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Thursday, 21 November, 2024
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ममता बनर्जी बनाम नरेंद्र मोदी- पश्चिम बंगाल में कैसे टूट रही हैं राजनीतिक मर्यादाएं

मोदी कहते हैं कि नेताजी होते तो देश का आज का पराक्रम देखकर खुश होते लेकिन जानकार बताते हैं कि प्रधानमंत्री जिस आरएसएस की विरासत थामे हुए हैं, नेताजी उसे पनपने के पहले उखाड़कर फेंक देना चाहते थे.

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अवध के अपने समय के बेहद लोकप्रिय शायर मरहूम रफीक शादानी ने चुनावों के दौरान नेताओं, पार्टियों और सरकारों की बदल जाने वाली फितरत को लेकर लिखा था: ‘जब नगीचे चुनाव आवत है, भात मांगो पुलाव आवत है.’ उनकी यह पंक्ति इन दिनों पश्चिम बंगाल में, जहां जल्दी ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, नये सिरे से सार्थक हो रही है.

जैसे-जैसे ये चुनाव निकट आ रहे हैं, केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी बंगाल की सत्ता पर पहली बार कब्जे का अपना सपना पूरा करने के लिए उसके ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, रवीन्द्रनाथ टैगोर और स्वामी विवेकानंद जैसे नायकों का राजनीतिक इस्तेमाल कर मतदाताओं की ‘भावनाओं के दोहन’ में कुछ भी कमी नहीं रख रही है. वैसे भी उसका इतिहास गवाह है कि ‘कमल खिलाने’ के लिए नायकों के ‘दूषित इस्तेमाल’ और मतदाताओं की भावनाओं के ‘दुर्भावनापूर्ण दोहन’ में वह कोई सानी नहीं रखती.

नरेंद्र मोदी हैं कि इस संबंधी उसके ‘अभियानों’ में यह भी याद नहीं रखते कि वे अपनी पार्टी के ही नहीं, सारे देश के प्रधानमंत्री हैं.

इसी तरह के एक ‘अभियान’ के तहत वे शनिवार को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जयंती पर उन्हें याद करने कोलकाता जा पहुंचे. उनका यह याद करना कितना चुनावी था, इस तथ्य से समझा जा सकता है कि अपने छह साल के प्रधानमंत्री काल में नेताजी की पिछली किसी जयंती पर वे कोलकाता नहीं गये.

अलबत्ता, इस बार उनके पास 125वीं जयंती का बहाना था लेकिन वह भी यही जताता है कि उनकी ‘याद’ किस कदर इस संख्या की मोहताज थी. तिस पर उन्होंने वहां विक्टोरिया मेमोरियल में नेताजी की हर जयंती पर पश्चिम बंगाल सरकार के ‘देशनायक दिवस’ के बरक्स ‘पराक्रम दिवस’ मनाने का एलान करते हुए जैसा भाषण दिया, साथ ही उनके समर्थकों ने राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के संबोधन के दौरान अमर्यादित, अशोभनीय और अपमानजनक नारेबाजी कर जैसी अप्रिय स्थितियां पैदा कीं, उससे उनकी यह मंशा छिपी नहीं रह सकी कि नेताजी के प्रति अचानक उमड़ आई उनकी श्रद्धा हार्दिक नहीं, चुनावी ही है.

अन्यथा नेताजी को श्रद्धांजलियों के उस सरकारी कार्यक्रम में उनके बजाय भगवान राम और नरेंद्र मोदी का गुणगान करने वाले नारे लगाने का क्या तुक थी? यकीनन, जैसा कि बाद में ममता ने कहा भी, उन्हें लगाने वालों को उनके बहाने धर्मनिरपेक्षता जैसे पवित्र संवैधानिक मूल्य की खिल्ली उड़ाना ही अभीष्ट था.

लेकिन ज्यादा गौरतलब यह कि प्रधानमंत्री ने कार्यक्रम में गलतबयानी के लिए तथ्यों से जमकर छेड़छाड़ की. यह कहते हुए कि आज नेताजी होते तो एलएसी से एलओसी तक देश का दम देखकर बहुत खुश होते. वे भूल गये कि चीन के साथ एलएसी पर दिनोंदिन लंबा होता जा रहा गतिरोध उनके पराक्रम से ज्यादा बेचारगी का पता देने लगा है. इस सिलसिले में उन्होंने कोरोना वैक्सीन के खास संदर्भ में आत्मनिर्भर भारत का जिक्र किया, तो पश्चिम बंगाल के ही वर्धमान जिले में टीके लगवाने वाले चार स्वास्थ्यकर्मियों की हालत बिगड़ जाने के बाद टीकाकरण रोकने की नौबत का संज्ञान नहीं दिया.


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प्रधानमंत्री की चुप्पी

प्रधानमंत्री ने इस अंदेशे को भी नहीं संबोधित किया कि उनकी सरकार की सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री व बदहाली और खेती-किसानी तक के कारपोरेटीकरण करने का उतावलापन ऐसा हो रहा है जैसे कि उनका न्यू इंडिया कारपोरेट निर्भर हो जाने वाला है.

अपनी बारी पर ममता ने सरकारी समारोहों की मर्यादाएं याद दिलाईं और कहा कि उन्हें किसी को आमंत्रित कर अपमानित करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए तो इस पर भी प्रधानमंत्री कुछ बोले ही नहीं. कहते हैं कि उनकी यह चुप्पी भी उनके समर्थकों के लिए ‘संदेश’ थी.

दूसरे पहलू पर जायें तो एक अन्य कार्यकम में नेताजी को याद करते हुए ममता ने भी कोलकाता समेत देश की चार राजधानियां बनाने का मुद्दा छेड़कर ‘मर्यादा’ ही तोड़ी. यानी दोनों तरफ आग बराबर लगी हुई है.  लगे भी क्यों नहीं, इन दिनों उनका जिस भाजपा से सामना है, उसे इस तरह मर्यादाएं तोड़ने की कूबत हासिल कराने में खुद उनका भी कुछ कम योगदान नहीं रहा है.

अभी कुछ वर्षों पहले तक वे उसी के साथ पेंगे बढ़ाती दिखाई देती थीं. इस ओर से जानबूझकर लापरवाह कि वह भले ही दूसरों को ऐसे मामलों में राजनीति करने से बरजती रहती है, खुद की इस तरह की राजनीति को राजनीति नहीं मानती, न ही उससे बाज आती है. उसके शुभचिन्तक प्रधानमंत्री का चुनाव के समय ‘श्मशान-कब्रिस्तान’ और ‘आग लगाने वाले कपड़ों से पहचाने जाते हैं’ जैसी जुमलेबाजी का अतीत है, जबकि वर्तमान यह कि सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ नेताजी के राजनीतिक इस्तेमाल के फेर में वे जानबूझकर भूले जा रहे हैं कि दोनों एक दूसरे के धुर-विरोधी थे. 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर नेताजी के दूसरे कार्यकाल को ‘असंभव’ बना देने वाले पटेल ही थे.

अगर नेताजी होते….

प्रधानमंत्री कहते हैं कि नेताजी होते तो देश का आज का पराक्रम देखकर खुश होते लेकिन जानकार बताते हैं कि प्रधानमंत्री जिस आरएसएस की विरासत थामे हुए हैं, नेताजी उसे पनपने के पहले उखाड़कर फेंक देना चाहते थे.

इतना ही नहीं, वे स्वतंत्र भारत में दस साल के लिए तानाशाही चाहते थे. कल्पना कीजिए, इस तानाशाही के दौरान वे होते तो आरएसएस के साथ क्या करते? जिन महात्मा गांधी को उन्होंने पहले-पहल राष्ट्रपिता कहा था, नाथूराम गोडसे द्वारा उनकी क्रूर हत्या के बाद क्या वे पटेल की तरह आरएसएस पर प्रतिबंध हटा लेने को राज़ी होते?

गौरतलब है कि वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे तो उसने 16 दिसंबर, 1938 को अपने संविधान में संशोधन कर साम्प्रदायिक संगठनों के सदस्यों के अपनी निर्वाचित समितियों में चुने जाने पर रोक लगा दी थी. साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर उन दिनों हिंदू महासभा के नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी से भी नेताजी का बहुत टकराव था.

बकौल डॉ. मुखर्जी: ‘एक बार बोस उनसे मिले थे और उन्होंने यह कहा था कि यदि आप हिन्दू महासभा को एक राजनीतिक दल के रूप में गठित करते हैं तो…आवश्यकता पड़ी तो मैं उस कदम के विरुद्ध बल प्रयोग करूंगा और यदि यह सच में गठित होती भी है तो मैं उसे लड़कर भी तोडूंगा.’

इस टकराव की इंतिहा यह थी कि नेताजी की आजाद हिंद फौज बर्मा के रास्ते भारत की ओर बढ़ रही थी, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा ’ के नारो के साथ, तो बंगाल के उपमुख्यमंत्री के रूप में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने उसे रोकने के लिए अंग्रेज गवर्नर के सामने एक लंबी-चौड़ी योजना पेश की थी.

ऐसे में क्या आश्चर्य कि आज नेताजी होते तो यह देखकर बहुत दुखी होते कि भाजपा और उसकी सरकारें समझती ही नहीं कि धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत दो तरीके से चलता है- या तो राज्य सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखे या सभी धर्मों से समान प्रेम बनाए रखे. वे यह दोनों काम नहीं करती बल्कि बहुसंख्यक समाज के धर्म से ज्यादा निकटता दिखाकर यह साबित करना चाहती हैं कि अल्पसंख्यकों का धर्म दोयम दर्जे का है और राज्य बहुसंख्यक समाज के धर्म से दूरी नहीं बना सकता.

दूसरी ओर उन्हें लेकर ममता जैसे नेताओं व दलों की समस्या यह है कि वे लंबे अरसे तक उन्हें लेकर न सिर्फ भुलावे में रहे बल्कि स्वीकृति व सामर्थ्य अर्जन में उनके दाहिने हाथ बने रहे. अब वे अपने नीतीश जैसे सहयोगियों के लिए भी सुरसा बन गई हैं तो ममता जैसे विरोधी उनकी कृदृष्टि से भला कैसे बच सकते हैं?

किसे नहीं मालूम कि दोस्त दुश्मन बन जाये तो वह दुश्मन से ज्यादा खतरनाक हो जाता है. ऐसे में उनका पछताने का तभी कोई अर्थ हो सकता है, जब सारा मान-अपमान भूलकर वे चिड़िया के चुगने से बचे रह गये अपने खेतों को बचाने में दूरंदेशी का प्रदर्शन करें. भविष्य इसी पर निर्भर करेगा कि वे ऐसा कर पाती हैं या नहीं.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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