पटियाला: पंजाब के होशियारपुर ज़िले के छब्बेवाल गांव में, परमिंदर सिंह बुद्धवार सुबह सवेरे एक बुज़ुर्ग महिला को, जल्दी से पास के एक धर्मार्थ अस्पताल में लेकर पहुंचे. आंशिक लकवे की शिकार महिला को तत्काल इलाज की ज़रूरत थी. परमिंदर को डर लग रहा था, क्योंकि देर रात उसे दौरा पड़ा था, और ये पहली बार था जब वो चेक-अप के लिए उसके साथ जा रहे थे.
परमिंदर का महिला से कोई रिश्ता नहीं था, वो सिर्फ महिला के बेटे चिवरंजन सिंह के बेटे की जगह आए थे, जो नए कृषि क़ानूनों के खिलाफ, राष्ट्रीय राजधानी के सिंघु बॉर्डर पर डटे हुए हैं.
इस व्यस्त दिन में परमिंदर को, एक पड़ोसी परिवार में होने वाले शादी समारोह के इंतज़ाम भी करने थे. उस परिवार के कुछ सदस्य भी सिंघु बॉर्डर पर हैं.
परमिंदर अपने गांव के युवाओं के एक समूह का हिस्सा हैं, जिसे आंदोलनकारी किसानों ने, अपने खेतों, मवेशियों, और घर के दूसरे कामों का ख़याल रखने को कहा है. इस गांव और पूरे प्रदेश में, ऐसे बहुत से समूह बन गए हैं.
उन्होंने कहा, ‘हम केवल आंदोलनकारी किसानों की भैंसों को चारा नहीं डाल रहे, या उनके खेतों की यूरिया अथवा सिंचाई की ज़रूरतें पूरी नहीं कर रहे हैं. इनके अलावा भी बहुत से दूसरे काम हैं, जैसे उनके परिवारों के लिए किराना, स्टेशनरी, और दवाएं आदि ख़रीदना, और उनकी दूसरी रोज़मर्रा की ज़रूरतों का ख़याल रखना’.
उन्होंने आगे कहा, ‘किसानों की बेटियों के शादी समारोहों से पहले के कार्यक्रमों के इंतज़ाम भी दूसरे लोग देख रहे हैं’.
इस बीच, चिवरंजन जो सिंघु बॉर्डर पर डटे हुए हैं, और दो-तीन हफ्ते तक प्रदर्शन स्थल पर रहने को लेकर विश्वस्त हैं. खेतों पर सीज़न का काम लगभग पूरा हो चुका है, और उनकी बाक़ी ज़िम्मेदारियों का ध्यान रखा जा रहा है.
उनके साथ समर्थकों का एक नया बैच है, जो मंगलवार को अपने गांवों के पड़ोसियों की जगह लेने सिंघु पहुंचे हैं. उनमें से अधिकतर, अभी तक दूसरों के खेतों पर कृषि-कार्य कर रहे थे, जिनमें गेहूं की बुवाई और मटर तथा गोभी जैसी सब्ज़ियों को संभालना शामिल था.
चिवरंजन ने कहा, ‘मेरे खेत पर कनक (गेहूं) की बुवाई पूरी हो गई है, और फिलहाल उसे सिंचाई की ज़रूरत नहीं है, जबकि खेतों पर दूसरा छोटा-मोटा काम समुदाय के लोग कर रहे हैं. इसलिए हम आसानी से कम से एक महीना रुक सकते हैं, और उसके बाद भी अगर ये चलता है, तो हम बारी-बारी से घर जाकर काम करेंगे, और फिर यहां वापस आ जाएंगे’.
उन्होंने आगे कहा, ‘हमारे परिवार ने हमसे कह दिया है, कि कुछ भी हो जाए, जब तक कृषि क़ानून वापस नहीं हो जाते, हम यहीं डटे रहें. ये तो पंजाब का आधा भी नहीं हैं, जो विरोध करने यहां आए हैं. बाहर से और घरों से आकर, बहुत सारे पंजाबी लोग प्रदर्शन में शामिल होने को तैयार हैं, जिन्हें फिलहाल रोक कर रखा गया है’.
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दोहरा संघर्ष
इधर दिल्ली की सीमाओं पर प्रदर्शन कर रहे किसान, कड़कड़ाती ठंड का सामना करते हुए, तीन नए कृषि क़ानूनों को पूरी तरह वापस लिए जाने की मांग कर रहे हैं, उधर उनके घरों पर भी एक संघर्ष चल रहा है, चूंकि उन लोगों की ज़िम्मेदारियां संभाली जा रही हैं, जो वहां नहीं हैं.
वहां गांवों में लोग न सिर्फ प्रदर्शन स्थलों को रसद पहुंचा रहे हैं, और राशन और समर्थकों की, निर्बाध सप्लाई सुनिश्चित कर रहे हैं, बल्कि प्रदर्शन स्थलों और राज्य के बीच चक्कर भी काट रहे हैं, ताकि दोनों और संख्या बनी रहे.
ख़बरों के मुताबिक़, 25 नवंबर को जब आंदोलन शुरू हुआ, तो तीन लाख किसान प्रदर्शनों के लिए निकले थे. एक अनुमान के मुताबिक़, तब से 60,000 और किसान प्रदर्शनों में शामिल हो चुके हैं.
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के अनुमान के मुताबिक़, भारत के प्रमुख गेहूं और चावल उत्पादकों में से एक, पंजाब सूबे में क़रीब 11 लाख जोत वाले किसान हैं- 2.04 लाख (18.7 प्रतिशत) सीमांत किसान हैं, 1.83 लाख (16.7 प्रतिशत) छोटे किसान हैं, और 7.06 लाख (64.6 प्रतिशत) के पास 2 हेक्टेयर से ज़्यादा ज़मीन है.
सूबे के मालवा क्षेत्र से, जहां सबसे अधिक छोटे और सीमांत किसान हैं, दिल्ली बॉर्डर पर चल रहे आंदोलन में, सबसे ज़्यादा प्रदर्शनकारी आए हैं. 1-5 एकड़ की छोटी ज़मीनों के साथ, इन किसानों पर क़र्ज़ में फंसने का ख़तरा रहता है. इस रीजन में पटियाला, मोगा, लुधियाना, बठिंडा, मानसा और संगरूर ज़िले शामिल हैं.
अनुमान के मुताबिक़ दिल्ली सीमाओं पर जमे आंदोलनकारियों में, क़रीब 85 प्रतिशत पुरुष हैं, और बाक़ी महिलाएं और बच्चे हैं.
ये प्रदर्शन बहुत सी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय किसान यूनियनों ने आयोजित किए हैं, जो एकजुट होकर संयुक्त किसान मोर्चा के झंडे तले आ गई हैं.
आंदोलन को, आपस में समन्वय कर रहीं यूनियनें, और स्थानीय स्तर पर प्रधान और सरपंच जैसे गांवों के प्रतिनिधि चला रहे हैं. इस नेटवर्क का बुनियादी काम रसद मुहैया कराना है. इन्होंने आंदोलन कर रहे किसानों के घरों का ख़याल रखने के लिए, हर गांव में सामुदायिक समूह गठित करने का भी ज़िम्मा लिया है.
महिलाएं और पुरुष, ज़िम्मेदारियों का बटवारा
तरन तारन के बाला चक से आईं रुपिंदर कौर, 1 दिसंबर से सिंघु बॉर्डर पर डेरा डाले हैं. वो प्रदर्शन स्थल पर रैलियां और लंगर आयोजित कर रही हैं.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मैं यहां कम से कम 10-15 दिन और रुकूंगी, जिसके बाद मेरे पति मेरी जगह आ जाएंगे. कृषि क़ानूनों में छोटे छोटे बदलावों की लॉलीपॉप से, हम यहां से नहीं हटेंगे. रद्द करने से कम हमें कुछ मंज़ूर नहीं है’.
प्रदर्शन में हिस्सा ले रहीं कौर जैसी महिलाओं की ज़िम्मेदारियां भी, उनके परिवार के मर्द और पड़ोसी निभा रहे हैं.
उन्होंने आगे कहा, ‘पड़ोसी मेरे बच्चों की ज़रूरतों और पढ़ाई का ध्यान रख रहे हैं, जबकि मेरे पति खेतों पर काम कर रहे हैं, और अपनी गेहूं की फसल को दूसरे राउण्ड का यूरिया दे रहे हैं. वो कहते हैं कि कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं है’.
पंजाब के गुरदासपुर से 85 वर्षीय किसान बाबा सिंह बाजवा ने, जो अपने दो बेटों के साथ सिंघु बॉर्डर पर हैं, गर्व के साथ अपना ट्रैक्टर दिखाया, जो क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों की ओर से आंसू गैस के गोले फेंके जाने के बीच, शंभू बॉर्डर को पार करने वाला, क़ाफिले का तीसरा ट्रैक्टर था.
उन्होंने कहा, ‘मेरा एक और बेटा और परिवार की बाक़ी महिलाएं, मवेशियों और खेतों की देखभाल कर रहे हैं. हमने घर की बातें भुला दी हैं, और यहां रहकर अपने भविष्य के लिए लड़ रहे हैं’.
बाजवा ने आगे कहा, ‘अगर हमारे खेतों की फसल इस सीज़न में ख़राब भी हो जाती है, तो भी हम अपना प्रदर्शन जारी रखेंगे. अगर हम फसलों के सही दाम नहीं ले पाएंगे और अपनी ज़मीनें नहीं बचा पाएंगे, तो फिर एक सीज़न की गेहूं की फसल से क्या होने वाला है?’
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आंदोलन को जारी रखने का संघर्ष
जब से ये आंदोलन शुरू हुआ है, अमरीक सिंह सिंघु प्रदर्शन स्थल से एक इंच नहीं खिसके हैं. उनका परिवार और उनका पड़ोसी जसवीर सिंह, पटियाला के फतेहपुर गांव में उनकी गेहूं की फसल को देख रहे हैं. जसवीर ख़ुद प्रदर्शन करने के बाद, सोमवार को गांव वापस गए हैं.
लेकिन, 6 एकड़ ज़मीन में खड़ी जवसीर की अपनी मटर की फसल, बुरी तरह ख़राब हो गई, चूंकि उनकी ग़ैर-मौजूदगी में उसे देखने वाला कोई नहीं था. जब वो प्रदर्शन में थे तो उनकी पत्नी, फसल और मवेशियों को अकेले देख रही थी.
लेकिन जसवीर फसल ख़राब होने से मायूस नहीं हैं, और जल्द ही प्रदर्शन में वापस शामिल होंगे. उन्होंने कहा, ‘हरियाणा और केंद्र सरकार ने हमारे ऊपर आंसू गैस छोड़कर, हमारे साथ अपराधियों जैसा बर्ताव किया है. भले ही हमारी फसल ख़राब हो गई हो, हमने ठान रखी है कि इन कृषि क़ानूनों को रद्द करवाकर, अपनी ज़मीनें और अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करेंगे’.
उनकी पत्नी सुरिंदर कौर ने कहा, ‘जब मेरे पति गए हुए थे, तो मुझे अपनी भैंसें बेंच देनी पड़ीं, चूंकि एक साथ सब कुछ संभालना मुश्किल हो गया था. अब हमारे पास एक भैंस बची है. हमने कोशिश की है, कि कुछ मवेशियों को बेंचकर, हमारे खेत बचे रहें’.
पड़ोस में सिर्फ 100 मीटर की दूरी पर, महिलाओं का एक समूह अपने पारिवारिक खेत पर, ख़राब हुई फसल को साफ कर रहा था. उनके परिवार की जीविका पूरी तरह, खेती और मवेशियों के काम पर निर्भर है.
एक को छोड़कर, इस परिवार के सभी लोग आंदोलन में शामिल हो गए हैं, जबकि चार महिलाएं रोज़मर्रा के कामकाज, ख़ासकर परिवार की 11 भैंसों की देखरेख में लगी हैं. उन्होंने मवेशियों के काम, जैसे उन्हें चारा डालने और नहलाने को, आपस में बांट लिया है.
इनमें से एक महिला मंजीत कौर ने कहा, ‘हमारा गेहूं थोड़ा पीला पड़ गया है, चूंकि हमने फसल की सिंचाई और उसमें यूरिया छिड़कने में देरी कर दी थी. लेकिन हम ये नुक़सान सहने को तैयार हैं, क्योंकि कोई किसी और काम में नहीं लगा है, इसलिए 15 लोगों के हमारे परिवार के लिए खेती ही सब कुछ है’.
उन्होंने आगे कहा कि परिवार को उनके पति की चिंता हो रही है, क्योंकि बॉर्डर पर उन्हें बुख़ार चढ़ा हुआ है.
मंजीत कौर ने ये भी कहा, ‘इस सर्दी में अकेले दम खेतों और मवेशियों को संभालना बहुत मुश्किल है, चूंकि हमारा दिन सुबह 5 बजे शुरू होकर, रात 11 बजे ख़त्म होता है. मैं जब भी अपने बच्चों को पढ़ाती हूं, तो उन्हें बहुत याद करती हूं’.
फतेहपुर से कुछ किलोमीटर दूर, पटियाला के एक और गांव दौन कलां में, दलजीत कौर गांव का जाना पहचाना चेहरा हैं. लंबे क़द की कौर एक हाथ में फावड़ा और दूसरे हाथ में टॉर्च लेकर, पंजाब की ठंडी हवाओं का सामना करते हुए, रात आठ बजे तक खेतों में काम करती हैं.
घर का कामकाज संभालने के अलावा, उनकी दिनचर्या में अपने गांव, और आसपास के इलाक़े की दूसरी महिलाओं को, तीन कृषि क़ानूनों के विरोध को समझाना शामिल है. वो अब हर रोज़ ट्रैक्टर पर सवार होकर, पास के गांवों में जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करती हैं.
उन्होंने कहा, ‘हम सवेरे क़रीब 2.30- 3 बजे उठती हैं, और खेतों और मवेशियों का काम करने के बाद, घर वापस आकर रोज़मर्रा के काम और बच्चों को देखती हैं. अगर बिजली दिन की जगह रात को आती है, तो कभी कभी हम खेत में रात को भी काम करते हैं. विरोध प्रदर्शन की वजह से हमारे जीवन का कोई काम रुक नहीं रहा है’.
उन्होंने कहा, ‘सरकार को कृषि क़ानून लाने से पहले, कम से कम हमसे मश्विरा करना चाहिए था, हमने इसके लिए कभी नहीं कहा. हमारे पिता, भाई और बहनें, कड़कड़ाती ठंड में दिल्ली बॉर्डर पर प्रदर्शन कर रही हैं, जहां हर रोज कोई मर रहा है या बीमार पड़ रहा है’.
ख़बरों के मुताबिक़ 26 नवंबर के बाद से, 20 से अधिक आंदोलनकारी किसान, दिल्ली बॉर्डर पर या सड़क हादसों में मारे जा चुके हैं, जिनमें से से अधिकांश पंजाब से हैं.
कौर ने आगे कहा, ‘हम मोदी से हाथ जोड़कर विनती करते हैं, कि इन क़ानूनों को वापस ले लें, ताकि वो शांति से सो सकें, और हमारे लोग भी सुरक्षित हमारे पास लौट आएं, नहीं तो ये तब तक चलेगा, जब तक क़ानून वापस नहीं लिए जाते’.
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