किसान आज जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं उनका ज्यादा ताल्लुक उनकी आमदनी से है, उनकी पैदावारों की कीमतों से नहीं. सरकार प्रति क्विंटल 2,000 की दर से गेहूं खरीदती है; अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भी आप इसे इसी दर में खरीद सकते हैं. भारत चावल के बड़े निर्यातकों में गिना जाता है, और इस मामले में तस्वीर अलग है. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारत इसकी सबसे कम कीमत रखता है. फिर भी, भारतीय किसानों को यह कीमत इतनी आकर्षक लगती है कि वे धान भारी मात्रा में उपजाते हैं— उन राज्यों में भी, जहां भूजल का स्तर काफी नीचे चला गया है. उन्हें दूसरी फसल की ओर मुड़ना चाहिए था, खासकर तब जबकि धान की खरीद दर आकर्षक नहीं है. लेकिन किसान ऐसा नहीं करते और यह हमें कुछ संकेत करती है.
चावल के विपरीत, भारतीय चीनी विश्व बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा में नहीं टिकती. पिछले साल इसे निर्यात करने के लिए सरकार ने उसकी लागत के 30 प्रतिशत के बराबर सब्सिडी दी. इस साल, जब कोई सब्सिडी नहीं घोषित की गई, तो इसका कोई निर्यात नहीं हुआ. सब्सिडी वास्तव में किसानों के खाते में जाती है, जिन्हें गन्ना उपजाने के लिए काफी भुगतान किया जाता है. इसलिए, वे इसे चावल की तरह इतना उपजाते हैं, जितने की देश को जरूरत नहीं है.
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धान और गन्ना पानी की बड़ी खपत करने वाली फसलें हैं, और भारत पानी की कमी वाला देश है. इन दोनों की प्रति एकड़ पैदावार को कम करने के लिए इनकी कीमतों को नियंत्रित किया जाना चाहिए लेकिन किसानों की राजनीतिक ताकत इतनी मजबूत है कि उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, जो कि इन दिनों दिल्ली में जो कुछ चल रहा है उससे जाहिर है. चूंकि दोनों फसलों को गारंटीशुदा खरीद मूल्य मिल जाता है, तो किसान को जो मिल रहा है उसे बनाए रखने के लिए आंदोलन क्यों नहीं करेगा? अगर सरकार झुक जाती है, तो किसान घर लौट जाएंगे लेकिन देश को जिन कृषि सुधारों की सख्त जरूरत है वे नहीं हो पाएंगे. और कुछ नहीं तो फिलहाल पानी का जो संकट पैदा हो गया है उसे और गंभीर होने से रोकने के लिए ही सही.
अगर सरकार ने विश्व बाजार में उपलब्ध कीमत दिलाने का वादा किया तो क्या किसान घर लौट जाएंगे? धान उगाने वाले किसान शायद लौट जाएं, गन्ना किसान नहीं लौटेंगे, जबकि रबर जैसी फसल उगाने वाले किसान चाहेंगे कि उनकी खातिर भारी आयात शुल्क जारी रखा जाए. इसलिए, अलग-अलग फसल के लिए अलग-अलग नियम जारी रहेंगे, जो रहना भी चाहिए. लेकिन सरकार किसानों से जैसे भी निपटे, हर फसल के मुताबिक नियम जरूरी हैं, जैसे सबकी पैदावार बढ़ाना जरूरी है. अंत में, एक काश्त पर कई लोग काम करते हैं इसलिए प्रति व्यक्ति आय कम हो जाती है और किसान खुद को गरीब मानते हैं और उनमें असंतोष पैदा होता है. वास्तव में अधिकतर किसान गरीब ही हैं क्योंकि देश की आधी कामगार आबादी कृषि क्षेत्र में लगी है और कुल राष्ट्रीय आय में केवल सातवां हिस्से के बराबर योगदान देती है. पियदा
इसलिए समाधान खेतों में नहीं मिलेगा, कारखानों में ही मिलेगा.
श्रम आधारित मैन्युफैक्चरिंग सरप्लस श्रम को खपा लेगी, जो माल बनाने में ज्यादा उत्पादक साबित होंगे और ज्यादा कमाई भी करेंगे. एक विकासशील देश के तौर पर रोजगार बाज़ार में जमीन पर निर्भरता से स्वतंत्र होकर यह बुनियादी बदलाव लाने के मामले में भारत एक अजनबी बना हुआ है. अगर कृषि में कम लोग लगे होते तो उसमें लगे लोगों की प्रति व्यक्ति आय बढ़ जाती और किसानों को अपनी पैदावार की कीमत को लेकर चिंता कम हो जाती.
मैन्युफैक्चरिंग में उपयुक्त रोजगार की कमी होने के कारण लोग अपेक्षा से कम आय वाले कामों की ओर मुड़ रहे हैं. आर्थिक सेंसस के मुताबिक, देश में 5.8 करोड़ अधिष्ठान हैं जिनमें से 70 प्रतिशत में केवल मालिक मौजूद है, कोई वेतनभोगी कर्मचारी नहीं है; आधे से ज्यादा घरों में या उनके बाहर बिना किसी तय इमारत के चल रहे है. इनमें से अधिकतर को वास्तविक अर्थ में उद्यम नहीं कहा जा सकता, वे केवल अपर्याप्त पारिश्रमिक पर काम करने वाले कारीगर के बूते चलते हैं या अपना वजूद बनाए रखने में जुटे रहते हैं. उपयुक्त रोजगार नहीं होगा तो यह संकट खेतों से आगे भी फैलेगा.
पुनश्च : पिछले दिनों 96 की उम्र में आखिरी सांस लेने वाले एफ.सी. कोहली को भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग को लेकर एक अभियान चलाने की जरूरत है. लोगों के जीवन और भारत की आर्थिक दिशा में बदलाव लाने का जो काम कोहली ने किया उससे ज्यादा काम केवल एम.एस. स्वामीनाथन (कृषि में) और वर्गीज कुरिएन (डेयरी में) ने किया. टाटा कंसल्टेन्सी सर्विसेज (टीसीएस) में काम करते हुए कोहली ने भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग की नींव रखी थी, और टीसीएस आज लाखों को रोजगार देने के अलावा भारत का सबसे बड़ा सॉफ्टवेयर निर्यातक है. लेकिन कोहली की रुचियों और उनके काम का दायरा इससे भी बड़ा था. वे इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा को आगे बढ़ाने, सिस्टम इंजीनियरिंग के कोर्स डिजाइन करने और ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार करने में जुटे थे, जिससे बेसिक कंप्यूटर पर 40 घंटे की ट्रेनिंग से निरक्षरता को मिटाया जा सके. वे बेहद विनम्र और दिखावे से दूर रहने वाले व्यक्ति थे. लेकिन उनकी उपलब्धियां एम. विश्वेसरैया और ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (भारतरत्न से सम्मानित होने वाले बस दो इंजीनियर) सरीखे वैज्ञानिकों की उपलब्धियों के बराबर थीं.
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