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Friday, 22 November, 2024
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चीन की चुनौती के खिलाफ भारत की लड़ाई बजट 2021 से शुरू होनी चाहिए

वित्तीय संकट के बीच, भारतीय सशस्त्र बलों को भी अपने आधुनिकीकरण की योजनाओं को पूरा करने के लिए आवंटन में वृद्धि की उम्मीद है. मोदी सरकार को इसे पूरा करना होगा.

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कोविड महामारी के बाद एक आर्थिक संकुचन की पृष्ठभूमि में, नरेंद्र मोदी सरकार अगले हफ्ते 2021-22 के लिए बजट पेश करेगी. लेकिन सभी की निगाहें उस राशि पर होंगी, जो सरकार रक्षा मंत्रालय को आवंटित करेगी.

ऐसा बुनियादी रूप से इसलिए है, कि दुनिया के अधिकतर देशों के विपरीत, जो मुख्य रूप से कोविड-19 की वजह से, सुस्त हो रही अर्थव्यवस्था से जूझ रहे हैं, भारत के सामने एक दूसरी बड़ी चुनौती है- चीन.

और इसलिए, गंभीर वित्तीय संकट से जूझ रहे सशस्त्र बलों की अपेक्षाएं भी बढ़ी हुई हैं, कि उनकी आधुनिकीकरण योजनाओं को पूरा करने के लिए, आवंटन में बढ़ोतरी की जाएगी.

सशस्त्र बलों का सामना चीन से है, एक ऐसा देश जिसका दुनिया में, दूसरा सबसे बड़ा रक्षा बजट है. 2020 में चीन का अधिकारिक रक्षा बजट, 179 बिलियन डॉलर्स था, भारत के बजट से तीन गुना.

जहां 2020-21 के लिए भारत का रक्षा बजट, जिसमें पेन्शंस भी शामिल थीं, केंद्र सरकार के पूरे योजनागत ख़र्च का 15.5 प्रतिशत था, वहीं चीन का अधिकारिक रक्षा आवंटन, उसके कुल बजट का 36.2 प्रतिशत था.

मैं ‘अधिकारिक’ शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं, क्योंकि 1990 के दशक के उत्तरार्ध से, बहुत से विश्लेषक मानते रहे हैं, कि चीनी सैन्य गतिविधियों का एक बड़ा हिस्सा, सरकार की ओर से जारी रक्षा बजट में, दिखाया नहीं जाता.

अपनी ताज़ा रिपोर्ट में, स्वीडन के एक थिंक-टैंक स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई) ने, 2019 के लिए चीन के वास्तविक रक्षा बजन का आंकलन, 240 बिलियन डॉलर किया था, जबकि उसका अधिकारिक आंकड़ा 175 बिलियन डॉलर था.

हमें एक चीज़ समझ लेनी चाहिए- भारत कभी भी चीन के रक्षा ख़र्च की बराबरी नहीं कर सकता, और ये सोचना भी बेवक़ूफी होगी, कि उसे करना चाहिए.


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भारत को अपनी लड़ाइयां समझदारी से चुननी चाहिए

चीन की चुनौती ने भारत के लिए ज़रूरी कर दिया है, कि वो तय करे कि उसे कौन सी लड़ाई लड़नी है. क्या वो मौजूदा सिस्टम्स की नई पीढ़ियों को ख़रीदने में, करोड़ों-अरबों डॉलर झोंकना चाहता है, या उसे भविष्य की टेक्नोलॉजी में निवेश करना है? क्या भारत को लगता है कि अगली लड़ाई हिमालय में लड़ी जाएगी, या उसे लगता है कि- पानी के अंदर- नौसैनिक युद्ध एक अधिक समझदारी वाली लड़ाई होगी?

अब हो ये रहा है कि चीन ने भारत को, पहाड़ी उत्तरी सीमाओं पर हज़ारों की संख्या में सैनिक, और उपकरण तैनात करने के लिए मजबूर कर दिया है. चीनी सेना के खिलाफ तैयारी करने के लिए, जिसने ज़मीन पर आक्रामकता दिखाई, भारत ने आपात खंड के तहत बहुत से उपकरण ख़रीदे हैं, और अभी भी ख़रीद रहा है.

रक्षा संस्था में बहुत से लोगों का मानना है, कि लद्दाख़ गतिरोध का सबसे अच्छा परिणाम, एक बराबरी की स्थिति हो सकती है, जिसका मतलब होगा कि भारत या चीन कोई भी, जीत का दावा नहीं कर पाएगा. लेकिन आपको ये सवाल भी पूछना होगा, कि क्या चीन कोई लड़ाई चाहता है, या वो केवल भारत को उत्तरी सीमाओं में उलझाए रखना चाहता है?

रक्षा मंत्रालय के सूत्र इस बात को मानते हैं, कि एक क्षेत्र जहां भारत को चीन पर बढ़त हासिल है, वो है समुद्र. लेकिन क्या इसका मतलब ये है, कि हमें इस टकराव को हिमालय की अपनी सीमाओं से हटाकर, साउथ चाइना सी और हिंद महासागर में ले जाना चाहिए?

उसकी ज़रूरत नहीं है, लेकिन चीन होशियार है और वो टकराव को पहाड़ों तक सीमित रखना चाहेगा. मोदी सरकार में सूत्रों का कहना है, कि वो सुनिश्चित करेंगे कि सशस्त्र बलों को धन की बिल्कुल चिंता न हो, और वो जो चाहते हैं वो दिया जाएगा.


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रक्षा बजट, एक बढ़ती चिंता

2018 तक, तत्कालीन उप-सेना प्रमुख ले. जन. शरत चंद ने, रक्षा पर संसदीय स्थायी समिति के सामने गवाही दी थी. उन्होंने कहा था कि 2018-19 के बजट ने, बल के पर्याप्त आधुनिकीकरण की ‘उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था’.

चंद ने संसदीय पैनल से कहा, ‘आधुनिकीकरण के लिए 21,388 करोड़ रुपए का आवंटन, चल रही 125 स्कीमों, आपात ख़रीद, और दूसरी ज़रूरतों के प्रतिबद्ध भुगतान की, 29,033 करोड़ रुपए की ज़रूरत को भी पूरा नहीं करता’.

2019-20 के बजट में, सेना का पूंजि शेयर 32,474 करोड़ रुपए था. बलों का बजट कमियों को भी पूरा नहीं कर सकता.

जेएनयू के स्पेशल सेंटर फॉर नेशनल सिक्योरिटीज़ स्टडीज़ में, एसोशिएट प्रोफेसर लक्ष्मण कुमार बहेड़ा ने कहा: ‘पिछले सात सालों में, (रक्षा मंत्रालय का) संसाधन आवश्यकता और आवंटन के बीच का अंतर, जो थोड़े समय के लिए 2013-14 के 27 प्रतिशत से घटकर, 2015-16 में 14 प्रतिशत हुआ था, 2018-19 में बढ़कर 30 प्रतिशत, और 2019-20 में 25 प्रतिशत हो गया है’.

बलों के लिए कोई और रास्ता नहीं है, सिवाय अपने ख़र्च को तर्कसंगत करने के. तीनों बलों- थलसेना, नौसेना और वायुसेना- को एक साथ आकर फिर से ग़ौर करना होगा, कि पैसा कहां ख़र्च करने की ज़रूरत है.

बिना जवाब के सवाल

क्या अधिक टैंक ख़रीदने की कोई तुक है, जब दुश्मन के पास बड़ी संख्या में टैंक-रोधी निर्देशित मिसाइलें (एटीजीएम), और हमलावर चॉपर्स मौजूद हैं? क्या अत्याधुनिक हवाई रक्षा प्रणालियों में निवेश सही रहेगा, या और सिंगिल इंजिन लड़ाकू विमान आयात करना उचित होगा, जबकि भारत के पास अपने ऐसे विमान मौजूद हैं? क्या नौसेना को और अधिक पनडुब्बियां चाहिए, या एक तीसरा एयरक्राफ्ट कैरियर? कोई नहीं कह सकता कि भविष्य में, दो लड़ाकू विमानों के बीच डॉग-फाइट्स होंगी, या मानव-रहित सशस्त्र ड्रोन्स ये काम करेंगे. अज़रबाइजान और अर्मेनिया के बीच हालिया युद्ध ने दिखा दिया, कि आधुनिक तकनीक किस तरह, परंपरागत रक्षा प्रणालियों को चकनाचूर कर सकती है.

ऐसे बहुत से सवाल हैं. और इसलिए भारत के लिए ज़रूरी है, कि रक्षा ख़रीद और आधुनिकीकरण के लिए, उसके पास एक स्पष्ट दूरंदेशी नीति हो. वित्तीय रूप से कहें, तो मोदी सरकार को रिसर्च पर अधिक बल देना चाहिए. मेरा तात्पर्य केवल रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) से नहीं, बल्कि निजी क्षेत्र से भी है.

सरकार को मज़बूती के साथ, तीनों सेवाओं के एकीकरण की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए. अलग अलग सेवाओं के लिए, एक ही तरह के उपकरण ख़रीदने की कोई तुक नहीं बनती.

सरकार को उस समय दृढ़ता से विरोध करना चाहिए था, जब थल सेना और वायु सेना, अपाचे हेलिकॉप्टर्स को लेकर आपस में टकराईं थीं, जिसके नतीजे में दोनों सेवाओं के लिए, अलग अलग ऑर्डर्स दिए गए, जिनका रक्षा बजट कम से कम 2,500 करोड़ रुपए था.

चीन का ज़ोर एक सीख बन सकता है

चीन एक जनशक्ति-गहन बल से हटकर, तकनीक- संचालित बल की ओर जा रहा है. उसकी मुख्य सैन्य शक्ति पैदल सेना में नहीं, बल्कि साइबर और स्पेस के अलावा, रॉकेट बल और सशस्त्र ड्रोन्स में है.

चीनी लोग अपने भविष्य की टेक्नोनोलॉजी और सेवा- नौसेना में निवेश कर रहे हैं. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) नौसेना, दुनिया का सबसे तेज़ी से बढ़ता हुआ नौसैनिक बल है.

हर साल, चीन के कुल रक्षा बजट में पीएलए थल सेना का हिस्सा घटता जा रहा है, जबकि पीएलए नौसेना का बढ़ रहा है. वायुसेना के लिए वो स्टेल्थ टेक्नोलॉजी पर ध्यान लगा रहे हैं, जबकि जेएफ-17 जैसे विमान निर्यात के लिए ज़्यादा रखना चाहते हैं. इसके लिए योजना और दूरदर्शिता चाहिए होती है.

अब समय है कि भारत भी सोचे, और उसपर तेज़ी से अमल करे.


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