पटना में फ्रेजर रोड क्रॉसिंग पर लगे एक बिलबोर्ड कहा गया है- जिसने कराया पुलों का निर्माण, वही खोलेगा विकास के द्वार. इस नारे के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक बड़ी तस्वीर है और एक संदेश लिखा है- भाजपा है तो भरोसा है.
बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के पोस्टरों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नदारद रहना काफी चर्चा का विषय रहा है. कुमार द्वारा मोदी को श्रद्धेय कहकर संबोधित करने और मतदाताओं को अपनी सरकार के विकास के एजेंडे के बारे में समझाने के लिए उनके नाम का इस्तेमाल किए जाने ने उनके राजनीतिक विरोधियों को अतीत में उनके कटु रिश्तों को याद करते हुए व्यंग्य कसने का मौका दे दिया है. इन्हीं नीतीश कुमार ने 2010 के विधानसभा चुनावों में बिहार में मोदी के अभियान के खिलाफ ताल ठोकी थी. बिहार में बदलाव के तेज होते सुर के बीच वह मोदी को अपनी ढाल के तौर पर सामने करने को मजबूर हैं.
तो क्या गलत हो गया है? ब्रांड नीतीश का क्या हुआ?
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मोदी यूएसपी हैं
बिहार में बदलाव के पक्षधर मतदाताओं का भी मानना है कि उन्हें 18-22 घंटे बिजली की आपूर्ति मिल रही है जो लालटेन वाले दिनों की तुलना में एक बड़ी उपलब्धि है. सड़कों की स्थिति बेहतर है. तमाम घरों में नलों के जरिये जलापूर्ति होती है. इसलिए, बिजली-पानी-सड़क का पुराना नारा अब प्रासंगिक नहीं रहा है. फिर प्रसव पूर्व से लेकर प्रसव बाद तक के लिए तमाम सारी कल्याणकारी योजनाएं हैं जो विभिन्न चरणों में लोगों का जीवन बेहतर कर रही हैं. इसमें गर्भवती महिलाओं के लिए राशन, टीकाकरण, मध्याह्न भोजन, स्कूली बच्चों के लिए साइकिल और यूनिफॉर्म, मुफ्त या रियायती अनाज, आवास योजना, पेंशन और गरीब परिवार के किसी सदस्य के अंतिम संस्कार के लिए अनुदान देना आदि भी शामिल हैं.
फिर ऐसा क्यों है कि लोगों का एक वर्ग सरकार बदलने के लिए व्यग्र हो रहा है? क्या वजह है कि अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और महादलित/दलित काफी हद तक नीतीश कुमार शासन का समर्थन करता है लेकिन वोट देने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ नहीं है?
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) इस बार बिहार में इसे भुना पाता है या नहीं. लेकिन चुनाव नतीजों से बेअसर दो फैक्टर एकदम अटल बने रहेंगे. पहला, मोदी बिहार में पहले से ज्यादा लोकप्रिय हैं. यह भावना वर्गों, जातियों और क्षेत्रों से परे है. राज्य में एनडीए सरकार को हटाने के लिए वोट देने के इच्छुक लग रहे लोगों को भी नीतीश को मोदी के समर्थन को लेकर रंज है— ‘मोदी जी अपनी छवि क्यों धूमिल कर रहे हैं?’ गत बुधवार की दोपहर राज्य भाजपा मुख्यालय के बाहर चाय पी रहे बदलाव समर्थकों के एक समूह ने मुझसे कहा, ‘मुखिया के चुनाव में नीतीश जी प्रचार करेंगे तो लोग मुखिया को देखेंगे या सीएम को? वही बात पीएम के प्रचार पर भी लागू होती है.’
यह बताने की जरूरत नहीं है कि आज बिहार में बदलाव न चाहने वालों की तुलना में बदलाव समर्थक ज्यादा है. इनके सही आंकड़े तो हम 10 नवंबर को चुनाव नतीजे सामने आने के बाद ही जान पाएंगे. ये उदाहरण तो बस यह बताने के लिए हैं कि राज्य में मोदी का कितना सम्मान है. हाल के विधानसभा चुनावों, जिसमें ब्रांड मोदी स्थानीय फैक्टरों को पछाड़ने में नाकाम रहा, के विपरीत बिहार में प्रधानमंत्री की छवि एनडीए की यूएसपी है.
दूसरे ब्रांड नीतीश को चोट जरूर पहुंची है लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. बड़ी संख्या में ईबीसी और महादलित अब भी उनकी सरकार को अहमियत देते हैं. लेकिन साथ ही बदलाव की गूंज ने एक अचूक घेरा बना रखा है. यह हमें इस मांग के संभावित कारण से जुड़े मूल प्रश्न पर वापस लाता है.
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1974 बैच सिंड्रोम
दिलचस्प बात यह है कि मतदाता भले ही बदलाव की वजह को लेकर थोड़ा अस्पष्ट हों लेकिन राज्य की नौकरशाही का एक वर्ग, विशेष रूप से वरिष्ठ भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी जानते हैं कि क्या गलत हुआ है: नीतीश कुमार उसी ‘1974 बैच सिंड्रोम’ के शिकार हैं.
वे नीतीश कुमार, लालू यादव और दिवंगत रामविलास पासवान समेत कुछ नेताओं के एक समूह का हवाला देते हैं जिनके राजनीतिक उदय का श्रेय जयप्रकाश नारायण के 1974 के छात्र आंदोलन में उनकी भागीदारी को जाता है. नीतीश कुमार और लालू यादव-राबड़ी देवी दोनों सरकारों में काम कर चुके एक वरिष्ठ नौकरशाह ने मुझसे कहा, ‘उन्होंने जेपी से आंदोलनों का नेतृत्व करना सीखा, लेकिन उनकी राजनीति आकांक्षी युवाओं को जवाब देने के लिहाज से विकसित या परिपक्व नहीं हुई है. उनकी राजनीति और सत्ता अभी भी लोहिया के सामाजिक न्याय विचारों से जन्मी सोशल इंजीनियरिंग और बिजली-पानी-सड़क तक केंद्रित है.’ उनके कई सहयोगियों ने भी समान राय जताते हुए कहा कि ये नेता औद्योगीकरण और निजी क्षेत्र की भूमिका को लेकर किस तरह ‘चौकन्ने’ रहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उन्हें ‘गरीब-विरोधी’ दिखाएगा.
एक अन्य नौकरशाह ने कहा, ‘मैं इसे उनकी सीमित दृष्टि कहता हूं.’
यह एक विडंबना ही है कि लालू और नीतीश (जेपी के छात्र आंदोलन का नेतृत्व करने से पहले) जिस छात्र संघर्ष समिति का हिस्सा थे, उसने महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने से पहले अपनी शुरुआत बेरोजगारी को मुख्य मुद्दा बनाकर की थी. बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे ने लालू यादव-राबड़ी देवी सरकार के लिए हमेशा मुश्किलें खड़ी कीं और अब नीतीश कुमार भी इससे जूझ रहे हैं. अधिकारियों के मुताबिक भ्रष्टाचार अब एक ऐसा ईंधन बन गया है जिसके बिना आज बिहार में शासन की मशीन नहीं चल पाएगी.
नीतीश कुमार ने राज्य में निवेश बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाई, जिससे रोजगार पैदा होता. लेकिन बिहार औद्योगिक प्रोत्साहन नीति 2011 और बिहार औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन नीति 2016 जैसे सभी प्रयास आधे-अधूरे ही साबित हुए.
बड़े उद्योगों को आकर्षित करने के लिए दो बुनियादी आवश्यकताएं हैं- भूमि की उपलब्धता और मंजूरी. बिहार सरकार के अधिकारियों का कहना है कि मौजूदा स्थिति में बिहार में सिर्फ 5,000 एकड़ औद्योगिक क्षेत्र है और ऐसे प्रत्येक क्षेत्र का औसत आकार सिर्फ 200-225 एकड़ है जो किसी एक बड़े उद्योग के लिए भी पर्याप्त नहीं है. 1990 के बाद से कोई भी औद्योगिक क्षेत्र विकसित नहीं हुआ है. पटना से लगभग 50 किलोमीटर दूर सिकंदरपुर (लगभग 300 एकड़) में औद्योगिक क्षेत्र विकसित किया जा रहा है, लेकिन अभी इसका काम पूरा नहीं हो पाया है. और मंजूरी के बारे में तो जितनी कम बात की जाए, उतना ही बेहतर है. एक और आईएएस ने झिड़की भरे अंदाज में कहा, ‘औद्योगीकरण और शहरीकरण साथ-साथ चलना चाहिए. दुर्भाग्य से नीतीश कुमार या उनके पूर्ववर्तियों ने कभी भी इनमें से किसी की जरूरत नहीं समझी.’
उन्होंने भौतिक रूप से शिक्षा का बुनियादी ढांचा तैयार किया लेकिन शिक्षकों की गुणवत्ता ऐसी है कि बिहार के छात्र कम से कम अगले दो दशकों तक इसका खामियाजा भुगतेंगे. नीतीश कुमार सरकार ने हर उप-मंडल में एक आईटीआई संस्थान खोला लेकिन वहां शायद ही कोई फैकल्टी है. यही हाल नए मेडिकल कॉलेजों का है.
एक अन्य नौकरशाह कहते हैं, ‘अगर आप मुझसे पूछें, तो नीतीश कुमार अब भी मुख्यमंत्री पद के सभी दावेदारों-उम्मीदवारों में सबसे आगे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से वे पूरी तरह से सोशल इंजीनियरिंग पर ही निर्भर हैं.’ हालांकि, इसका सारा श्रेय कुमार की शुरुआती लोहियावादी पृष्ठभूमि को दिया जा सकता है, न कि जेपी को. वह जेपी संग जुड़ने से पहले लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से संबद्ध समाजवादी युवजन सभा से जुड़े थे.
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रोजगार का मुद्दा हावी
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव के 10 लाख नौकरियों के घोषणापत्र के वादे को देखते हुए नीतीश कुमार खुद को एक कमजोर पिच पर पाते हैं. यद्यपि भाजपा ने इसके जवाब में 19 लाख नौकरियों के वादे के साथ इस मुद्दे की धार कुंद करने की कोशिश की है, लेकिन नीतीश कुमार ने रोजगार को लेकर हो रही तमाम बातों को ‘बकवास’ और ‘लोगों को गुमराह और भ्रमित करने’ वाली बताकर खारिज कर दिया है. उनके पार्टी के सहयोगी जानना चाहते हैं कि तेजस्वी 10 लाख सरकारी नौकरियां देने के लिए 50,000 करोड़ रुपये कहां से लाएंगे.
लेकिन तेजस्वी का वादा युवाओं के एक वर्ग को लुभाता दिख रहा है, खासकर इस वजह से कि नीतीश कुमार ने अपने अगले कार्यकाल में रोजगार के अवसर मुहैया कराने का कोई रोड मैप नहीं बताया है.
हालांकि, सरकार में उनके कुछ कनिष्ठ सहयोगियों ने तेजस्वी के रोजगार के वादे से उपजे खतरे को भांप लिया है.
मंत्री संजय कुमार झा ने गत शुक्रवार शाम झंझारपुर के फुलपरास निर्वाचन क्षेत्र के भाखरेन गांव में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘यह अच्छा है कि युवाओं की आकांक्षाएं बढ़ रही हैं. बिहार में प्रगति के लिए यही जरूरी है जिसका समय आ गया है. पानी, सड़क और बिजली के बिना कौन यहां उद्योग लगाने आएगा? अब जब हमारे पास यह सब होगा, तो पैसा मोदीजी से आएगा और नीतीशजी इसे (उद्योगों को लाना) अंजाम देंगे.’ इस पर वहां मौजूद युवाओं ने जमकर तालियां बजाईं.
हालांकि लगता है कि तालियों की यह गड़गड़ाहट अभी नीतीश कुमार के कानों तक नहीं पहुंची है. लेकिन वह विचारों को अपनाने और नया सीखने के लिए तत्पर माने जाने जाते हैं. अपनी किताब, द बैटल फॉर बिहार: नीतीश कुमार एंड द थिएटर ऑफ पावर में, पत्रकार अरुण सिन्हा लिखते हैं कि जब वह और उनके दोस्त नवंबर 2010 में मुख्यमंत्री के रूप में दूसरे कार्यकाल की शुरुआत के दौरान नीतीश कुमार से मिलने गए थे तो उन्होंने कहा, ‘मैं अंग्रेजी सीखना चाहता हूं.’ सिन्हा ने उन्हें एक बेहतरीन शब्दकोश, एक थिसॉरस और ऑक्सफोर्ड का कलेक्शन लाकर दिया था. अगर केवल मोदी उन्हें युवाओं की भाषा बोलने पर एक किताब ला देते! तो जैसा कि कुमार अपने मतदाताओं से कहते हैं अगर उन्हें दोबारा चुनेंगे तो वह उनके गांवों में सौर ऊर्जा से संचालित लैंप पोस्ट लगा देंगे.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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