथॉरिटी को मजबूर कर दिया है, कि लाभार्थियों का आधार बढ़ाने के लिए, वहां पर एक विशेष अभियान चलाए.
2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लॉन्च की गई, पीएम-जे योजना का लक्ष्य, सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना में, ‘वंचितों’ की सूची में रखे गए सभी 10.74 करोड़ घरों को, 5 लाख रुपए प्रति परिवार हेल्थ कवर देकर, विनाशकारी स्वास्थ्य ख़र्चों से पैदा हुई ग़रीबी को रोकना है.
आंकड़ों के अनुसार, सर्वे में कहा गया कि पीएम-जे के तहत किए जाने वाले प्रोसीजर्स में, एक बड़ा हिस्सा डायलेसिस का है, और इसका इस्तेमाल कोविड के दौरान भी कम नहीं हुआ. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत में हर वर्ष अंतिम स्टेज की गुरदे की बीमारी के, 2.2 लाख नए मरीज़ बढ़ जाते हैं, जिससे हर साल 3.4 करोड़ डायलेसिस की अतिरिक्त मांग पैदा हो जाती है.
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