प्रधानमंत्री के पेरिस जलवायु समझौते पर दिए गए भाषण को एक तरफ रखकर आदित्य ठाकरे का पत्र पढ़िए, जमीनी एहसास होगा. आदित्य ठाकरे महाराष्ट्र के पर्यावरण मंत्री है, उन्होने केंद्र सरकार को मैंग्रोव संरक्षण पर एक पत्र लिखा है, इस पत्र में दिल्ली के मीडिया की रूचि नही है, उसका ध्यान दूसरे बड़े पर्यावरणीय ड्रामें पर केंद्रित है.
ठाकरे के पत्र पर नजर डालने से पहले प्रधानमंत्री के गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले दिए भाषण को समझ लीजिए. नीदरलैंड में आयोजित पर्यावरण समिट जिसका पूरा नाम क्लाइमेट एडाप्टेशन समिट है, में उन्होंने कहा, कि हम पेरिस जलवायु समझौते को लक्ष्य से भी अधिक हासिल कर लेंगे. पेरिस समझौते का लक्ष्य है – वैश्विक तापमान 2 डिग्री से नीचे रखना और कोशिश करना कि वह 1.5 डिग्री से ज्यादा ना बढ़े. इस वैश्विक लक्ष्य को हासिल करने के लिए विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के लिए प्रोत्साहन उपाय रखे गए हैं. इस लक्ष्य को हासिल करने के रोडमैप के तौर पर उन्होने यजुर्वेद का नाम लिया जिसमें पृथ्वी का मां कहा गया है और जिसकी रक्षा की जानी चाहिए. ठीक वैसे ही जैसे उन्होने कहा था कि ‘मुझे गंगा ने बुलाया है.’
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71 और 17 का फर्क
प्रधानमंत्री ने कहा कि 2030 तक नवीकरणीय या हरित उर्जा लक्ष्य 450 गीगावाट रखा है, और अगले साल तक 175 गीगावाट प्राप्त करने का दावा है. दावे का आधार आडानी ग्रुप है. कुछ सप्ताह पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के कच्छ में 30 हजार मेगावॉट बिजली उत्पादन वाले और उनके मुताबिक दुनिया के सबसे बड़े पुनर्चक्रित ऊर्जा पार्क का शिलान्यास किया था. ये विशाल प्रोजेक्ट एक लाख 80 हजार एकड़ यानी सिंगापुर के आकार जितने भूभाग में फैला हुआ है. इसमें सौर पैनल, सौर ऊर्जा भंडारण यूनिट और पवनचक्कियां लगाई जाएंगी. इस पार्क के एक बड़े हिस्से का मालिकाना अडानी के पास है.
अनुमान है कि इससे हर साल 20 अरब डॉलर के व्यापारिक अवसर पैदा होंगे. लेकिन वर्तमान स्थिती यह है कि देश की कुल उर्जा क्षमता का 71 फीसद थर्मल प्लांट से आता है, जिसके लिए लगातार कोयले को खना जा रहा है, कोयले के जलने कार्बन फुट प्रिंट बढ़ते ही है कम नहीं होते. साथ ही नवीकरणीय उर्जा का हिस्सा मात्र 17 फीसद है.
कहने का मतलब यह कि हरित उर्जा बढ़ने के साथ थर्मल को कम करने का लक्ष्य तय किया जाना चाहिए जो कि विचार में ही नहीं है. देश की जरुरतों को पूरा करने के लिए लगातार कोयले को जलाया जा रहा है.
प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार एलईडी को प्रमोट कर रही है जिससे 38 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड को कम किया जा सकता है. दुनियां में कार्बन उत्सर्जन में लाइट का शेयर 5 फीसद है. विश्व में सबसे ज्यादा कार्बनडाइआक्साइड उत्सर्जन ट्रांसपोर्ट और बड़ी इंडस्ट्री द्वारा होता है जिसका कारण उर्जा उत्पादन के लिए कोयले का जलना. वैसे एक आसान तरीका भी है कि जब लक्ष्य हासिल ना हो पाए तो कह दीजिए कि चीन और अमेरिका की तुलना में हम पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाते हैं.
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह भी कहा कि 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर डीग्रेडेट लैंड यानी बंजर भूमि को उपजाऊ बनाएंगे. उन्हें शायद जानकारी होगी कि अकेले यूपी में ही पिछले साल से हजारों किसानों ने खेती करनी छोड़ दी है और उनकी जमीनें भी जल्दी ही बंजर की श्रेणी में आ जाएंगी. किसान नील गाय और छुट्टा पशुओं से त्रस्त होकर खेती छोड़ रहे हैं. नदियों पर निर्मित डैम के बैकवॉटर के आसपास दलदली भूमि बढ़ी है जो उपजाऊ नहीं रही. बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में समुद्र ने आगे बढ़कर शानदार मिट्टी को नमकीन बना दिया है क्योंकि जब नदी का पानी उस तक पहुंचने से रोका गया तो वह खुद नदी से मिलने आगे बढ़ आया.
सुंदरबन की समुद्र का हिस्सा बनती भूमि इसका ताजा उदाहरण है, सुंदरबन के मैंग्रोव स्थायी रूप से समुद्र में जा रहे है जिससे रॉयल बंगाल टाइगर के लिए जगह कम हो रही है और वह गांवों की तरफ जा रहा है, गांव विस्थापित होकर कोलकाता पहुंच रहे हैं और गलियों में बेहद अमानवीय परिस्थियों में रहने को मजबूर हैं. यह भारतीय पर्यावरण विस्थापन की लगातार बड़ी होती तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा भर हैं.‘नदियों का पानी समुद्र में बेकार चला जाता है’- सोचने वाले लोग समझ नहीं पाते कि नदी और समुद्र के प्राकृतिक मिलन को रोका नहीं जा सकता है। इन जमीनी सच्चाईयों से मूंह मोड़कर बंजर भूमि को रिस्टोर करने का दावा कितना टिकेगा ?
उन्होंने गर्व से यह भी बयां कर दिया कि 64 मिलियन घरों में पाइप से जलापूर्ति की जा रही है. लेकिन यह बताना जरूरी नहीं समझा कि यह जलापूर्ति जमीन से पानी निकाल कर की जा रही है भूमिगत जल को तेजी से खत्म किया जा रहा है जबकि होना यह चाहिए कि वर्षाजल के संचयन पर जोर दिया जाता.
इन हवाई नारों की आड़ में पर्यावरणीय सवाल दब जाते हैं और पर्यावरण मंत्रालय लगातार बिना असेसमेंट के एक के बाद एक प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखाता जा रहा है.
इस बीच महाराष्ट्र के पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को चिट्ठी लिख कर महाराष्ट्र के बेशकीमती मैंग्रोव बचाने के लिए तत्काल उपाय उठाने को कहा है साथ ही यह मांग की है कि पर्यावरण संरक्षण कानून को थोड़ा और सख्त बनाते हुए निजी भूमि पर मौजूद मैंग्रोव को नष्ट ना होने दिया जाए. अभी कानून कहता है कि निजी मिल्कियत पर निर्माण कार्य किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि राज्य पर्यावरण विभाग को यह अधिकार होना चाहिए मैंग्रोव को बचाने के लिए कार्यवाई कर सकें. उन्होने सीआरजेड यानी कोस्टल रेग्यूलेशन जोन को बढ़ाने और मजबूत करने की जरूरत पर जोर दिया. इससे पहले सीआरजेड को बढ़ाने की मांग किसी भी नेता नहीं की.
क्या होगा मैंग्रोव बचाने से
सुंदरबन एक अच्छा उदाहरण है यह समझने के लिए कि मैंग्रोव सदी के सबसे बड़े विस्थापन को रोकने की दिशा में पहला और मूल कदम साबित हो सकता है. मैंग्रोव का बचना इस बात का संकेत है कि समुद्र और नदी दोनों बचे रहेंगे. सबसे बड़ी बात समुद्र तट पर बसाहट बची रहेगी, जमीने कम होने का सीधा असर शहरी क्षेत्रों में दिखेगा. लॉकडाउन दौर ने दिखा दिया कि हमारे शहर विस्थापितों और मजदूरों को संभालने में कितने सक्षम है.
मैंग्रोव है तो समुद्र के खारापन का प्राकृतिक संतुलन बना हुआ है. लेकिन केंद्र की सोच मैंग्रोव बचाने से ज्यादा उन कंपनियों से बात करनें में है जो खारे पानी को मीठे पानी में बदलने की तकनीक लाने का दावा करती है. मैंग्रोव ग्रीन हाउस प्रभाव को कम करने का प्रकृति का गारेंटेड तरीका है बशर्ते उसे बचा लिया जाए. मैंग्रोव मूंगे की बेशकीमती चट्टानों को बचाते हैं, वे अपने दम पर जंगल, नदी और उसके तट को भी बचाते हैं. लेकिन पर्यावरण मंत्रालय के ढीले रवैये और रेवेन्यु लालच के चलते मैंग्रोव खत्म हो रहे हैं.
ठाकरे ने जो सवाल उठाए है वे उनकी गंभीरता और संवेदनशीलता प्रदर्शित करते हैं. पिछले साल आरे जंगल काटे जाने को लेकर उन्होंने विरोध जताया था. उनकी कोशिशों से मुंबई महानगर से सटा 600 एकड़ का जंगल बच गया. मुंबई मेट्रो का विस्तार करने के लिए आरे जंगल के एक बड़े हिस्से को साफ किया जा रहा था, हालांकि जब तक पेड़ों को काटने पर रोक लगाई गई तब तक दो हजार से ज्यादा हरे भरे पेड़ काटे जा चुके थे. व्यापारिक नजरिए से सोचिए तो लगेगा बेशकीमती जमीन पर बेकार जंगल खड़ा है.
कोरोना काल के मानवीय सबक क्या हो सकते हैं इसकी झलक ठाकरे की चिट्ठी में झलकती है. बड़े दावे वाले एक अंतरराष्ट्रीय वादे की उम्र दूसरे अंतरराष्ट्रीय वादे तक होती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)
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