जुलाई 2017 में, नीतीश कुमार ने अपने चुनाव-पूर्व सहयोगी लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल का साथ छोड़कर, नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया. उस समय एक प्रेस कॉनफ्रेंस में नीतीश कुमार ने ऐलान किया, कि 2019 के लोकसभा चुनाव में, कोई भी मोदी को नहीं हरा पाएगा.
उससे कुछ पहले ही नोटबंदी की नाकामी के बावजूद बीजेपी ने उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल की थी. जिस समय फीका पड़ चुका राष्ट्रीय विपक्ष लड़खड़ाता दिख रहा था, उस समय लगता है नीतीश ने हिसाब लगा लिया था, कि मोदी युग अभी जाने वाला नहीं है. बीजेपी के साथ मिलकर, वो ख़ुद को सुरक्षित कर रहे थे.
2010 में बिहार में बीजेपी के साथ मिलकर, नीतीश के जनता दल (युनाइटेड) ने, 243 में से 210 सीटें जीतीं थीं. इस गठबंधन को अजेय माना जा रहा था. नीतीश सुशासन का चेहरा थे, तो बीजेपी काडर-आधारित पार्टी थी, जो ज़मीनी स्तर पर शोर मचाती थी. नीतीश ने निचले अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के मसीहा के तौर पर, यादवों को हाशिए पर कर दिया था, जबकि बीजेपी ने उसमें ऊंची जातियों का वोट बैंक जोड़ दिया था. लालू यादव की हैसियत घटकर, मुस्लिम-यादव वोट बैंक तक रह गई थी.
2019 के लोकसभा चुनावों में हमने यही बात दोहराते हुए देखी, जब नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) ने, 40 में से 39 सीटें जीत लीं. आज अगर आप इस राज्य में जाएं, तो आप यक़ीन नहीं करेंगे. लोग चाहते हैं कि नीतीश कुमार जाएं, लेकिन वो ‘मोदी! मोदी!’ भी नहीं गा रहे हैं. जब आप लोगों से मोदी के बारे में पूछते हैं, तो वो उनकी तारीफ करते हैं. ये नीतीश हैं जो अच्छा नहीं कर रहे हैं. टॉयलट्स और गैस सिलिंडर से लेकर राम मंदिर और कश्मीर तक, मोदी अच्छे हैं. एक समय था जब भारतीय वोटर जानता था, कि महंगाई का दोष केंद्र सरकार को, और क़ानून व्यवस्था का राज्य सरकार को देना है. आज बिहार में आप देखेंगे कि नीतीश कुमार से नाराज़ लोग, महंगाई की शिकायत नहीं कर रहे हैं. चंपारण के बेतिया में एक दुकानदार मुझसे पूछता है, ‘क्या आपने ज़िंदगी में पहले कभी इतना महंगा आलू खाया है?’ वो साह जाति से है, जो परंपरागत रूप से बीजेपी को वोट देने वाला समुदाय है. वो बेतिया में कांग्रेस को वोट देने जा रहा है, जहां चुनाव में बीजेपी बनाम कांग्रेस मुक़ाबला है. लेकिन मोदी अच्छे हैं…
मोदी की नाकामियों की ठींकरा मुख्यमंत्रियों के सिर
बिहार के इस चुनाव में लोगों के ग़ुस्से की सबसे बड़ी वजह है लॉकडाउन. 2019 में भी बेरोज़गारी काफी अधिक थी. लेकिन लॉकडाउन से पैदा हुई बेरोज़गारी एक अलग ही स्तर की है. इसके अलावा बेतिया में एक गृहिणी आप पर चढ़ जाती है, और पूछती है कि मुफ्त राशन के साथ भी, सिर्फ 500 रुपए महीना पर वो कैसे जिएगी. वो चाहती कि नीतीश कुमार चले जाएं. मोदी? मोदी अच्छे हैं…
ये मोदी सरकार थी जिसने लॉकडाउन के दौरान, लोगों के बैंक खातों में 500 रुपए की तुच्छ रक़म डलवाई थी. ये मोदी सरकार थी जिसने लॉकडाउन थोपा था, और ये मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां हैं, जिनकी वजह से 2016 के बाद से, भारतीय अर्थव्यवस्था गिरती जा रही है. फिर भी, ये नीतीश कुमार हैं जो सारी आलोचना झेल रहे हैं. मोदी अच्छे हैं. जो लोग कहते थे कि लॉकडाउन एक अच्छा क़दम था, चूंकि इसने कोविड-19 से लोगों की ज़िंदगियां बचा लीं, वही लोग राज्य सरकार की इस बात के लिए आलोचना करते हैं, कि लॉकडाउन के दौरान उसने लोगों की मुसीबतों के समय उनका ख़याल नहीं रखा.
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आप नीतीश कुमार को दोष दे सकते हैं, कि उन्होंने बहुत असंवेदनशील तरीक़े से बिहारी प्रवासी मज़दूरों से कह दिया, कि वो अपने घरों को वापस नहीं लौट सकते थे, लेकिन क्या वो नरेंद्र मोदी नहीं थे, जिन्होंने सभी सार्वजनिक परिवहन बंद कर दिए थे? फिर भी, मोदी की कोई आलोचना नहीं होती. तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला विपक्षी गठबंधन भी, नीतीश पर निशाना साध रहा है, मोदी पर नहीं, इस डर से कि लोकप्रिय मोदी के खिलाफ निगेटिव प्रचार का असर उल्टा पड़ सकता है.
हम कुछ समय से ये रुझान देख रहे हैं, और हर सूबे में. सब कुछ जो अच्छा है, वो मोदी के कारण है, और जो भी ग़लत हो जाता है, वो राज्य सरकारों की ग़लती है. बीजेपी की अगुवाई वाली प्रांतीय सरकारों में भी. न्यूज़ चैनल्स, जो मोदी सरकार के माउथपीस की तरह काम करते हैं, मुज़फ्फरपुर बालिका गृह यौन शोषण मामले में नीतीश कुमार के पीछे पड़ गए, लेकिन बेरोज़गारी के लिए वो कभी मोदी से सवाल नहीं करेंगे.
ये नरेंद्र मोदी की ही नीति थी, कि महंगाई को क़ाबू रखने के लिए, कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को न बढ़ाया जाए. इससे कृषि संकट पैदा हुआ, जिसके परिणामस्वरूप मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनावों में, बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा, और दोनों जगह कृषि ऋण माफी का वादा करके, कांग्रेस ने जीत हासिल कर ली. रमन सिंह और शिवराज सिंह के सत्ता से बाहर होते ही, मोदी ने 6,000 रुपए सालाना की नक़द सहायता देकर, किसानों को ख़ुश कर दिया.
राजस्थान में, हमने बीजेपी रैलियों में नारा सुना: ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं’. उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनावों में, मैं बीजेपी कार्यकर्ताओं से मिला, जिन्होंने बताया कि वो घर घर जाकर लोगों से कह रहे हैं, कि योगी आदित्यनाथ सरकार से अपना ग़ुस्सा मोदी पर न उतारें. उनका कहना था कि ठाकुरों के साथ कथित अधिमानी व्यवहार का मुद्दा, विधान सभा चुनावों में तय होना चाहिए.
देश में कुछ भी ग़लत हो जाए, तो नरेंद्र मोदी को उससे दूर रखने, और उनकी छवि को बचाने के लिए बीजेपी मशीनरी, व्हाट्सएप से लेकर न्यूज़ चैनल्स और पार्टी काडर्स तक, कड़ी मेहनत करती है. इसके लिए वो बीजेपी मुख्यमंत्रियों की भी बलि चढ़ा सकते हैं, और नीतीश कुमार जैसे एनडीए सहयोगियों की भी.
ताज़ा प्रवेश
नीतीश कुमार सभी मुख्यमंत्रियों और क्षेत्रीय नेताओं के लिए एक सचेतक कहानी हैं: अगर आप ख़ुद को दिल्ली दरबार में शामिल कर लेते हैं, तो वो आपको बलि का बकरा बना देगा. हमने महबूबा मुफ्ती, वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान, और पंजाब में बादल परिवार के साथ ऐसा होते देखा है, और अब नीतीश कुमार के साथ यही देख रहे हैं. इस क्रम में अगली बारी, हरियाणा के दुष्यंत सिंह चौटाला की है.
ये कुछ ऐसा ही है जैसे गूगल अकसर उभरते हुए स्टार्ट-अप्स को ख़रीद लेता है, और फिर उन्हें बंद कर देता है. इससे गूगल को इंटरनेट पर लगभग एकाधिकार बनाए रखने में मदद मिलती है.
अगर नीतीश कुमार ने मोदी के सामने समर्पण न किया होता, तो लोगों की सभी मुसीबतों के लिए आज वो मोदी को दोष दे रहे होते, और ख़ुद को असंवेदनशील दिल्ली से लड़ रहे, बिहारी लोगों के चैंपियन के रूप में पेश कर रहे होते. 2015 के बिहार असैम्बली चुनावों में उन्होंने यही किया था. लॉकडाउन और बेरोज़गारी, राज्यों को जीएसटी का कष्ट देने, और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पर, वो मोदी से सफाई मांग सकते थे. लालू के वोट बैंक के साथ वो आसानी से, मतदाताओं को अपनी कहानी बेंच सकते थे. एक असंवेदनशील अत्याचारी दिखने की बजाय, नीतीश एक लड़ने वाले अंडरडॉग की भीमिका निभा सकते थे, जो अब तेजस्वी यादव निभा रहे हैं. उसकी बजाय उन्हें मजबूरन मोदी का नेतृत्व मानना पड़ रहा है, मोदी के नाम पर वोट मांगने पड़ रहे हैं, और बिहारियों से वादा करना पड़ रहा है, कि बिहार का विकास सीएम नीतीश नहीं, बल्कि पीएम मोदी करेंगे.
दस नवंबर के बाद अगर बिहार में एनडीए सरकार आ जाती है, तो भी ये निश्चित है कि इस चुनाव में, सबसे बड़ी हार नीतीश कुमार की होगी. इसका असर उनकी सीटों पर भी दिखना तय है. जब ऐसा होगा, तो उन्हें पीछे मुड़कर जुलाई 2017 को देखना चाहिए, और समझना चाहिए कि वो एक सियासी ख़ुदकुशी थी.
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