प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 दिसंबर को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के शताब्दी समारोह को संबोधित करने वाले हैं. यह एक वर्चुअल आयोजन होगा. यदि कोविड का दौर नहीं होता, तो वह संभवतः कैंपस जाते. 1964 के बाद यह पहला मौक़ा है जब भारत का प्रधानमंत्री एएमयू को संबोधित करेगा. 56 साल एक लंबा अंतराल होता है, और जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री को छोड़कर, किसी अन्य प्रधानमंत्री ने विश्वविद्यालय का दौरा करने के बारे में नहीं सोचा, जबकि अलीगढ़ राष्ट्रीय राजधानी से केवल 120 किमी दूर है, और एएमयू पूर्ण वित्तपोषित केंद्रीय विश्वविद्यालय है और भारत के राष्ट्रपति उसके विजिटर हैं.
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा प्रस्तावित संबोधन प्रतीकवाद से भरी एक सुविचारित पहल है. जैसा कि वह अक्सर ज़ोर देते हैं, मोदी 130 करोड़ भारतीयों के प्रधानमंत्री हैं, जिनमें लगभग 20 करोड़ मुस्लिम शामिल हैं. उनका संबंध एक ऐसी विचारधारा से है कि जिसका ऐतिहासिक दृष्टिकोण भारत के अतीत और उसमें अपनी भूमिका के बारे में मुसलमानों के नज़रिए से अलग है. इसलिए, वर्तमान के बारे में मुसलमानों के विचार और भविष्य को लेकर उनकी दृष्टि समान रूप से विवादित है.
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अतीत के जख्म
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय इस विवादित इतिहास का एक हिस्सा रहा है और उसे ईमानदारी और सुलह की भावना से अपने अतीत का सामना करना चाहिए. कहा जाता है कि मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल (एमएओ) कॉलेज, जो 1920 में एएमयू बन गया, के संस्थापक सर सैयद अहमद खान ने द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया था. हालांकि उनके उत्तराधिकारियों ने उनके धार्मिक विचारों के साथ-साथ उनके सामाजिक और राजनीतिक विचारों को भी पूरी तरह से दफन नहीं किया होता, तो उनके भाषणों और लेखन में उन्हें समग्र राष्ट्रवाद के संस्थापकों के बीच स्थान दिलाने लायक काफी कुछ मौजूद है.
अलीगढ़ आंदोलन का एक ज़रिया रहे मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस के दौरान ही 1906 में ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना का सत्र आयोजित हुआ था. एमएओ कॉलेज ने 1912 तक लीग की मेजबानी की थी, जब तक कि इसका मुख्यालय लखनऊ स्थानांतरित नहीं हो गया. मुस्लिम अलगाववाद की राजनीति को संस्थागत रूप देने का काम अलीगढ़ में ही हुआ था, जो कि 1940 के दशक तक आते-आते, जिन्ना के शब्दों में, ‘मुस्लिम भारत का आयुधागार’ बन गया. बाद में, कवि जौन एलिया ने चुटकी ली थी, ‘पाकिस्तान – ये सब अलीगढ़ के लौंडों की शरारत थी’.
इस कथित मज़ाक का परिणाम, लापरवाह दुस्साहसिकता के कारण, एक बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आया, जिसके कारण देश दो टुकड़ों में और मुस्लिम समुदाय तीन टुकड़ों में बंट गया. लेकिन, अभी तक अलीगढ़ ने इस बात पर चिंतन नहीं किया है. अपने अतीत का सामना करने की असमर्थता, और इस संबंध स्मृतिलोप के भाव के कारण उन राष्ट्रवादी और प्रगतिशील धाराओं को भी भुला दिया गया है, जो प्रबल नहीं होने के बावजूद काफी मजबूत थीं.
पिछड़ेपन की दिशा में एएमयू का भटकाव
एएमयू में सेंटर ऑफ एडवांस्ड स्टडी इन हिस्ट्री भी मौजूद होने के बावजूद इस स्थिति का होना और भी हैरत की बात है. इतिहास से साक्षात्कार ज़रूरी है, आपकी कार्यप्रणाली, विश्लेषणात्मक साधन, दार्शनिक झुकाव और वैचारिक दिशा चाहे जैसी भी हो. इतिहास की अकबर-औरंगज़ेब केंद्रित विचारधारा विकसित करना एक अच्छा प्रयास हो सकता है, और उत्साह के साथ मुस्लिम शासकों की धर्मनिरपेक्षता — औरंगज़ेब उनमें से सर्वाधिक धर्मनिरपेक्ष था — का बखान करना उससे भी बढ़िया, लेकिन उन्मादी सांप्रदायिकता की पृष्ठभूमि में ज़ाकिर हुसैन और मोहम्मद हबीब जैसी शख्सियतों के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद पर ज़ोर देना तब और भी बेहतर होता जब कैंपस में मौजूद मुख्यधारा की मुस्लिम सांप्रदायिकता को भी उजागर किया जाता.
यह इसलिए नहीं हो सका क्योंकि विभाजन के बाद, अलीगढ़ आशंकारहित और आश्वस्त तो हो गया, लेकिन वहां सुधारों को नहीं अपनाया गया. यह स्वतंत्र भारत के नेतृत्व के बड़प्पन को दर्शाता है कि कैसे उन्होंने एएमयू को सुरक्षित और संरक्षित रखा, जबकि उसके अधिकांश शिक्षकों और छात्रों ने बेहतर अवसरों की उम्मीद में अपने संघर्ष की उपलब्धि बने पाकिस्तान का रुख कर लिया था. आलोचनाओं से सुरक्षित और सुधारों से दूर अलीगढ़ अतीत के विमर्शों को ही लेकर चलता रहा. इस प्रकार, अपने विशिष्ट गर्वभाव के बावजूद, अलीगढ़ न तो भारतीय मुसलमानों के लिए आधुनिकता और प्रगति की राह तैयार कर सका और न ही राष्ट्रीय जीवन और मुख्यधारा से उनके एकीकरण का साधन बन सका. लोगों के बीच बढ़ते मेल-जोल के बावजूद दोनों समुदायों के बीच भावनात्मक दूरी बढ़ती रही. इस तरह, मुस्लिम समुदाय को बौद्धिक नेतृत्व देने के बजाय, जिसके लिए एएमयू खुद को पारंपरिक रूप से हकदार मानता है और संस्थापक अधिनियम द्वारा वैधानिक रूप से अधिकृत है, अलीगढ़ ने प्रतिगामी मार्ग को चुना है.
शाह बानो और तीन तलाक जैसे अहम राजनीतिक मुद्दों पर अपनी खुद की प्रगतिशील दलीलें पेश करने में सक्षम होने के बावजूद, अलीगढ़ के बौद्धिक बांझपन ने इसे उलेमाओं और प्रतिक्रियावादी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के रवैये को अपनाने के लिए बाध्य किया, जबकि ऐसे ही तत्वों की विचारधारा के खिलाफ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी. यह मुस्लिम समुदाय के सांस्कृतिक प्रतिगमन और राजनीतिक अलगाव की प्रक्रिया में शामिल हो गया और इसने पहचान के नाम पर चले दूसरे विभाजनकारी आंदोलन में हस्तक्षेप नहीं किया. बाबरी मस्जिद के सवाल पर अलीगढ़ के विद्वानों ने सीमित तकनीकी सुधार वाले वामपंथी रुख को अपनाया, इस तथ्य से बेखबर कि यह मुद्दा मुसलमानों के लिए कहीं अधिक असरकारी था और वामपंथी दलीलें भर ही पर्याप्त नहीं थीं.
सुलह का मौका
अब जबकि अपनी खुद की वैचारिक स्थिति पर अटल रहने वाले प्रधानमंत्री मोदी, सामंजस्य की पहल का संकेत देते हुए एएमयू को संबोधित करने जा रहे हैं, इस घटना के प्रतीकवाद को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. खासकर इसलिए भी कि अभी थोड़े ही दिन पहले मोदी सरकार के प्रति निष्ठावान होने का दावा करने वाले दक्षिणपंथी समूहों ने विश्वविद्यालय को हमलों और दुष्प्रचार का निशाना बनाया था. छात्र संघ की इमारत में जिन्ना के चित्र, एक मानद सदस्य होने के नाते अन्य चित्रों के साथ टंगे, को लेकर एएमयू को कलंकित करने का प्रयास दुर्भावनापूर्ण था, हालांकि इसे हटाने के खिलाफ दलीलों में भी दम नहीं था, जो कि बहुत ही बनावटी थीं और जिन्हें आसानी से समझा नहीं जा सकता था.
जो भी हो, एएमयू की हरसंभव आलोचना के बावजूद, इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इसके कैंपस में आधुनिक और शिक्षित मुसलमानों का जितना सघन जमावड़ा है, उतना दुनिया में और कहीं नहीं है. इसलिए, भले ही यह यथार्थ में भारतीय मुसलमानों की बौद्धिक अगुआई का दावा नहीं कर सकता हो, लेकिन महज मात्रात्मक दृष्टि से और ऐतिहासिक विरासत के मद्देनज़र, मुस्लिम समुदाय के लिए इसका एक नायाब प्रतीकात्मक महत्व है.
अब जबकि प्रधानमंत्री संवाद की पहल कर रहे हैं, तो क्या अलीगढ़ को मुसलमानों की ओर से दोस्ती और मेल-जोल के लिए बढ़े हाथ तो थाम नहीं लेना चाहिए? अलीगढ़ को ही ये तय करना है कि वह मुसलमानों को अकल्पनीय तबाही की संभावना से भरे टकराव के रास्ते से दूर करने या उन्हें सुलह के रास्ते पर ले जाने की पहल, जैसा कि सर सैयद ने अंग्रेजों के साथ किया था, करता है या नहीं.
एएमयू के पूर्व छात्र मुख्तार मसूद ने अपनी किताब अवाज़-ए दोस्त में एक वाकये का जिक्र किया है कि आजादी के कुछ समय बाद यूनियन हॉल में उत्तर प्रदेश की गवर्नर सरोजिनी नायडू को संबोधित करते हुए एक छात्र ने कहा था, ‘या तो हम आपके बड़े दुश्मन हैं या छोटे भाई हैं.’ वास्तविकता इससे कहीं अधिक सरल है. मुसलमान ये दोनों ही नहीं हैं. भारतीयों और नागरिकों के रूप में वे एक समान हैं. इसलिए इस मौके को खोने नहीं देना चाहिए.
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(नजमुल होदा एक आईपीएस अधिकारी हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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