इन पंक्तियों के लिखे जाने के वक्त अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनावी मुकाबला कांटे की टक्कर में बदलता दिख रहा है. बाइडेन आगे हैं (253 इलेक्टोरल वोट्स) लेकिन इतने भी आगे नहीं कि ट्रंप को अभी से ही हारा हुआ (214 इलेक्टोरल वोट्स) मान लें. चुनाव परिणाम के लिहाज से अभी के लम्हे में टेलीविजन और स्मार्टफोन के पर्दे पर एकदम दम साधकर देखे जा रहे इस मुकाबले में ऊंट चाहे जिस करवट बैठे, दुनिया भर में लोकतंत्र के जो हिमायती हैं उन्हें ट्रंप का एक बात के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए. ट्रंप एकलौते अपने दम पर हमारे समय के सबसे बड़े मिथक का महिमा-भंजन करने में कामयाब रहे और यह मिथक है अमेरिकी लोकतंत्र की महानता का, पूरी दुनिया में मन-मानस पर जड़ जमाकर बैठी इस धारणा का कि अमेरिका लोकतंत्र का अप्रतिम उदाहरण है यानि शेष दुनिया के लिए अनुकरण का एक आदर्श मॉडल.
अमेरिका के लोकतंत्र की श्रेष्ठता का यह मिथक ट्रंप ने राष्ट्रपति रहते तार-तार किया. सो, लोकतंत्र के हिमायतियों को इस एक बात के लिए उनका शुक्रगुजार होना चाहिए.
यों लोकतंत्र के अमेरिकी मॉडल की श्रेष्ठता के मिथक को ध्वस्त करने का सारा श्रेय ट्रंप को देना ठीक नहीं. दरअसल, उन्होंने बस इतना भर किया कि जो राज जैसे-तैसे करके दुनिया की नजरों से छिपाकर रखे गये थे उनपर से एक झटके में पर्दा उठा दिया. कहावत है कि गधे काबुल में भी होते हैं और इसी तर्ज पर हम अब ये कह सकते हैं कि लोकतंत्र अपनाने वाले दुनिया के बाकी देशों की तरफ ऐन अमेरिका में भी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने वाले कुछ नेता बौद्धिक और नैतिक रुप से निहायत नकारा होते हैं.
ट्रंप ने शासन के अपने बीते सालों में इस बात पर शक करने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी. ट्रंप जैसा कोई व्यक्ति बिल्कुल धक्कामार तरीके से ह्वाइट-हाऊस में पहुंच सकता है और फिर बड़ी ढ़ीठाई से दोबारा भी अपनी कुर्सी बचाये रखने के लिए टिका रह सकता है, अभी के लम्हे में नजर आता ये तथ्य अमेरिकी जनता की दशा-दिशा के बारे में किसी तकलीफदेह बयान से कम नहीं.
ट्रंप ने कोरोनावायरस की महामारी में जिस ढंग की बदइंतजामी दिखायी उससे विकसित और अविकसित देशों के बीच का फर्क एकदम से मिटता दिखा. चुनावों के तुरंत पहले उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह जजों की नियुक्ति की उससे जाहिर हुआ कि दुनिया के सिरमौर कहलाने वाले लोकतंत्र की शीर्ष न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति खुद में कितना बड़ा गड़बड़झाला साबित हो सकती है. #ब्लैकलाइव्जमैटर्स के आंदोलन के दौरान ह्वाइट सुपरमेसिस्ट यानि गोरी रंगत के लोगों की बरतरी के तरफदारों की उनकी खुल्लमखुला जान पड़ती हिमायत से ये बात भी दिन के उजाले की तरह लोगों के सामने आ गई कि अमेरिकी जन-जीवन में नस्ली-गैरबराबरी बहुत गहरे तक जड़ जमाये बैठी है. और, एक बड़ी बात ये भी हुई कि ट्रंप की करतूतों से पूरी दुनिया का ध्यान इस बार के अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव पर आ टिका और वहां के इस चुनाव की लचर प्रणाली एकबारगी लोगों के सामने उजागर हो गई. जाहिर है, चुनाव कैसे करायें और किस तरह निष्पक्ष ढंग से वोटों की गिनती कराके झटपट चुनाव के नतीजे बतायें सरीखे मोर्चे पर अमेरिका भारत से कुछ सबक सीख सकता है.
संक्षेप में कहें तो ट्रंप के बदौलत दुनिया ने जाना कि अमेरिका लोकतंत्र के मामले में कोई सिरमौर नहीं बल्कि अन्य लोकतांत्रिक देशों की ही तरह है यानि उसके भीतर भी खूबी-खामी है जैसे कि बाकी लोकतांत्रिक देशों में. और, दुनिया के बाकी मुल्कों को लोकतंत्र का उपदेश देने से पहले अमेरिका को भी लोकतंत्र के कुछ पाठ पढ़-सीख लेने चाहिए. अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनावों के नतीजे चाहे जो भी हों, उन नतीजों से इन दो बातों की अहमियत रेखांकित हो रही होगी.
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अमेरिका लोकतंत्र का कोई मॉडल नहीं
मुझे ये सबक बहुत पहले ही मिल गया था. और इसके लिए मैं अपने मित्र, सह-लेखक तथा शिक्षक स्वर्गीय अल्फ्रेड स्तेपान का शुक्रगुजार हूं. तुलनात्मक राजनीति के अग्रगण्य विद्वान प्रोफेसर स्तेपान (तथा स्व. हुआन जे लिंज) दक्षिण अमेरिका के देशों के अधिनायकवादी शासन, स्पेन के कैटलान की आजादी के मसले या फिर यूक्रेन में मौजूद रुसी अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर उसी सहजता और अधिकार से बोल सकते थे जैसा कि श्रीलंका के लिट्टे (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम) और म्यांमार में लोकतंत्र के लिए चले आंदोलन पर. प्रो. स्तेपान की भारत में गहरी रुचि थी (उनके ड्राइंगरुम में मौजूद एम.एफ हुसैन का चित्र मेहमानों को उनके भारत-प्रेम की याद दिलाता था) और भारतीय राजनीति की हर बारीक से बारीक बात वे जान लेना चाहते थे. ( वे ये समझने के लिए खुद मिजोरम गये थे कि यह सूबा 1987 के बाद कैसे राजनीति की मुख्यधारा में लौटा). मैंने सह-लेखक के बतौर क्राफ्टिंग स्टेट-नेशन्स नाम की किताब लिखते वक्त प्रोफेसर स्तेपान और प्रोफेसर लिंज से बहुत कुछ सीखा.
अपने जीवन के आखिर के सालों में प्रोफेसर स्तेपान ने अपने देश संयुक्त राज्य अमेरिका के बारे में गहराई से सोचना और तुलनात्मक रुप से देखना शुरू किया था. ऐसा तो नहीं कह सकते कि वे अमेरिकी पूंजीवाद के कोई वामपंथी आलोचक थे. वे अपनी रुचि और पसंद में बिल्कुल अमेरिकी थे, एकदम से उदारवादी डेमोक्रेट. अभी ट्रंप का नाम राजनीति की दुनिया में दूर-दूर तक सुनायी नहीं दिया था, तभी उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि: अगर दुनिया को लोकतंत्र की राह पर चलना है तो फिर अमेरिका को मॉडल के रूप में नहीं चुना जा सकता.
मैंने बड़ी आसानी से इस बात को स्वीकार कर लिया क्योंकि दुनिया के विकसित मुल्क अपनी जिस नैतिक बरतरी के दावे करते हैं, मुझे उनपर हमेशा से संदेह रहता आया है. लेकिन, संयुक्त राज्य अमेरिका के लोकतंत्र की सर्व-श्रेष्ठता पर विश्वास से आक्रान्त माहौल में मुझे ये बात कहते हुए बड़ी हिचक हुआ करती थी. ट्रंप ने मेरे काम को आसान कर दिया. आज का दिन उन चार वजहों को गिनाने के लिहाज से माकूल कहा जायेगा जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि अमेरिका, लोकतंत्र को अपनाने के लिहाज से मॉडल कतई नहीं है. इन चार वजहों में से दो का रिश्ता संस्थागत बनावट से है और शेष दो का राजनीति की प्रकृति से.
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व्यवस्था का गड़बड-झाला
पहली वजह है अमेरिका में प्रचलित शासन की ‘राष्ट्रपति’ केंद्रिक प्रणाली का दोषपूर्ण होना. ये बात तो जाहिर है ही कि शासन की राष्ट्रपति केंद्रित इस प्रणाली में विधायिका और कार्यपालिका के बीच आये दिन तकरार पैदा होती है और ऐसे में कामकाज ठप्प हो जाता है. अल्फ्रेड स्तेपान ने इस बात का एक अलग ही तर्ज पर सूत्रीकरण किया और बताया कि: राष्ट्रपति केंद्रिक प्रणाली की असल समस्या ये है कि इसमें सत्ता अविभाज्य हो जाती है और गठबंधन बनाना तो और भी कठिन. सत्ता में साझेदारी करनी हो तो ये चीज उसके आड़े आ जाती है जबकि सत्ता में साझीदारी विविधताओं को संभाले रखने के लिए अनिवार्य है.
इसके अतिरिक्त अमेरिकी प्रणाली में निषेधाधिकार के मुकाम (वीटो प्वाइंट्स) ज्यादा हैं. प्रो. स्तेपान ने बड़ी विद्वता से अपने अध्ययन में दिखाया है कि किसी राजनीतिक व्यवस्था में निषेधाधिकार के बिन्दू जितने ही ज्यादा हों, समाज में असमानता उतनी ही ज्यादा होगी. प्रो. स्तेपान लगातार याद दिलाते चलते थे कि जिन मुल्कों में लोकतंत्र लंबे समय से चला आ रहा है उनमें संयुक्त राज्य अमेरिका ही एकमात्र ऐसा मुल्क है जहां समाज में असमानता सबसे ज्यादा है. और, यही वजह है जो अमेरिकी तर्ज की राष्ट्रपति केंद्रित प्रणाली चाहे जहां कहीं आजमायी गई, चाहे वे दक्षिण अमेरिका के देश हों या फिर पूर्व सोवियत संघ से निकले देश, इन सब जगहों पर नतीजे खराब ही रहे.
अमेरिकी तर्ज की राजनीतिक व्यवस्था में ध्यान देने की दूसरी चीज है यहां प्रचलित अनोखा संघवाद. अमेरिका में तकरीबन हर अधिकार उसके राज्यों में निहित हैं, बशर्ते किन्ही विशिष्ट स्थितियों में वे केंद्र को ना दे दिये गये हों. ये बात आप अब भी देख सकते हैं कि अलग-अलग राज्यों ने राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव किस तरह करवाये. हर राज्य का अपना अलग नियम होता है कि कौन, किस प्रक्रिया से, कब और कैसे वोट डाल सकता है. इतना ही नहीं, हर राज्य की अपनी एक समय-सारणी होती है कि वहां परिणामों की गिनती कब शुरू होगी, एक तारीख विशेष के बाद जो वोट मिले हैं उन्हें गिना जायेगा या नहीं और वोटों की गिनती के लिए अंतिम समय-सीमा क्या होगी.
यों तो अमेरिकी समाज एक सरीखा बनता दिखता है लेकिन राज्य अपने इन अधिकारों को पूरे प्राणपण से बचाये रखने में लगे रहते हैं. कहा जाता है कि संघवाद का यही ‘असली’ मॉडल है. लेकिन, प्रो. स्तेपान का कहना है कि यह संघवाद का कोई मॉडल नहीं और ना ही किसी अन्य जगह पर इसे मॉडल मानकर अपनाने की जरूरत है. दरअसल यह तो साथ मिलकर रहने-जीने की एक तरकीब भर है और अमेरिका में ऐसे संघवाद को अपनाने से पहले ही इसकी इकाइयों में एका स्थापित हो चुका था.
राजनीति विज्ञानी जिसे अपनी किताबी भाषा में समतोल संघवाद (सिमेट्रिकल फेडेरलिज्म) कहते हैं, अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था उसी का एक नमूना है. संघ की हर इकाई को एक समान अधिकार दिये गये हैं. कोई भी राज्य, चाहे वह कितना भी छोटा या बड़ा क्यों ना हो, उसे अमेरिकी सीनेट में दो सीटें हासिल हैं. अमेरिका राजनीतिक व्यवस्था में किसी राज्य की जनसंख्या की ताकत को दिखाने वाली जगह ‘हाऊस ऑव रिप्रेजेंटेटिव’है जबकि अधिकार सीनेट को ज्यादा हासिल हैं.
प्रो. स्तेपान ने ध्यान दिलाया है विविधताओं को एक में धारण करने के लिए विशिष्ट परिस्थितियों को स्वीकार करना और उसी के अनुकूल विशेष व्यवहार तय करना जरूरी होता है. और, इसी नाते कनाडा तथा भारत जैसे देशों में असमतोल संघवाद (एसिमेट्रिकल फेडेरलिज्म) है जो समाज में मौजूद गहरी विविधता को स्वीकार करने और उनकी समायी के हक में कहीं ज्यादा वाजिब है. तो, कह सकते हैं कि संघवाद के मामले में भी अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था को हम अच्छा मॉडल नहीं मान सकते.
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कुछ वजहें ट्रंप ने भी जोड़ी हैं
लोकतंत्र के एतबार से अमेरिका को क्यों एक मॉडल के रूप में नहीं अपनाया जा सकता, इसकी फेहरिस्त में दो वजहें ट्रंप ने भी जोड़ी है. एक ये कि ट्रंप के शासन-काल में ये साफ दिख गया कि दो-दलीय प्रणाली कितनी खोखली है. दोनों ही बड़े दल विचारधारागत जमीन और सांगठनिक गहराई के मामले में हवा-हवाई हैं. ये दल एक-दूसरे का विकल्प नहीं बल्कि लोगों के सामने विकल्पहीनता की स्थिति पैदा करते हैं. बाइडेन चुनाव जीत जाते हैं तो भी क्या होना है? वे ट्रंप का ही एक सुथरा हुआ संस्करण भर साबित होंगे, उनमें बस जहर उगलते रहने की रोजाना की ट्रंप सरीखी आदत नहीं है.
दूसरी बात, बीते चार सालों में ये भी साफ हो गया है कि अमेरिकी जनमत को भरमाये रखना, उसे मन-मुताबिक किसी खास तरफ मोड़ देना किस हद तक आसान है. अलेक्स द टॉकवेल ने ये बात दो सौ साल पहले ही पहचान ली थी. ट्रंप के शासन में रहते ये बात साबित हुई कि जनसंचार माध्यमों और सोशल मीडिया के तेजतर बढ़वार के इस दौर में ये समस्या और भी ज्यादा गहरी हुई है. ट्रंप हारें चाहे जीतें लेकिन उनके राष्ट्रपति रहते ये बात साफ हो गई है कि अमेरिका में झूठ, फरेब और नफरत फैलाते हुए राष्ट्रपति बना रहा जा सकता है. और, इससे भी खराब बात ये कि ट्रंप ने साबित कर दिखाया कि दुनिया की सबसे ताकतवर मीडिया की मौजूदगी में भी झूठ और फरेब का जाल धड़ल्ले से बुना जा सकता है.
फिर जाहिर है कि अभिव्यक्ति की आजादी के रहते भी ये मानकर नहीं चला जा सकता कि समाज में सच्चाई ही जड़ जमायेगी. हां, अकेले अमेरिका ही ऐसी जगह नहीं जहां अभिव्यक्ति की आजादी के बीच झूठ और मक्कारी की बढ़वार ने अपनी जमीन पैदा की हो. हम ऐसी जगहों के रूप में भारत को भी देख सकते हैं और अन्य देशों से भी ये सबक ले सकते हैं.
दुनिया लोकतंत्र के एक नये सिद्धांत की प्रतीक्षा में है. हां, इस बीच हम लोग इस बात की खुशी मना सकते हैं कि अमेरिकी तर्ज की राजनीतिक व्यवस्था को मॉडल मानकर चलने के मिथक का महिमा-भंजन हो चुका है. ये ना समझ लीजिएगा कि इस महिमा-भंजन की खुशी मनाने के पीछे वही इच्छा काम कर रही है जो किसी की चौधराहट को भरभराकर गिरते देखे किसी कमजोर के दिल में उठा करती है.
अमेरिकी तर्ज की राजनीतिक व्यवस्था के महिमा-भंजन से खुश होने की वजह ये है कि अब हम कोशिश करें तो लोकतंत्र की सही राह को गढ़ और चुन सकते हैं. अभी लोकतंत्र का कोई पुख्ता मॉडल मौजूद नहीं. वह शय जिसे बिल्कुल मुकम्मल तौर पर गढ़ी हुई किसी प्रतिमा की तरह मान लिया गया है, उस तक पहुंचाने वाला कोई तयशुदा रास्ता दरअसल हमारे आगे मौजूद नहीं है.
लोकतंत्र की प्रतिमा तक पहुंचाने वाला सफर बड़ा कठिन है. आपको इस सफर पर बढ़ते हुए हर कदम पर आगे के कंकड़-पत्थर हटाने होते हैं, खाई-खंदक पाटने होते हैं और रास्ता बनाते हुए चलना पड़ता है. ये बात जितनी डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका के बारे में सच है उतनी ही नरेंद्र मोदी के भारत के बारे में.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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Pehli baar Yogendra Yadav ki bhasha main mujhe modi ji nazar aa gaye… American are racist but not fool woh ek baar to American first pe vote de sakte hai democracymain. But not like our fellow Indian people 2 Baar election nahi jita sakte…like our feku wave n win the india sirf jhumo,pulawama or zuban ko talvar ki tarah chalake.
So each n every democratic country us ki apni institutions hai but hamari institutions to modi ke Charno main hai jaise kedarnath ki Modi mudra main soyi hui.
Pata nahi kab jaag payega hamara mango people.
woh jagega ya modi ji ki tarh Modi mudra main leen hoo kar barbad hota rahega.
So American democracy not failed as per my calculation.
Jitega to Biden hi feku ka dost to bilkul nahi.
बकवास लेख है और आप का दोस्त स्तेपन आप से बड़े मूर्ख है