फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों ने बस यह कहने की गुस्ताखी की कि इस्लाम संकट में है और खुद को भारी संकट में फंसा लिया. तुर्की के रेसेप तैयब एर्दोगन ने उन्हें अपने दिमाग की जांच करवाने की हिदायत दे दी. पाकिस्तान के इमरान खान ने मुस्लिम मुल्कों के लिए दो पन्ने का उपदेश जारी कर दिया कि वे पश्चिम को इस्लाम के बारे में फिर से शिक्षित करें और मलेशिया के 95 वर्षीय महातिर मोहम्मद ने तो सारी हदें तोड़ डालीं. वे इतने नाराज हो गए कि फ़्रांसीसियों ने अतीत में मुसलमानों के साथ जो भी किया उसके लिए उनकी सामूहिक हत्या को उन्होंने जायज बता दिया और पश्चिम के पतन की निंदा करते हुए कहा कि पश्चिम ‘नाम का ही ईसाई है. वहां तो औरतें प्रायः अपने गुप्त अंगों को महज एक धागे से ढककर घूमती नज़र आती हैं.’ पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत में विरोध प्रदर्शन होने लगे.
लेकिन सवाल यह है कि मैक्रों ने सच कहा या नहीं? इन ताकतवर और बड़ी आबादी वाले देशों के प्रमुख नेताओं की प्रतिक्रियाएं संकट की ओर ही संकेत करती हैं. अगर दुनियाभर के करोड़ों मुसलमानों को यह लगता है कि उन्हें व्यापक ‘इस्लामोफोबिया’ (इस्लाम विरोध) का निशाना बनाया जा रहा है, तो यह निश्चित ही उनमें अविश्वास और अलगाव की दहशत पैदा करता है. पवित्र ग्रंथ के बावजूद, सच के कई पहलू हो सकते हैं. उन्हें समझने की यहां एक संपादकीय कोशिश की जा रही है.
इसे मैं पांच बिंदुओं की व्याख्या के जरिए रखता हूं-
1. सभी धर्मों का राजनीतिकरण हो चुका है और फिलहाल तो ऐसा लगता है कि इस्लाम का सबसे ज्यादा राजनीतिकरण हुआ है. आप सदियों तक चले ईसाई धर्मयुद्धों की बात निश्चित ही कर सकते हैं. लेकिन यह तो बहुत बीते दिनों की बात हुई. अगर इसका उदाहरण अलक़ायदा, आईएसआईएस या कोई नाराज मुस्लिम मुल्क दे रहा हो तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह बहुत बीते दिनों की बात हुई.
इस्लाम दुनिया में दूसरा सबसे व्यापक धर्म है, जिसमें आस्था रखने वाले लोगों की तादाद 200 करोड़ से ज्यादा है. इससे ज्यादा संख्या बस ईसाइयों की है, जिनकी कुल आबादी मुसलमानों से 20 प्रतिशत ज्यादा है. ईसाइयों की तरह मुस्लिम भी पूरी दुनिया में बसे हुए हैं. लेकिन ईसाइयों के विपरीत, वे जिन देशों में बहुमत में हैं उनमें से बहुत कम देशों में ही लोकतंत्र है. ये सारे तथ्य ऐसे हैं जिनकी जांच की जा सकती है. गौर करने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि करीब 60 प्रतिशत मुस्लिम एशिया में हैं और दुनिया में वे जिन चार देशों-भारत, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान- में सबसे बड़ी आबादी में हैं, उन देशों में लोकतंत्र किसी-न-किसी अनुपात में जरूर मौजूद है.
इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता है कि जिन देशों में मुस्लिम बहुमत में हैं वहां धर्मनिरपेक्षता को एक बुरा शब्द एक पश्चिमी विचार माना जाता है. लेकिन जिन लोकतांत्रिक देशों में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, वहां वे उस गणतंत्र की धर्मनिरपेक्षता को हमेशा कसौटी पर चढ़ाए रखते हैं. फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, बेल्जियम, जर्मनी इसके अच्छे उदाहरण हैं. इनमें मैं भारत को शामिल नहीं कर रहा, तो इसकी वजह है. यूरोप में तो वे बाद में जाकर बसे लेकिन भारत में वे नये गणतंत्र के निर्माण में बराबर के और स्वेच्छा से हिस्सेदार थे.
2. मुस्लिम आबादी और देशों के बीच राष्ट्रवाद और ‘पैन’ राष्ट्रवाद को लेकर तनाव कायम है. यह उम्माह की वजह से है, कि दुनिया के सभी मुसलमान एक ‘सुप्रा’ राष्ट्रीयता के हिस्से हैं. इसे आप उम्मा के नेताओं के नाम जारी इमरान खान दो पन्ने के उपदेश में भी देख सकते हैं. इसे हम इस उपमहादेश में कभी-कभी उभरते देखते रहे हैं. 1919-24 में कमाल अतातुर्क ने ऑटोमन की खिलाफत को खत्म करते हुए जब तुर्की में गणतंत्र की स्थापना की और इसके विरोध में जो खिलाफत आंदोलन चला उसमें भी, सलमान रुश्दी के मामले में भी, फिलस्तीन के लिए घटते समर्थन में भी, और अब फ्रांस के मामले में भी हमने इसे उभरते देखा.
इसके कुछ दिलचस्प नतीजे भी सामने आए हैं. धारणा तो ‘पैन’ इस्लामवाद का है मगर मुसलमानों में आपस में ही और मुस्लिम देशों के बीच जितने युद्ध होते हैं उतने दूसरों के साथ नहीं होते. ईरान-इराक़ युद्ध तो सबसे लंबा ही रहा, सद्दाम के खिलाफ अमेरिकी गठबंधन में बड़ी संख्या में इस्लामी देश शामिल हुए थे. अपने क्षेत्र में, अफगानिस्तान-पाकिस्तान इलाके में मुसलमान मुसलमानों का ही कत्ल करते हैं और सारी हत्याएं शिया मस्जिदों में शुक्रवार को होने वाली बमबारियों में ही नहीं होतीं.
एक गैर-मुस्लिम दुश्मन के खिलाफ किसी सच्चे ‘पैन’ इस्लामी गठबंधन का अंतिम युद्ध 1967 में हुआ था, जो इजरायल के खिलाफ हुआ था और महज छह दिन चला था. ऐसा ही कुछ 1973 में हुआ था योम किप्पुर युद्ध में. लेकिन तब मिस्र और जॉर्डन ने शांति समझौता कर लिया था. ईरान को इजरायल से युद्ध करने के लिए लगभग अकेला छोड़ दिया गया है, सीरिया ने अपनी बरबादी खुद कर ली है. भारत के खिलाफ किसी भी युद्ध में कोई इस्लामी मुल्क पाकिस्तान का साथ देने नहीं आया, सिवा इसके कि 1971 के युद्ध में जॉर्डन ने उसे कुछ एफ-104 विमान दिए थे.
3. यह हमें एक क्रूर विडंबना से रूबरू कराता है. ‘पैन’ इस्लामवाद या उम्माह का जज्बा जमीन पर अगर कहीं उतरता दिखा है तो वह प्रायः बहुराष्ट्रीय आतंकवादी गिरोहों में ही. अलक़ायदा और आइएसआइएस सच्चे अर्थ में ‘पैन’ इस्लामवादी संगठन हैं, जो अधिकतर स्थिर इस्लामी मुल्कों को ही निशाना बनाते हैं. आईएसआईएस का कहना है कि अगर आप यह मानते हैं कि सभी मुसलमान एक ही उम्माह के हिस्से हैं, तो एक खिलाफत भी होनी चाहिए जिसमें सभी अंतरराष्ट्रीय सीमाएं खत्म होती हों और एक शरीयत लागू हो.
अफगानिस्तान, इराक़, सीरिया… आप गिनते जाइए. लेकिन हमें इस पर भी गौर करना चाहिए कि जिस हमारे उपमहादेश में दुनिया की एक तिहाई मुस्लिम आबादी रहती है उसके गिन-चुने मुसलमान ही अलक़ायदा और आईएसआईएस में क्यों देखे जाते हैं? इस बहस में मेरा तर्क यह है कि हमारे यहां के देशों- भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश- में राष्ट्रवाद ‘पैन’ इस्लामवाद पर हावी है. इन देशों में मुसलमानों का एक झण्डा है. एक पसंदीदा क्रिकेट टीम है प्यार या नफरत करने के लिए एक नेता है. अगर वे उससे नफरत करते हैं तो उसके खिलाफ वोट देते हैं या उसके खिलाफ अपने तरीके से विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं. उन्हें किसी काल्पनिक खिलाफत की क्या जरूरत है?
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4. चौथा बिंदु जो है वह घोर विरोधाभास का है. मुस्लिम आबादियों और दौलत के बंटवारे की राष्ट्रीय सीमाएं बिलकुल साफ खिंची हुई हैं. एशिया और अफ्रीका में उनकी ज़्यादातर आबादी गरीब देशों में बसी है, जबकि दुनिया के सबसे अमीर देश-खाड़ी के अरब देशों- में उनकी अपेक्षाकृत छोटी आबादी है. वे ‘पैन’ इस्लामवाद के जज्बे के तहत दौलत का बराबर बंटवारा नहीं करेंगे. उन्हें पश्चिम के साथ, और अब तो भारत और इजरायल के साथ भी साझीदारी करने में खुशी होती है. क्योंकि उनके लिए हर चीज चाहे वह राजनीतिक ताकत हो या शाही विशेषाधिकार या वैश्विक हैसियत, सब कुछ उस पर निर्भर है जिसे ‘पैन’ इस्लामवाद चुनती देता है- वह है यथास्थिति. जीडीपी-आबादी का असंतुलन क्यों है, इसका जवाब किसी के पास नहीं है और आईएसआईएस जैसी ताकतों का उभार इन दीवारों को और मजबूती ही देता है.
5. और अंत में अधिकतर इस्लामी देशों में लोकतंत्र के अभाव के कारण आप विरोध नहीं कर सकते, सरकार के खिलाफ अपना असंतोष जाहिर नहीं कर सकते. आप इस बात से परेशान हो सकते हैं कि आपकी शाही हुकूमत अमेरिकी शैतान के हाथों बिक चुकी है और आप कुछ कर नहीं सकते. न नारा लगा सकते हैं, न तख्ती दिखा सकते हैं, न ब्लॉग लिख सकते हैं, न संपादक को पत्र लिख सकते हैं, न ही कोई ट्वीट कर सकते हैं. यह आपको हमेशा के लिए जेल पहुंचा सकता है या आपका सिर कलम करवा सकता है. इसलिए आप वहां चल देते हैं, जहां आप यह सब कर सकते हैं.
यही वजह है कि 2003 में मैंने इस स्तम्भ में प्रतिशोध के वैश्वीकरण के बारे में लिखा था. चूंकि आप अपने देश में इन सब में से कुछ भी नहीं कर सकते, तो आप यूरोप, अमेरिका में यह करते हैं. बर्बर रूप से नियंत्रित अपने नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट में आप आक्रोश में फुसफुसा भी नहीं सकते, इसलिए आप दूसरे देश में जाते हैं, जहां आप आज़ादी से रह सकें, पाइलट बनने की ट्रेनिंग ले सकें और फिर विमानों को उड़ाते हुए ‘ट्वीन टावर’ से टकरा सकें; जहां खालिद शेख मोहम्मद को भी निष्पक्ष इंसाफ पाने का अधिकार मिलता है. आप अपने हुक्मरानों से नहीं लड़ सकते, तो क्यों न उन्हें सज़ा दें जिनका हुक्म ये हुक्मरान बजाते हैं? क्या यह प्रतिशोध का वैश्वीकरण नहीं है?
निष्कर्ष यह कि फ्रांस में सेमुएल पैटी की हत्या की जाए. हत्यारा अब्दुल्लाख एंजोरोव एक चेचेन शरणार्थी परिवार का 18 वर्षीय लड़का है. चेचेन्या उत्तरी कौकसस का एक छोटा सा रूसी गणराज्य है, जिसकी करीब 10 लाख आबादी में 95 प्रतिशत मुसलमान हैं. रूसियों ने दो बर्बर हमले करके उनके अलगाववादी विद्रोह को दबा दिया था. लेकिन स्थिति ‘सामान्य’ होने तक आधी आबादी शरणार्थी शिविरों में पहुंच चुकी थी. कई ने बेहतर जीवन के लिए पश्चिमी लोकतान्त्रिक देशों की ओर रुख किया. ऐसे ही एक परिवार का है कमउम्र हत्यारा एंजोरोव.
अब हम इस पहेली को समझने की कोशिश करें. जब चेचेन्या ने रूसियों के खिलाफ जिहाद कर दिया तब अफगानिस्तान के कई पुराने लड़ाकों समेत दुनियाभर के कई मुस्लिम ‘लड़ाके’ उसका साथ देने आ पहुंचे, क्योंकि अब तक उसने यही सीखा था, रूसियों के खिलाफ जिहाद करना. ‘पैन’ इस्लामवाद ने चेचेन्या में मौत, तबाही और व्यापक गरीबी ला दी. लाखों लोग सुरक्षा, बेहतर जीवन और शांति की खातिर पलायन करके उदारवादी लोकतांत्रिक देशों में पहुंच गए. अब वे वहां अपने सामाजिक और धार्मिक मूल्यों के मुताबिक जीना चाहते हैं. यह तय करना चाहते हैं कि आपके कार्टूनिस्ट क्या चित्र बनाएं, आपके शिक्षक क्या शिक्षा दें. इस मुद्दे पर मनन कीजिए और तब बहस कीजिए कि ऊपर जिन पांच बिंदुओं की चर्चा की गई है उनमें कुछ सार तत्व है या नहीं.
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मुस्लिम्स की यही वैश्विक समस्या है कि वो अपने देश में अपने शासन के विरुद्ध जो आक्रोश था उस की अभिव्यक्ति के लिए एक मुनासिब जगह ढूंढता है और वो जगह सिर्फ उदार वादी लोकतांत्रिक धर्म निरपेक्ष देश ही हो सकते है ऐसे लोग चीन नहीं जाएंगे।अब सवाल ये है कि वो दूसरे देशों में जाकर कों सी अभिव्यक्ति ढूंढते है उनकी अभिव्यक्ति एकतरफा होती है उनकी पहली शर्त ही ये होती है कि कोई सवाल नहीं वो आपके ड्रेसकोड पर,आपकी जीवन शैली पर,आपकी पूजा पद्धति परस्वाल उठा सकते हैं पर आप नहीं।उनकी अव्यक्त शर्त होती है कि आपको उनके साथ साथ उनके विचारधारा को भी शरण देनी होगी यदि वो विचारधारा आपके देश के अनुकूल नहीं है टॉपने देश को उनके हिसाब से बदलिए जिससे वो उसे अपना देश मान सके
ये तो हद हो गया
कोई एहसान करता है तो उसका सुक्रिया करना चाहिए
ीेकिन ये बिरोध पर उतर आये हैं!
ऊपर से निर्दोस लोगों की निर्मम हत्या भी कर रहे