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Saturday, 16 November, 2024
होममत-विमतभाजपा की दुविधा— बंगाल में ‘मोदी बनाम दीदी’ करे, या सौरभ गांगुली जैसे कोई नए चेहरे की खोज करें

भाजपा की दुविधा— बंगाल में ‘मोदी बनाम दीदी’ करे, या सौरभ गांगुली जैसे कोई नए चेहरे की खोज करें

यह साफ है कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल की रणनीति तय नहीं की है कि वह मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ मैदान में उतरेंगे या फिर उत्तर प्रदेश के चुनाव में जैसा किया था वैसा कदम उठाएंगे.

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पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले अपने लिए एक जोरदार चेहरा तलाशने की भाजपा की कोशिश फिलहाल भारत के पूर्व क्रिकेट कप्तान सौरभ गांगुली के इर्दगिर्द मंडराती रही है. लेकिन यह सवाल तो कायम ही है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसके ब्रह्मास्त्र हैं ही तो फिर उसे किसी और चेहरे की जरूरत क्या है? जब मामला मोदी और दीदी के बीच ऊंचे दांव वाली टक्कर का है, तब भाजपा प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच सीधी टक्कर का जोखिम नहीं उठा सकती ताकि कल को ऐसी स्थिति न बन जाए कि ‘सर्वशक्तिमान मोदी’ पराजित नज़र आएं.

2014 के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद से मोदी भाजपा के लिए उन राज्यों में भी तुरुप का पत्ता साबित होते रहे हैं जिनमें उसका कोई बड़ा नेता नहीं था. एक बार जब भाजपा ने प्रयोग करते हुए 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक ताकतवर विरोधी के खिलाफ एक ‘सेलिब्रिटी’ (मशहूर) चेहरे किरण बेदी पर अपना दांव लगाया था तब उसे जो अपमानजनक झटका लगा था उसे वह शायद ही भूल पाएगी.

अब एक बार फिर भाजपा उसी दुविधा में फंसी है— मुख्यमंत्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित करे और मोदी के नाम पर चुनाव न लड़ने का फैसला करे या मोदी बनाम ममता की टक्कर का बेहद जोखिम वाला कदम उठाए.

बंगाल के चुनाव से चंद महीने पहले जो हालात हैं उनसे साफ है कि भाजपा अब तक अपनी रणनीति नहीं तय कर पाई है, जबकि उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनाव में उसने शुरू में ही मोदी को प्रमुख चेहरा बनाने का फैसला कर लिया था.

‘मोदी मास्क’ का महातम

मैं पहले भी कह चुकी हूं कि भाजपा के लिए बेहतर यही है कि वह मुख्यमंत्री का चेहरा सामने करके ही कोई विधानसभा चुनाव लड़े, ताकि उसे लोगों को मोदी नाम का लॉलीपॉप दिखाकर चुनाव जीतने के बाद योगी आदित्यनाथ या बिप्लब देब जैसों को गद्दी पर न बैठाना पड़े जिन्हें शासन का कोई अनुभव नहीं हो. बहरहाल, सही-गलत के बारे न सोचें, तो भाजपा के लिए यह रणनीति चुनावों में काफी कारगर रही है.

उत्तर प्रदेश का 2017 का चुनाव भाजपा ने पूरी तरह मोदी के नाम पर लड़ा था. उस दौरान उस राज्य में घूमते हुए मैंने मोदी नाम का ऐसा असर देखा कि कई जगह तो लोगों को अपने क्षेत्र के भाजपा उम्मीदवार का नाम तक भी नहीं मालूम था. और नोटबंदी के कारण बने प्रतिकूल माहौल के बावजूद मोदी के नाम पर चमत्कारी जनादेश मिला था.

इससे पहले, भाजपा के प्रभाव से दूर रहे असम में 2016 के चुनाव में मोदी का नाम भी उतना ही चला जितना हिमंत बिस्वा सरमा का चुनावी प्रबंध कौशल, जबकि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर सरबानंद सोनोवाल ने भी परोक्ष रूप से अपनी भूमिका निभाई. 2017 में भाजपा ने फिर से मोदी को केंद्र में रखकर त्रिपुरा में वाम मोर्चा सरकार को उखाड़ फेंकने में सफलता पाई.

इस बीच मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य, जहां पहले से भाजपा के मुख्यमंत्री मौजूद थे, उसके हाथ से निकल गए.

चुनावों में मोदी को ‘मास्क’ बनाने का भाजपा का दांव कुल मिलाकर कामयाब ही रहा है. तो इस आजमाए हुए फॉर्मूले को वह फिर से पश्चिम बंगाल में क्यों न आजमाए? 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान मेरी सहयोगी मौसमी दासगुप्त ने इस राज्य में घूमते हुए पाया था कि मोदी वहां भी काफी लोकप्रिय हैं, और समय के साथ यह लोकप्रियता और मजबूत हो सकती थी.


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जोखिम क्या है?

भाजपा के सूत्र मुझे बताते हैं, ‘पार्टी को लगता है कि पिछले चुनाव में असम, त्रिपुरा और यूपी में हालात जिस तरह उसके लिए पक चुके थे, वैसे ही पश्चिम बंगाल में भी पक चुके हैं, और वोटर ‘पोरीबोर्तोन’ चाह रहे हैं. यह भी सच है कि ममता बनर्जी के लिए यह चुनाव कठिन है क्योंकि एक तो उन्हें सरकार विरोधी हवा का सामना करना पड़ेगा, उनकी सरकार का रेकॉर्ड भी अच्छा नहीं है, और उनके कई प्रमुख नेता पार्टी छोड़ रहे हैं. वैसे तो कोई भी चुनाव जोखिम से मुक्त नहीं होता. और वह एक बने-बनाए ढांचे से नहीं चलता. भाजपा चाहे कितनी भी आश्वस्त दिखती हो, ममता आसानी से हार मानने वाली नहीं हैं. इसलिए अगले कुछ महीने तय कर देंगे कि किसका पलड़ा भारी रहता है.

मोदी और ममता में एक अरसे से कड़वाहट जारी है. पिछले लोकसभा चुनाव के प्रचार में दोनों नेताओं के बीच आरोपों-प्रत्यारोपों में काफी कड़वाहट दिखी थी. हाल में भी प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पर राज्य को ‘बरबाद’ कर देने का आरोप लगाया है.

दोनों पक्ष जिस आक्रामकता के साथ यह लड़ाई लड़ रहे हैं उसके कारण ऐसा लगता है कि जो पक्ष हारेगा उसके लिए राजनीतिक दंश जल्दी शांत नहीं होगा. यह भी एक वजह है, जो भाजपा को इसे मोदी बनाम दीदी मुक़ाबला बनाने का दांव खेलने को मजबूर करेगी. यह मत भूलिए कि 2020 के दिल्ली के चुनाव में भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना कोई उम्मीदवार घोषित करने से परहेज किया था और वह अरविंद केजरीवाल से एक बार फिर शिकस्त खा गई थी. मोदी बनाम केजरीवाल जंग में जबकि 2015 की तरह–जब किरण बेदी उसका चेहरा थीं—भाजपा की शिकस्त का जिम्मा कोई लेने वाला नहीं था तब भी केजरीवाल विजेता बनकर उभरे थे. वास्तव में, एक लोकप्रिय और ताकतवर प्रधानमंत्री के मुक़ाबले अपनी जमीन बचाए रखना केजरीवाल की जबरदस्त उपलब्धि ही मानी जाएगी.

भाजपा के नेता तो यह कह रहे हैं कि आगामी चुनाव परिवर्तन के लिए है इसलिए कोई चेहरा आगे करने की जरूरत नहीं है, लेकिन पार्टी का ताजा राजनीतिक रुझान व्यक्ति-केन्द्रित मुक़ाबले की ओर ही रहा है. पश्चिम बंगाल के मामले में मुक़ाबला एक विकट हस्ती से है, जिसने अकेले दम पर एक नयी पार्टी खड़ी की और तीन दशक से सत्ता में बैठी कम्युनिस्ट सरकार को बेदखल किया.

भाजपा उस हस्ती से मुक़ाबले के लिए अपनी किसी हस्ती को आगे करेगी. असली सवाल यह है कि वह हस्ती उसके आजमाए तुरुप के पत्ते नरेंद्र मोदी होंगे या सौरभ गांगुली जैसा कोई नया दावेदार होगा. फिलहाल भाजपा तलाश में लगी है.

(व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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