अमेरिका की बार बार चेतावनी के बावजूद, हाल ही में यूरोपीय संघ के चीन के साथ निवेश पर हुए व्यापक समझौते से, दुनिया भर की भौंहें तन गईं. और डोनाल्ड ट्रंप भी जाते जाते, बीजिंग प्रशासन से व्यापार समझौते को, फिर से जीवित कर गए. ऑस्ट्रेलिया ने भी नवंबर में चीन के साथ, एक 15 सदस्यीय क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी पर दस्तख़त कर दिए. लेकिन कोविड के बाद जब सभी देश, नए नए साझीदार, और नए नए व्यापार समझौते तलाश रहे हैं, भारत के सामने एक ऐसा भविष्य है, जिसमें सीमा पर तनाव के चलते कोई चीन नहीं है, और उसकी बजाय कुछ मल्टी-लेटरल समझौते हैं, जिनके नतीजों का कोई पता नहीं हैं.
ऐसा लगता है चीन एक अहम व्यापार भागीदार के तौर पर, ख़ुद को थोपने की स्थिति में है, ऐसे समय में भी, जब बहुत से देश शी जिनपिंग प्रशासन के अंतर्गत, चीन की बढ़ती आक्रामकता के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं. भारत अकेला देश रहा है, जो व्यापार के मामले में चीन के प्रति, लगातार विरोधी रुख़ अपनाए हुए है, जिसने अप्रैल में चीनी निवेश बंद कर दिया, और नवंबर में आरसीईपी से बाहर आ गया. उसके इस रुख़ को लद्दाख़ गतिरोध से और बल मिला है.
इसका मतलब ये है कि जहां अग्रणी देशों ने, जो बड़े पैमाने और जटिलता वाली वैश्विक मूल्य श्रृंखला, और सप्लाई नेटवर्क्स का हिस्सा हैं, चीन के साथ कारोबार करने के तरीक़े ढूंढने शुरू कर दिए हैं, जबकि भारत अकेला ऐसा देश होगा, जो ऐसे किसी भी व्यापारी और आर्थिक समूहों से बाहर रह जाएगा.
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चीन के साथ गर्माहट?
इधर पूरी दुनिया उतार-चढ़ाव भरे, साल 2020 को अलविदा कहने में व्यस्त थी, उधर यूरोप ने तमाम एहतियात को दरकिनार करते हुए, बीजिंग के साथ ख़ामोशी से, निवेश के व्यापक समझौते (सीएआई) पर दस्तख़त कर दिए, और दुनिया को स्पष्ट कर दिया, कि व्यवहारिक यूरोपियन लोगों के लिए, व्यापार भूगोलीय राजनीति से पहले आता है.
सीएआई का लक्ष्य ईयू के सदस्य देशों और चीन के बीच, 26 मौजूदा द्विपक्षीय निवेश समझौतों की जगह लेना, और ईयू-चीन निवेश रिश्तों के लिए, एक समान वैधानिक ख़ाका स्थापित करना है.
ये क़दम आने वाले जो बाइडेन प्रशासन के इस संकेत के क़रीब हैं, कि वो अमेरिका को ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) में फिर से दाख़िल कराएगा, जिसे अब कॉम्प्रिहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) कहा जाता है. इसे शुरू में ओबामा प्रशासन का समर्थन हासिल था, लेकिन उसके बाद 2017 में ट्रंप प्रशासन ने ख़ुद को इससे बाहर कर लिया. लेकिन अपने कार्यकाल के अधिकतर समय, चीन के साथ व्यापार युद्ध में उलझे रहने के बाद, व्हाइट हाउस छोड़ने से कुछ पहले ही, ट्रंप प्रशासन ने चीन के साथ एक व्यापार समझौता कर लिया.
बाइडेन प्रशासन के लिए निश्चित रूप से, सीपीटीपीपी डील को पूरा करना तो संभव नहीं होगा, लेकिन एक बार हो जाने के बाद, इससे अमेरिका एक ऐसे विशालकाय व्यापार समझौते का हिस्सा बन जाएगा, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी मुक्त व्यापार संधि बताया जा रहा है.
सीपीटीपीपी, जिसे अमेरिका के बाहर होने के बाद, 2018 में 11 देशों के बीच में साइन करके, एक मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाया गया था, उसमें अब यूरोप भी शामिल हो सकता है. ब्रेक्सिट के बाद, यूके भी इस समूह का हिस्सा बनने जा रहा है.
पिछले महीने, भारत में ऑस्ट्रेलियाई उच्चायुक्त बैरी ओफैरल ने, एक ख़ास इंटरव्यू में दिप्रिंट को बताया, कि चीन के साथ अपने मतभेदों के बावजूद, कैनबरा अभी आरसीईपी में शामिल हुआ है, क्योंकि वो खुले बाज़ार का हिमायती है, और विस्तारित व्यापार और निवेश को बढ़ावा देता है. ओफैरल ने कहा, ‘हम ये भी मानते हैं कि कोविड के बाद, अपनी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से खड़ा करने, और भविष्य में निरंतर आर्थिक विकास सुनिश्चित करने में, व्यापार और निवेश हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण होंगे’.
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भारत किस पर फोकस कर रहा है
अप्रैल 2020 में, लद्दाख़ में पहली बार तनाव पैदा होने से कुछ समय पहले ही, नरेंद्र मोदी सरकार ने चीन से विदेशी निवेश को रोकने के लिए, कई क़दम उठा लिए. नई दिल्ली ने चीनी निवेशकों के लिए अपने दरवाज़े पूरी तरह बंद कर दिए, और बीजिंग के साथ किसी भी तरह की अधिमान्य व्यापार व्यवस्था भी बंद कर दी. इसी महीने, भारत से विदा हो रहे निवर्तमान अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने अपने विदाई भाषण में, भारत में बढ़ती व्यापार बाधाओं पर रोशनी डालते हुए कहा, कि अपने कार्यकाल में उन्हें सबसे अधिक ‘निराशा और टकराव’ का अनुभव, अमेरिका-भारत द्विपक्षीय व्यापार में हुआ. उन्होंने ये भी स्पष्ट किया कि एक भरोसेमंद निर्माण हब, और चीन का विकल्प बनने के लिए, नई दिल्ली को कुछ गंभीर क़दम उठाने होंगे.
उन्होंने कहा, ‘अमेरिकी और दूसरी कंपनियों के लिए चीन में काम करना, और चीन की अगुवाई वाली सप्लाई चेन्स से दूर होकर, विविधता लाना मुश्किल होता जा रहा है, तो ऐसे में भारत के पास इंडो-पैसिफिक में, मैन्युफेक्चरिंग के विकल्प के रूप में उभरने का एक रणनीतिक अवसर है…इस अवसर का पूरा फायदा उठाने के लिए, भारत सरकार को और आगे की कार्रवाई करनी पड़ सकती है’.
भारत के तीन सबसे बड़े व्यापार सहयोगियों- अमेरिका, ईयू और चीन- ने जिनेवा में 6 से 8 जनवरी के बीच, विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) में, व्यापार नीति समीक्षा के दौरान नई दिल्ली की आलोचना की.
भारत की व्यापार नीति पर, अपने फीडबैक में अमेरिका ने कहा, कि अगर नई दिल्ली अपने टैरिफ स्ट्रक्चर को ऊपर उठाती रही, तो उससे ‘ग्लोबल सप्लाई चेन्स में भारत का आगे का एकीकरण सुगम नहीं रहेगा’.
और इसलिए, भारत अब इंडो-पैसिफिक रणनीतिक पहल के तहत, मिनी-लेटरल्स रूपी कुछ छोटे समूहों में शामिल होकर, कोविड बाद के सप्लाई-चेन नेटवर्क का हिस्सा बनने की कोशिश कर रहा है.
मिनीलेटरल्स विशिष्ट रूप से अस्थाई व्यापार व्यवस्थाएं होती हैं, जो मौजूदा परिदृश्यों पर निर्भर करती हैं. बड़े पैमाने के व्यापार समझौतों के उलट, ये स्वैच्छिक व्यवस्थाएं होती हैं, जो कानूनन बाध्यकारी नहीं होतीं. बहुपक्षीय व्यापार समझौतों की अपेक्षा, व्यापार की बोलचाल में मिनीलेटरल्स पर ज़्यादा बारीकी से नज़र रखी जाती है. चूंकि मिनीलेटरल्स का कोई क़ानूनी आधार नहीं होता, इसलिए देश सामान्य व्यापार मानदंडों, या किन्हीं निर्धारित नियमों से बंधे नहीं होते, जिसकी वजह से, कुछ ग़लत हो जाने पर, टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है.
और कमज़ोर होते डब्लूटीओ के साथ, बहुपक्षीय निकाय के लिए, व्यापार विवादों के मामले में, इन मिनीलेटरल्स की निगरानी करने की गुंजाइश भी, बहुत कम रह जाती है.
ऐसा ही एक उदाहरण है भारत, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया का, आपस में हाथ मिलाकर एक मिनीलेटरल बनाना, हालांकि ये देखा जाना अभी बाक़ी है, कि दीर्घ काल में नई दिल्ली को इससे कैसे फायदा होगा, चूंकि ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया दोनों, पहले से ही आरसीपीसी का हिस्सा हैं, जिसकी वजह से उनके बीच, मुक्त व्यापार व्यवस्था मौजूद है.
भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ, एक सप्लाई चेन नेटवर्क का भी हिस्सा है, लेकिन इन व्यवस्थाओं का अस्ली नतीजा तभी तय हो सकता है, जब सीपीटीपीपी, आरसीईपी और सीएआई जैसी व्यापार व्यवस्थाएं, सक्रिय हो जाएं.
इस बीच, भारत के पड़ोसी ने भी उसे चिंता में डालकर रखा हुआ है, क्योंकि सार्क अथवा बिम्सटेक के तहत निर्धारित, व्यवसायी और आर्थिक पहलक़दमियों पर, वो कारगर ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया है.
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